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अपने अपने युद्ध में : हाईकोर्ट

सरोकारनामा : दयानंद पांडेय

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हां, हाई कोर्ट अब संजय का नया ओढ़ना-बिछौना था।
‘‘कचहरी तो बेवा का तन देखती है, खुलेगी कहां से बटन देखती है।’’ तथ्य से वाकिफ होते हुए भी वह तब अपने को राम की भूमिका में पाता और समूची व्यवस्था को रावण की भूमिका में। वह ‘‘धर्मयुद्ध’’ के नशे में यह भूल गया कि हाईकोर्ट भी न्याय का घर नहीं, रावण ही का घर है। वह घर जहां कोई विभीषण भी नहीं होता कि जिस से पूछ कर वह रावण की नाभि में बाण मार दे। दूसरी तरफ उस के पास कोई हनुमान भी नहीं था जो उस अन्याय की नगरी हाईकोर्ट को जला देता। वह तो धर्मयुद्ध के नशे में था और बिल्ली की भूमिका में बाघ से लड़ रहा था यह गाते हुए कि, ‘‘लड़ाई है दिए की और तूफान की।’’ बिन यह जाने कि उस की जिंदगी में अब एक नया तूफान बसने वाला है और कि वह दीया नहीं आदमी है। दीया बुझ जाने पर कोई उसे फिर जला देता है, तूफान से ओट कर बचा लेता है। पर जब आदमी बुझता है तो कोई उसे जलाता नहीं, उस पर थूक देता है।
हाईकोर्ट जो रावणों का घर है। जहां हर जज, हर वकील रावण है। न्याय वहां सीता है और कानून मारीच। जैसे रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया ठीक वैसे ही हाईकोर्ट में जज और वकील कानून को मामा मारीच बना कर न्याय की सीता छलते हैं। ‘‘राम’’ को हिरन की तलाश में भटकाते हुए न्याय की सीता को हर लेते हैं। क्या तो अपना-अपना इंटरप्रेटेशन है ! लॉ का एक प्रोसिजर है ! तिस पर तुर्रा यह कि ‘‘वादकारी का हित सर्वोच्च होता है।’’ पर वास्तविकता यह है कि वादकारी राम बना मारीच के पीछे-पीछे भागता रहता है और थक-हार कर वापस आता है ! तो पाता है कि सीता यानी न्याय का हरण हो गया है। फिर वह व्यक्ति राम की तरह ‘‘तुम देखी सीता मृगनयनी’’ कहता हुआ यहां-वहां तारीख़ों के मकड़जाल में भटकता रहता है। फिर भी जैसे राम को भी पता था कि मृग सोने का नहीं होता, फिर भी सीता के कहे पर पीछे-पीछे भागे वैसे ही हाईकोर्ट का ‘‘राम’’ भी जानता है कि कानून न्याय के लिए नहीं होता फिर भी वह उस के पीछे-पीछे भागता है। न्याय पाने की आस में। ऐसा भी नहीं कि न्याय वहां नहीं मिलता। न्याय मिलता भी है पर राम को नहीं। रावण को और उस के परिजनों को। हत्यारों, डकैतों को जमानत मिलती है। हां, राम को तारीख़ मिलती है !
तो तारीख़ों के तंत्र से बेख़बर संजय ऐसे मारा-मारा फिरता, जैसे रोशनी की तलाश में पतंगा दीए के आगे पीछे घूमता है और मारा जाता है। दूसरों को सलीका सिखाने वाले संजय को लगता था कि वह एक नई राह गढ़ने वाला है। उसे यह नहीं पता था कि वह नई राह गढ़े न गढ़े किसी राह के गड्ढे में खुद को औंधा जरूर पाएगा।
लेकिन अभी तो शुरुआत थी।
शुरुआती दौर में उस ने लड़ाई लगभग जीत ली थी। अंतरिम आदेश उस के पक्ष में था। अब अलग बात है कि अंतरिम आदेश झुनझुना ही साबित हुआ। पर तब तो वह कहता था कि देश में न्याय तो है। लेकिन इस न्याय को अन्याय में बदलते ज्यादा देर नहीं लगी। वह तारीख़ों के तंत्र में टूटता-फूटता जड़ होता गया। डिप्रेशन का दंश उसे और हीन बनाता। वह घर लौटता तो सोचता कि वह इस नपुंसक न्याय व्यवस्था का क्या करे ? सोचते-सोचते वह यह भी सोचता कि वह कहीं खुद भी तो नपुंसकता की राह नहीं चल पड़ा ! लेकिन जब वह कई और दूसरों को देखता; निर्धन, दबे कुचले और असहाय लोगों को जब हाई कोर्ट के बरामदे में आस की रोशनी के लिए भागते देखता, उसे जैसे थोड़ी देर के लिए आक्सीजन मिल जाती। जब यह सारे लोग अगली तारीख़ों पर आने की बात करते, लगता जैसे वह रेगिस्तान में भटक रहे हैं। चुल्लू भर पानी के लिए जल के रेत में मर रहे हैं। लेकिन वकीलों और न्यायमूर्तियों की सेहत पर इन सब चीजों से शिकन तक नहीं आती। सैकड़ों आदमी उन की आंखों के सामने बरबादी के ढूह पर चढ़ते जाते और वह ‘‘मूर्ति’’ बने न्याय की प्रोसीडिंग का कहवा पिला देते।
संजय को अकसर एक बूढ़ी महिला हाई कोर्ट के बरामदे में रोती मिल जाती। उस की तकलीफ यह थी कि वह एक तो विधवा थी, दूसरे कोई बीस साल मुकदमा लड़ने के बाद अपने मकान का मुकदमा जीती थी। लेकिन चार साल से उस के मकान पर गुंडों ने कब्जा कर रखा था। लेकिन हाई कोर्ट अपने आदेश का अनुपालन कराने में अक्षम था। गुंडे उस के मकान पर कब्जा भी किए थे और धमकाते भी थे। उस ने न्यायमूर्ति बने कई मूर्तियों से यह बात कही थी, लेकिन मूर्तियां तो जैसे पत्थर की थीं, सब कुछ अनसुना कर देती थीं। वह बूढ़ी महिला इतनी आहत हुई कि एक दिन भरी अदालत में उस ने अपनी जीत के फैसले का कागज जला दिया और ख़ुद भी जलने को उद्धत हो गई। न्याय मूर्तियों का न्याय देखिए कि अपने ही आदेश का अनुपालन करवा पाने में अक्षम उस बूढ़ी महिला को दोषी करार दे दिया और उसे पुलिस हिरासत में भेज दिया। संजय यह देख कर दहल गया।
वह सोचता यह कौन-सी राह है ?
वह सोचता रहता अदालतों की किसी बेंच पर बैठा न्यायमूर्तियों के ‘‘मूर्ति’’ में तब्दील होते जाने के ख़तरों से विवश। पहले वह सुनता था कि कोई पोस्ट कार्ड पर लिख कर अपना दुखड़ा भेजता था तो न्यायमूर्ति लोग उसे ही याचिका मान कर उस पर फैसला दे देते थे। और वह यहां देखता कि पोस्ट कार्ड की कौन कहे, याचिकाओं पर ही सुनवाई के लिए न्यायमूर्तियों के पास समय नहीं होता। वकीलों की दलाली, अपराधियों का गठजोड़ और धनपशुओं का बोलबाला जैसे हाई कोर्ट का अविभाज्य अंग बन चुका था। और उस दिन तो संजय की आंखें खुली की खुली रह गईं जब एक काफी बड़े वकील ने उस से पूछा, ‘‘आप पढ़े लिखे आदमी हैं ?’’ संजय ने जब ‘‘हां !’’ कहा तो वह वकील बोले, ‘‘तो फिर आप यहां क्या कर रहे हैं ? हाई कोर्ट कोई पढ़े लिखों की जगह नहीं है।’’ लेकिन संजय फिर भी बिदका नहीं उसे तो अगली तारीख़ पर अपनी विजय पताका फहराती दिखती थी। और ऐसा सपना संजोने वाला संजय कोई अकेला नहीं था, सैकड़ों-हजारों लोग थे। इन सैकड़ों हजारों लोगों का अपराध सिर्फ इतना था कि वह कहीं न कहीं अन्याय के शिकार हुए थे और न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे।
रामकेवल ऐसे ही लोगों में से एक था। कोई आठ साल से अपनी नौकरी का मुकदमा लड़ रहा था। वह मुकदमा जीत चुका था लेकिन हाई कोर्ट के आदेशों का अनुपालन नहीं हो रहा था। रामकेवल जब सुबह हाई कोर्ट में मिलता तो उस के चेहरे पर दिवाली की दमक होती। पूरा दिन निकल जाता, उस की अवमानना याचिका की सुनवाई का नंबर ही नहीं आता। उस के चेहरे पर लगता किसी ने पचासों जूते मारे हों। लेकिन वह कहते हैं न कि ‘‘आंखों में नमी, हंसी लबों पर’’ ऐसी ही स्थिति रामकेवल के चेहरे पर होती। वह फिर अगली तारीख़ के लिए पेशकार के फेरे लगाता, चढ़ावा चढ़ाता और कहता, ‘‘अगली तारीख़ पर तो फाइनल हो ही जाएगा।’’ और एक दिन हुआ यह कि रामकेवल एक अदालत में बैठे-बैठे खुद ही ‘‘फाइनल’’ हो गया। इस बात की सुधि किसी न्यायपूर्ति ने नहीं ली, न ही उस के वकील ने। ली तो पेशकार ने। पेशकार सब से आखि़र में चिल्लाया, ‘‘रामकेवल तुम भी अपनी तारीख़ ले लो।’’ पेशकार यह नहीं जानता था कि रामकेवल अब ख़ुद तारीख़ बन चुका है। वह तो समझा कि रामकेवल सो गया। उस ने उसे पास जा कर झिंझोरा। रामकेवल जब गिर पड़ा तब पेशकार की समझ में आया कि रामकेवल की तारीखे़ं पूरी हो चुकी हैं। अब उस को न ‘‘अनलिस्टेड’’ की जरूरत है और न ही ‘‘नेक्स्ट काजलिस्ट’’ की।
संजय तब भीतर तक हिल गया। बिना कोई तारीख़ लिए वह घर चला गया। बहुत दिनों तक वह फिर हाई कोर्ट जाने से कतराता रहा। पर धीरे-धीरे न्याय पाने का कीड़ा उस के भीतर फिर से कुलबुलाने लगा। रामकेवल का हश्र हाशिए पर रख कर वह एक दिन फिर से अपने वकील के चैंबर में बैठा तारीख़ पाने के लिए अप्लीकेशन लिखवा रहा था। इस तरह हाई कोर्ट एक बार फिर वह जीने जा रहा था। हाई कोर्ट जीने जा रहा था कि अपने ही को छलने जा रहा था ? उस के लिए तुंरत-तुरंत यह समझ पाना मुश्किल था।
मुश्किल ही था उस के लिए न्याय पाना भी। लेकिन मोती बी॰ ए॰ के उस भोजपुरी गीत को गुनगुनाता हुआ कि, ‘‘रेतवा बतावे नाईं दूर बाड़ैं धारा, तनी अऊरो दऊर हिरना पा जइब किनारा।’’ संजय हाई कोर्ट के गलियारों की गंध एक बार फिर अपने नथुनों में भरने लगा। तारीख़ों की कील से दिल दिमाग और पावों को छीलता हुआ, न्यायमूर्तियों की मूर्तियों से अपने मन को मारता हुआ, न्याय की आस में हांफता हुआ संजय एक नया ही संजय बनता जा रहा था। बारिश में भींगता हुआ, सर्दी में गलता हुआ और धूप में तपता हुआ, आते-जाते मौसम की मार खाता वह अब न्यायमूर्तियों के सामने जब तब खुद अपने मामले की पैरवी करने लगा था। हालां कि न्यायमूर्तियों की मूर्तियां उस की बातों की परवाह नहीं करतीं पर वह जूझ-जूझ जाता। वह जब पढ़ता था तो कहीं पढ़ा था कि किसी देश के लिए सेना से भी ज्यादा जरूरी न्यायपालिका होती है।
पर क्या ‘बेल’ पालिका में तब्दील हो गई यह नपुंसक न्यायपालिका ?
जो अपने ही आदेश न मनवा सके। आदमी आदेश ले कर झुनझुने की तरह बजाता घूमता रहे और कोई उस आदेश को मानना तो दूर उस की नोटिस भी नहीं ले। एक डी॰ एम॰ बल्कि उस से भी छोटा उस का एस॰ डी॰ एम॰ क्या तहसीलदार भी कोई आदेश करे तो उस का अनुपालन तुरत हो जाए। पर हाई कोर्ट के जज का आदेश रद्दी की टोकरी में चला जाए। तो ऐसे में न्यायपालिका के औचित्य पर प्रश्न उठ जाना सहज ही है। फिर सेना से ज्यादा जरूरी न्यायपालिका कैसे हो सकती है ? कि एक छोटा सा प्रशासनिक आदेश तुरत फुरत मान लिया जाता है पर न्यायपालिका के आदेश को कोई आदेश ही मानने को तैयार नहीं होता। बल्कि कई बार तो बिना आदेश का अनुपालन किए उस आदेश की वैधता को ही चुनौती दे दे जाती है। इस चुनौती का निपटारा भी जल्दी करने के बजाय न्याय मूर्तियों की मूर्तियां मुसकुरा-मुसकुरा कर तारीख़ों की तरतीब में उलझा कर रख देती हैं। फिर झेलिए स्पेशल अपील बरास्ता सिंगिल बेंच, डबल बेंच, और फुल बेंच। आप अदालतों की बेंचों पर बैठे-बैठे कमर टेढ़ी-सीधी करिए और ये ‘‘बेंचें’’ आप को तारीखे़ं देंगी। आप कहते क्या चिल्लाते रहिए कि देर से मिला न्याय भी अन्याय ही है। पर इन न्यायमूर्तियों की कुर्सियों को यह सब सुनाई नहीं देगा। सुनना भी चाहेंगे तो अपोजिट पार्टी के वकील का जूनियर खड़ा हो कर कहेगा कि, ‘‘माई लार्ड हमारे सीनियर बीमार हैं। या कि फलां कोर्ट में पार्ट हर्ड में बिजी हैं।’’ भले ही सीनियर उसी कोर्ट के बाहर बरामदे में कुत्ते की तरह यह सूंघते हुए टहल रहा हो कि भीतर क्या घट रहा है।
संजय और उस के जैसे जाने कितने न्याय के भुखाए लोग इस ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ के शिकार बने तड़पते घूमते रहते हैं। न्याय व्यवस्था के दोगलेपन पर एकालाप करते रहते हैं जिस-तिस से। पर कोई सुनता नहीं।
यहां तक कि चेतना भी नहीं।
चेतना संजय से कहती कि, ‘‘बाकी सारी बातें सुन सकती हूं, पर हाई कोर्ट की भड़ास नहीं।’’ इस पर संजय बिफर पड़ता, ‘‘यहां जिंदगी जहन्नुम हुई जा रही है और तुम इसे भड़ास कहती हो !’’ वह छूटते ही बोलती, ‘‘बिलकुल ! किस डाक्टर ने कहा कि हाई कोर्ट में मुकदमा लड़िए ? मैं तो कहती हूं कि अगर कोई डाक्टर कहे भी तो मुकदमा नहीं लड़ना चाहिए !’’ वह कहती, ‘‘कोई और बात करिए । यहां तक कि जहन्नुम की बात करिए सुनूंगी। पर हाई कोर्ट और मुकदमे की नहीं। क्यों कि जहन्नुम एक बार सुधर सकता है। पर हाई कोर्ट नहीं। फिर जहन्नुम में कम से कम किसी शरीफ और भले आदमी को तो अकारण नहीं फंसना पड़ता। पर हाई कोर्ट में ?’’ वह बोलती, ‘‘अच्छा भला आदमी सड़ जाता है। जाता है न्याय मांगने और न्याय की रट लगाते-लगाते अन्याय के भंवर में डूब जाता है। और कोई बचाने नहीं आता।’’
चेतना की यह बातें सुन कर संजय चुप लगा जाता। चुप-चुप बैठे-बैठे वह उस से लिपटने लगता। चूमने लगता। वह फुंफकारती, ‘‘यह कोई बेडरूम नहीं है।’’
‘‘बेडरूम में इस तरह लिपटा या चूमा नहीं जाता। सीधे शुरू हो जाया जाता है।’’ संजय उस का प्रतिरोध करते हुए बोलता। और चेतना की फुंफकार की परवाह किए बगैर उसे फिर से चूमने लगता।
‘‘हाई कोर्ट में मुकदमा लड़ते-लड़ते आप वहां के वकीलों की तरह बेहया भी हो गए हैं। कुछ भी कहा सुना आप पर फर्क नहीं डालता। कुछ तो सुधरिए और समझिए कि मैं हाई कोर्ट नहीं हूं।’’ वह दूर छिटकती हुई बोलती।
‘‘तो क्या सुप्रीम कोर्ट बनना चाहती हो ?’’ चुहुल करता हुआ संजय पूछता।
‘‘जी नहीं। कोई कोर्ट वोर्ट नहीं। बनाना हो तो बीवी बना लीजिए।’’
‘‘फिर चाहे चौराहे पर ही शुरू हो जाऊं ?’’
‘‘तब चाहे जहां शुरू हो जाइए !’’
‘‘पर मेरी एक बीवी है। दूसरी कैसे कर लूं ?’’
‘‘तो जाइए उस एक बीवी के साथ लिपटिए। यहां मेरे साथ क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मतलब यह कि एक बीवी के रहते आप दूसरी बीवी नहीं कर सकते। अच्छी बात है। बहुत अच्छी बात। पर एक बीवी के रहते किसी और के साथ लिपटिए-चिपटिए यह भी गलत है। बहुत गलत बात !’’
‘‘तो ?’’
‘‘तो क्या जाइए और बीवी के पल्लू में लिपटिए।’’ कहती हुई वह मुसकुराई।
‘‘सच।’’
‘‘हां, एक काम और करिए कि हाई कोर्ट का चक्कर छोड़िए। मुकदमेबाजी से बाज आइए और कोई एक ठीक ठाक नौकरी कर लीजिए। इसी में आप की भलाई है।’’ वह रुकती हुई बोली, ‘‘अब यहां से चलिए। अंधेरा हो रहा है।’’
‘‘ठीक है।’’ कहते हुए संजय ने उसे फिर से बांहों से भर कर चूम लिया।
‘‘आप सुधरेंगे नहीं।’’ अपने को संजय से छुड़ाती हुई चेतना बोली।
स्कूटर स्टार्ट करते हुए संजय चेतना से पूछने लगा, ‘‘कुछ पैसे हैं क्या ?’’
‘‘क्यों क्या हुआ ?’’
‘‘कुछ नहीं। स्कूटर रिजर्व में है। पेट्रोल भरवाना है।’’
‘‘कितना लगेगा ?’’
‘‘बीस रुपए में भी काम चल सकता है और सौ रुपए में भी।’’
‘‘यह लीजिए।’’ उस ने सौ रुपए का नोट पर्स से निकालते हुए कहा।
‘‘हम को नहीं चाहिए। पेट्रोल पंप पर ही दे देना।’’
‘‘वहां देना ठीक नहीं लगेगा। यहीं ले लीजिए।’’
‘‘नहीं। देना हो तो पेट्रोल पंप वाले को ही देना।’’
‘‘आप तो कुछ समझते ही नहीं। क्या बताऊं। अच्छा चलिए।’’ वह स्कूटर पर बैठती हुई बोली।
‘‘रास्ते में वह पीछे से अचानक चिपट गई। उस के चिपटने में कसाव इतना ज्यादा था कि संजय बहकता हुआ बोला, ‘‘कहीं और चलूं क्या ?’’
‘‘नहीं !’’ वह जोर दे कर बोली।
संजय चुपचाप रहा।
दूसरे दिन हाई कोर्ट में उस की तारीख़ थी।
वह हाई कोर्ट की एक अदालत में बैठा था। इस अदालत में बैठे न्याय मूर्ति इलाहाबाद से आए थे। यह न्याय मूर्ति हिंदी में आदेश लिखवाते थे इस लिए संजय इन की खा़स इज्जत करता था। संजय इन दिनों अपने पक्ष में मिले अंतरिम आदेश का अनुपालन न हो पाने पर अवमानना याचिका दायर किए हुए था। आज उसी की सुनवाई थी। वह बैठा-बैठा अपनी बारी जोह रहा था। कि तभी एक दहेज हत्या का मुकदमा आ गया। पति ने अपनी पत्नी को जला कर मार डाला था। पति पक्ष का वकील उस की जमानत मांग रहा था। वह जोरदार पैरवी भी कर रहा था। पर सरकारी वकील जो विरोध में खड़ा था, मिमिया रहा था। शायद इस केस की फाइल भी उस के पास नहीं थी। पति पक्ष के वकील ने बात ही बात में बताया कि वह अपनी पत्नी को ‘‘बचाने’’ की गरज से अस्पताल ले गया। जहां डाक्टर उसे बचा नहीं सके।
‘‘अच्छा तो वह पत्नी को अस्पताल ले गया ?’’
‘‘येस मी लार्ड।’’
‘‘मतलब बचाने की कोशिश की ?’’
‘‘येस मी लार्ड।’’
‘‘वेल देन, बेल !’’ हिंदी में आदेश लिखवाने वाले यह न्याय मूर्ति अंगरेजी में बोले। और पत्नी के हत्यारे पति को जमानत दे दी। अब इन न्याय मूर्ति से भला कौन पूछता कि जब पति ने पत्नी को आग लगाई होगी तब पत्नी बेचारी चिल्लाई होगी। उस का चिल्लाना सुन कर अड़ोसी-पड़ोसी इकट्ठे हुए होंगे। दबाव पड़ा होगा तो उसे मजबूरीवश-भयवश अस्पताल तो ले ही जाना था। पर मुख्य सवाल तो यह था कि उस ने उसे जलाया। पर न्याय मूर्ति को यह तथ्य बेकार लगा और देखते हुए उठा और पच्च से थूकता हुआ चलता बना। घर आ कर वकील से फोन पर पूछा तो पता चला कि संजय के केस में ‘‘नेक्स्ट काज लिस्ट’’ हो गया था। सुनते ही वह बोला, ‘‘अच्छा हुआ इस मूर्ख के यहां मेरा केस टेक-अप नहीं हुआ।’’ फोन रख कर वह प्रेस क्लब चला गया।
आज जी भर कर और छक कर वह पीना चाहता था।
वह जब प्रेस क्लब पहुंचा तो तमाम लोगों के साथ मनोहर और प्रकाश भी पंत के साथ एक कोने में बैठे दिखे। पंत ने संजय को देखते ही, ‘‘आइए भाई साहब’’ की गुहार लगाई। पर उस ने नोट किया कि मनोहर और प्रकाश को पंत द्वारा उसे बुलाना अच्छा नहीं लगा। फिर भी वह तब तक बैठ चुका था। वह तीनों रम का एक अद्धा लिए बैठे थे। संजय मनोहर और प्रकाश की उदासीनता का कारण समझ गया। पर पंत ने जब गिलास मंगवा कर उस के लिए भी पेग बना दिया तो संजय शुरू हो गया। बात मनोहर ने ही शुरू की। पूछा, ‘‘संजय तुम्हारा हाई कोर्ट में क्या हुआ ?’’
‘‘हाई कोर्ट में जो होना था हो चुका। अब तो जो होना है आफिस में ही होना है।’’ संजय बिफरता हुआ बोला।
‘‘ख़ुद जो कर सको करना। हम लोग कुछ बहुत इनीसिएटिव नहीं ले पाएंगे।’’ सिगरेट पीते हुए प्रकाश बोला, ‘‘आखि़र हम लोगों को उसी संस्थान में नौकरी करनी है।’’
‘‘क्यों जब मैं तुम लोगों के लिए लड़ रहा था, तब मुझे नौकरी नहीं करनी थी ? तुम्हारी नौकरी, नौकरी है। और मेरी नौकरी, नौकरी नहीं थी ?’’ कहते हुए संजय ने अपनी रम ख़त्म की और बाथरूम जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। पंत ने टोका, ‘‘भाई साहब कहां जा रहे हैं ? बैठिए तो।’’ संजय चलता हुआ बोला, ‘‘आ रहा हूं बाथरूम से। जा नहीं रहा।’’ और बाथरूम की ओर चला गया।
‘‘पंत तुम भी !’’ मनोहर बुदबुदाया
‘‘क्या हुआ भाई साहब !’’ पंत अचकचाता हुआ बोला।
‘‘अरे किस साले टैंकर को बुला लिया।’’ मनोहर ने जोड़ा, ‘‘यह अद्धा उस अकेले के लिए कम है। तिस पर साले का फ्रस्ट्रेशन ! क्या बताएं, शाम ख़राब हो गई !’’
‘‘हां, भई कहीं और चलें। नहीं संजय तो साला हाई कोर्ट-हाई कोर्ट का रिकार्ड बजा कर सारा मजा बदमजा कर देगा।’’
‘‘किस का मजा बदमजा हो रहा है भई !’’ संजय वापस आ कर कुर्सी खींचता हुआ बोला।
‘‘अरे नहीं भाई साहब आप बैठिए !’’ दूसरा पेग बनाता हुआ पंत बोला।
‘‘मेरे लिए तो अब मत बनाना भई पंत। आज अब पीने का मूड नहीं है।’’ संजय संजीदा होता हुआ बोला, ‘‘वैेसे भी इस अद्धे में चार लोगों का कुछ बने बिगड़ेगा नहीं। और मेरे पास पैसे भी नहीं हैं। स्कूटर में पेट्रोल तक कल एक लड़की से कह कर भरवाया था !’’
‘‘पैसे की बात नहीं है भाई साहब। मेरे पास हैं। अभी एक अद्धा और मंगवाता हूं।’’ कर कर पंत जेब से पैसे निकालने लगा।
‘‘नहीं पंत पैसे मत निकालो मैं नहीं पिऊंगा।’’
‘‘क्यों ? बात क्या हुई ?’’ पंत बोला।
‘‘बात-वात कुछ नहीं। हालां कि सोच कर तो आया था कि आज छक कर और जी भर के पीऊंगा। पर अब नहीं, अब नहीं।’’
‘‘नहीं भाई साहब आप चिंता मत करिए। जितनी चाहिए, पीजिए।’’ पंत फिर बुदबुदाया।
‘‘नहीं, पंत अब चिंता तो करनी पड़ेगी। दोस्त, वह दोस्त जो कल तक साथ जीने मरने का दम भरते हों, और आज टैंकर कहने लग जाएं, फ्रस्ट्रेशन देखने लग जाएं तो चिंता होनी चाहिए। ज्यादा होनी चाहिए।’’
‘‘तुम तो बेवजह फैले जा रहे हो !’’ मनोहर सिगरेट झाड़ते हुए बोला।
‘‘बेवजह नहीं, वजह है।’’ संजय बोला, ‘‘फिर मैं फैल नहीं रहा। वजह है इस लिए नहीं पिऊंगा।’’
‘‘क्या वजह है ?’’ प्रकाश बिदकते हुए बोला।
‘‘बेरोजगारी !’’ संजय हुंकारते हुए बोला, ‘‘आज यह समझ में आ गया कि बेरोजगारी में शराब वगैरह जैसे शौक नहीं पालने चाहिए। सो आज से शराब बंद। बिलकुल बंद। और अभी से।’’
‘‘सिगरेट तो पी सकते हैं ?’’ पंत भावुक होता हुआ बोला।
‘‘हां, सिगरेट तो चल सकती है। पर आज और अभी तो कुछ भी नहीं !’’ कह कर संजय प्रेस क्लब से बाहर निकलने लगा।
‘‘अरे क्या हुआ तुम्हारा हाई कोर्ट में भाई ?’’ माथुर एक कोने से चिल्लाता हुआ चल कर संजय के पास आ गया। पर संजय ने माथुर की बात अनसुनी कर दी। तो माथुर ने फिर पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘कहां क्या हुआ ?’’ संजय बिदक कर बोला।
‘‘हाई कोर्ट में ?’’ माथुर फिर जोर से बोला।
‘‘हाई कोर्ट की मां की चूत !’’ संजय बौखला कर बोला, ‘‘समझे माथुर कि कुछ और डिटेल्स दूं ?’’
‘‘नहीं भइया माफ करो !’’ बुदबुदाता हुआ माथुर उलटे पांव लौटा। कहने लगा, ‘‘चढ़ गई है साले को !’’
‘‘किस को चढ़ गई ?’’ मनोहर ने माथुर से पूछा।
‘‘संजय साले को !’’ माथुर बड़बड़ाया।
‘‘पर उस ने तो बस एक ही पेग लिया था।’’ मनोहर बिगड़ता हुआ बोला।
‘‘तो बेरोजगार आदमी के लिए एक पेग क्या कम है ?’’ माथुर जैसे सारा गुस्सा मनोहर पर ही निकाल देना चाहता था।
‘‘संजय जैसों के लिए तो कम है !’’ प्रकाश दाढ़ी खुजाता हुआ बाथरूम की ओर जाने लगा।
संजय प्रेस क्लब से बाहर निकल कर अपने आफिस की यूनियन के नेता दूबे के यहां चला गया। उस ने नेता से साफ कहा कि, ‘‘मैं धरना देना चाहता हूं, बल्कि अनशन करना चाहता हूं। आफिस के गेट पर । इस काम में आप की और यूनियन की नैतिक मदद चाहता हूं। तख्ता-तंबू मैं अपने खर्च पर करूंगा। बस आप लोग साथ खड़े हो जाइए!’’
‘‘भई यूनियन के एक्जिक्यूटिव मेंबर तो आप भी हैं। सब से बात कीजिए। सब से राय लीजिए। फिर कुछ करिए।’’ यूनियन नेता दूबे बोला।
‘‘लेकिन मैं तो कल से ही अनशन शुरू करना चाहता हूं। और आप रायशुमारी के लिए कह रहे हैं ?’’
‘‘ऐसे कैसे कल से ही अनशन शुरू कर देंगे ?’’ दूबे बोला, ‘‘आप व्यक्तिगत रूप से चाहें तो करिए पर वैसे कल से कुछ नहीं हो पाएगा।’’
‘‘क्यों नहीं जो पाएगा ?’’ संजय बिफरा।
‘‘कुछ कायदे कानून होते हैं। अनशन धरना देने के लिये पूरी कार्यकारिणी की राय लेनी पड़ेगी। फिर नोटिस देनी पड़ेगी मैनेजमेंट को। फिर कुछ हो सकेगा।’’
‘‘तो कार्यकारिणी की बैठक कल बुला कर नोटिस दे दीजिए !’’ संजय बोला।
‘‘कल तो मैं बाहर जा रहा हूं। हफ्ते भर बाद आऊंगा तो देखा जाएगा।’’ दूबे बोला।
‘‘हद है। सारा कायदा कानून कर्मचारी के लिए ही होता है। हाई कोर्ट का एक आर्डर है जिसे मैनेजमेंट नहीं मान रहा। और आप मैनेजमेंट से कुछ नहीं कह पा रहे। उसे कायदा कानून नहीं बता रहे हैं और हमें कायदा कानून समझा रहे हैं। यह तो सरासर अन्याय है।’’
‘‘घबराइए नहीं, धीरज रखिए। अगले हफ्ते कार्यकारिणी की बैठक में सब ठीक हो जाएगा।’’ दूबे बोला, ‘‘मैनेजमेंट से भी वार्ता करेंगे !’’
‘‘ख़ाक वार्ता करेंगे !’’ संजय बिगड़ता हुआ बोला, ‘‘तीन साल से हाई कोर्ट का एक आर्डर लिए घूम रहा हूं। कुछ होता हवाता है नहीं और आप वार्ता ही कर रहे हैं। सिर्फ वार्ता !’’
‘‘अब आप के कहे से वहां हड़ताल तो हो नहीं जाएगी।’’ दूबे बोला, ‘‘अगले हफ्ते कुछ करते हैं।’’
संजय घर चल आया। बिना खाना खाए सो गया।
दूसरे दिन भी वह घर से निकला नहीं। शाम को चेतना के घर चला गया। पर वह थी ही नहीं। वापस आ गया। घर आ कर बेवजह बीवी से झगड़ा किया। खाना खाया, टी॰ वी॰ देखा और सो गया।
अगले हफ्ते यूनियन की कार्यकारिणी बैठक में उपस्थिति बहुत कम थी। और जो सदस्य थे भी वह संजय की मांग के खि़लाफ थे। क्या तो किसी एक आदमी के लिए पूरे आफिस में आग लगाना ठीक नहीं हैं !
‘‘मैं आग लगाने के लिए कह भी नहीं रहा।’’ संजय बोला, ‘‘मैं भी चाहता हूं बात चीत शांतिपूर्ण माहौल में हो।’’
‘‘अनशन धरने से माहौल शांतिपूर्ण तो नहीं रहेगा।’’ एक सदस्य भन्नाता हुआ बोला।
‘‘तो चूड़ियां पहन कर घर में बैठो !’’ दूबे उसे डपटते हुए बोला, ‘‘यूनियन की बैठक में क्या करने आते हो।’’
‘‘साथियों, यह मामला देखने में जरूर सिर्फ मेरा अकेला मामला लगता है। पर सच यही नहीं है। सच यह है कि मैं मैनेजमेंट के लिए एक ट्रायल केस हूं।’’ संजय आगाह करते हुए बोला, ‘‘जिस दिन मैं गिर गया। समझिए सभी गिर जाएंगे। कोई उफ्फ तक नहीं कर पाएगा और मैनेजमेंट जब जिस पर चाहेगा, तलवार चला देगा !’’
‘‘बिलकुल ठीक कहा संजय ने।’’ दूबे बोला, ‘‘आज अनशन की नोटिस मैनेजमेंट को दे दी जाएगी।’’
‘‘लेकिन….?’’ एक सदस्य अभी कुछ कहना ही चाहता था कि दूबे उसे चुप कराते हुए बोला, ‘‘कोई लेकिन-वेकिन नहीं, नोटिस आज ही दी जाएगी। मैं जा रहा हूं टाइप करवाने !’’
अनशन की नोटिस शाम को मैनेजमेंट को दे दी गई।
पूरे आफिस में नोटिस की चरचा थी। हर कोई नोटिस बोर्ड पढ़ता और कहता अब सही कार्यवाई हुई है। पर बोलते सभी दबी जबान थे। खुल कर कोई सामने नहीं आता था। चरचा गरम होती देख मैनेजमेंट ने दूसरे दिन वह नोटिस, नोटिस बोर्ड से उतरवा दिया। तब चरचा और तेज हो गई। लगता कि अब आर या पार कुछ हो कर ही रहेगा।
लेकिन चार दिन बाद ही सारी हवा निकल गई। मैनेजमेंट ने अनशन करने के खि़लाफ मुंसिफ साऊथ के यहां से स्टे ले लिया था।
एक्स पार्टी स्टे। साथ ही संजय की आफिस में एंट्री बैन कर दी गई।
‘‘हद है ! गांधी जी ने अनशन की शांतिपूर्ण राह दिखाई थी। अब अदालतों की राय में यह भी अपराध हो गया !’’ संजय पान वाले से झल्लाया। पर उस की तरफदारी में बोलना तो दूर आफिस का कोई उस के पास खड़ा भी नहीं हुआ। वह गेट पर पान वाले से ही अपनी बड़बड़ कर के वापस चला आया।
दूसरे दिन मुंसिफ साऊथ की कोर्ट जा कर उस ने सरे आम मुंसिफ की ऐसी तैसी कर दी। बस मारा भर नहीं, और गालियां नहीं दी। बाकी सब किया। पर वह मुंसिफ बोला कुछ नहीं। चश्मे के नीचे से टुकुर-टुकुर ताकता रहा। लेकिन संजय जैसे सारा ठीकरा उस मुंसिफ पर ही फोड़ डालना चाहता था। वह बोला, ‘‘कितने पैसे खा लिए ?’’ पर मुंसिफ फिर भी चुप रहा। संजय फिर दहाड़ा, ‘‘आखि़र हाई कोर्ट का एक आर्डर मनवाने के लिए ही हम अनशन करने जा रहे थे और आप को वह भी अनुचित लगा?’’ संजय बोलता ही जा रहा था, ‘‘दिल्ली में एक कैदी ने यूं ही नहीं एक मुंसिफ पर भरी अदालत में लैट्रिन उठा कर फेंक दिया। आप पर भी लैट्रिन फेंकी जानी चाहिए। आप ने भी वैसा ही अन्याय किया है !’’ पर उस मुंसिफ की आत्मा जैसे मर गई थी। वह फिर भी कुछ नहीं बोला।
संजय कोर्ट से बाहर आ गया।
अगले हफ्ते हाई कोर्ट में तारीख़ थी। तारीख़ों की कीलों से अब वह आजिज आ गया था। कई बार तो केस टेकअप ही नहीं हो पाता था। कभी कभार होता भी था तो अपोजिट पार्टी का वकील कोई न कोई बहानेबाजी कर तारीख़ ले लेता था। एक बार बसु नाम का जज इलाहाबाद से आया। उस की सख़्ती के बड़े चरचे थे। लगातार तीन दिन तक उस के यहां संजय का केस टेक अप हुआ। पर अपोजिट पार्टी के वकील का जूनियर हर रोज मिमिया कर खड़ा हो जाता और बताता कि सीनियर फलां कोर्ट में पार्ट हर्ड में हैं। जब कि उस का सीनियर अदालत के बरामदे में ही कुत्ते की तरह सूंघता हुआ टहलता रहता। तीन दिन तक लगातार यही ड्रामा देखते-देखते बसु भन्ना गया। बोला, ‘‘आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ?’’
‘‘जी सर !’’ जूनियर घिघियाया।
‘‘तो ठीक है कल भी नहीं, परसों सवा दस बजे सुबह इस केस को ऐज केस नंबर वन टेक अप करूंगा। अपने सीनियर को ख़ाली रखिएगा।’’ बसु बड़ी सख़्ती से बोला।
‘‘जी सर !’’ कह कर जूनियर चलता बना।
संजय को कई वकीलों ने आ कर

बधाई

दी। कहा कि, ‘‘मिठाई खिलाइए। अब आप का संघर्ष खत्म हुआ।’’ एक वकील बोला, ‘‘अब परसों वह पार्ट हर्ड में नहीं रहेगा बल्कि आ कर कहेगा सर, आर्डर कंपलायंस कर दिया गया है।’’

संजय को लगने लगा कि अब तो किला फतह ! पर जब उस ने अपनी वकील से पूछा तो वह बोली, ‘‘अभी परसों तो आने दीजिए !’’ यह सुन कर संजय का दिल धक से रह गया। वह परसों आने तक धक-धक में ही जीता रहा। तरह-तरह के पूजा पाठ करता रहा।
परसों भी आ गया।
वह आधे घंटे पहले ही हाई कोर्ट पहुंच गया। उस की वकील भी जल्दी आ गई थीं। और अपोजिट पार्टी का वकील भी बड़ा-सा टीका लगाए आ गया।
कोर्ट शुरू हो गई। बसु आ गया था। अपने आदेश के मुताबिक औपचारिक कामों को निपटाने के बाद उस ने संजय का केस ऐज केस नंबर वन टेक अप कर लिया। लेकिन कार्रवाई देख कर संजय सन्न रह गया। अचानक एक ख़ूबसूरत-सी वकील उठीं। उन की काया काफी गठी हुई थी। वह युवा भी थीं और दर्शनीय भी। हाई कोर्ट की वह रौनक कही जातीं थीं। लोग आते-जाते आंखें तृप्त करते थे। उन की बुलबुल जैसी आवाज पर जजेज भी मोहित रहते थे। संजय भी। फिर वह एक नामी वकील की बेटी थीं। जो बतौर कम्युनिस्ट जाने जाते थे। हालां कि उस के पिता के बारे में कुछ वकील कहते थे, ‘‘काहे का कम्युनिस्ट ? अरे वह तो दल्ला है, दल्ला। बेटी पेश कर देता है जीत जाता है मुकदमा। और कि हरदम कामगारों के खिलाफ, पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ा रहता है।’’ बहरहाल उन सुदर्शनीया वकील को खड़े होते देख कर संजय खड़े-खड़े बैठ गया। उस का दिल धकधकाने लगा। वह वकील बड़ी संजीदगी से वकालतनामा न्यायमूर्ति की ओर बढ़ाती हुई, बड़ी-बड़ी छातियों को काले गाऊन के नीचे से फड़काती हुई बोलीं, ‘‘अपोजिट पार्टी नंबर दो की ओर से पावर फाइल कर रही हूं। और केस समझने के लिए कोई अगली तारीख़ दे दी जाए।’’ बसु छूटते ही, ‘‘ग्रांटेड।’’ बोल कर ‘‘नेक्स्ट केस’’। पर आ गया।
संजय के सारे सपने चूर कर दिए थे वकालत के इस नए ड्रामे ने। वह कोर्ट से बाहर निकला तो अपोजिट पार्टी का वह ‘‘सीनियर वकील’’ बड़ा-बड़ा टीका लगाए उसे ऐसे घूरते हुए निकला जैसे सैकड़ों जूते संजय को मार दिए हों।
हुआ भी यही था।
संजय की वकील ने पीछे से आ कर ढाढस बंधाया। बोलीं, ‘‘यह सब तो यहां होता ही रहता है। घबराने की बात नहीं।’’ वह बोलीं, ‘‘अगली तारीख़ पर देखते हैं।’’
संजय अभी जा ही रहा था कि एक वकील आ कर बोला, ‘‘साहब बंगालीवाद चल गया !’’ दूसरा बोला, ‘‘कुछ नहीं ‘‘रात’’ डील हो गई।’’ तीसरा वकील एक कोने में उसे खींचता हुआ बोला, ‘‘कुछ नहीं इन बुड्ढे जजों को चार पांच लाख रुपए चाहिए और एक सोलह साल की लड़की। ब्रीफकेस और लड़की ले कर सामने होटल में बुला लीजिए, इन जजों से जो चाहिए फैसला लिखवा लीजिए !’’
संजय था तो आहत पर उन वकील से खेलता हुआ बोला, ‘‘जरा धीरे बोलिए। नहीं जस्टिस बसु सुन लेंगे तो कंटेंप्ट कर देंगे। और कंटेंप्ट करने वालों के खि़लाफ ये जस्टिस कंटेंप्ट प्रोसिडिंग्स भले न चला पाएं, इन की आत्मा मर जाती हो, पर वकीलों के खि़लाफ प्रोसिडिंग्स चलाने में इन्हें जरा देर नहीं लगती ! इस में माहिर हैं !’’
‘‘हां, ये तो है। पर आएं नोच लें।’’ वह वकील बोला, ‘‘जस्टिस के नाम पर ये सब दिन दहाड़े इनजस्टिस कर रहे हैं तो कोई कब तक चुप रहेगा। ये जस्टिस साले अब एक दिन कोर्टों में ही खींच-खींच कर मारे जाएंगे तब समझ में आएगा।’’
‘‘अच्छा ये बताइए वकील साहब कि आप के घर में नौकर हैं ?’’ संजय ने पूछा।
‘‘हैं। बिलकुल हैं।’’ वकील बोला।
‘‘तो अगर आप उस से पानी मांगें और वह न दे तो ?’’
‘‘उस की मजाल कि न दे ! कचूमर निकाल लूंगा !’’
‘‘अच्छा अगर दस मिनट में दस बार आप पानी मांगें। और वह देने से इंकार कर दे !’’
‘‘दस नहीं, सौ बार मांगूं तो उसे पानी देना पड़ेगा। नहीं जूते लगा कर निकाल बाहर कर दूंगा !’’
‘‘तो इसी लिए न कि आप के आदेश की वह अवज्ञा करेगा !’’ संजय ने छूटते हुए कहा, ‘‘तो इन न्यायमूर्तियों को यह बात कैसे सुहाती है कि उन का आदेश अगला नहीं मानता तो भी वह इस का बुरा नहीं मानते। वह भी एक संवैधानिक आदेश !’’
‘‘यही तो बात है !’’ वह वकील बोला, ‘‘पहले दो चार साल में एकाध कंटेंप्ट केस फाइल होता था। और ‘‘इशू नोटिस’’ होते ही कंपलायंस हो जाता था। और अब ? अब तो तीसियों हजार कंटेंप्ट केसेज बरसों से पेंडिंग हैं। कोई पूछने वाला नहीं। इसी नाते अब हाई कोर्ट के आर्डर को कोई आर्डर नहीं मानता। रद्दी समझ कूड़े में डाल देते हैं लोग।’’
अब तक कुछ और वकील और मुवक्किल इस बहस में शरीक हो गए। मुवक्किल-सा दीखने वाला एक आदमी कुछ किस्सा सुनाने के अंदाज में बोलने लगा। वह कहने लगा, ‘‘आप में से कोई गांव का रहने वाला है ?’’ तो चार पांच लोगों ने ‘‘हां-हां’’ कहा तो वह पूछने लगा, ‘‘ग्राम पंचायत जानते ही होंगे आप लोग !’’ उस ने जोड़ा, ‘‘इसी तरह गांवों में पहले न्याय पंचायतें भी होती थीं।’’ वह बोला, ‘‘आप लोग नौजवान हैं। नहीं जानते होंगे। पर यह न्याय पंचायतें बड़ी ताकतवर होती थीं। कोई गलत काम कर दे तो सरपंच कहिए, पंच परमेश्वर कहिए उस का हुक्का पानी तक बंद कर देते थे। बड़ा दबदबा होता था इन न्याय पंचायतों का। क्यों कि लोगों को इन में पूरा-पूरा यकीन था। यह पंचायतें करती भी थीं दूध का दूध पानी का पानी। पर बाद के दिनों में इन न्याय पंचायतों में घुन लगने लगा। गलत लोग इस में आने लगे। बेईमानी और पक्षपातपूर्ण फैसला करने लगे। सो लोगों का यकीन धीरे-धीरे इन न्याय पंचायतों से उठने लगा। नतीजा सामने है। अब यह न्याय पंचायतें ही गांवों से उठ गईं। कोई इन का नामलेवा नहीं रह गया।’’ वह आदमी दुख में भर कर लेकिन ठसक के साथ बोला, ‘‘आप लोग देखिएगा इन अदालतों का भी यही हश्र होने वाला है।
क्यों कि लोगों का यकीन अब इन अदालतों से उठता जा रहा है। चाहे सुप्रीम कोर्ट हो, हाई कोर्ट या लोवर कोर्ट। सब का एक ही हाल है।’’
‘‘बात तो आप ठीक ही कहे रहे हैं।’’ एक दूसरा आदमी बोला, ‘‘मकान ख़ाली कराने के लिए, किसी जमीन का विवाद निपटाने के लिए या और ऐसे और मामलों पर लोग पहले कोर्ट आते थे। पर अब लोग ऐसे मामले निपटाने के लिए गुंडों की शरण में जाते हैं। और जो मामला ये अदालतें बीसियों सालों तक सिर्फ तारीख़ों में उलझाए रखती हैं न्याय मांगने वाले को अन्याय के दोनाले में ढकेल देती हैं, वही मामला समाज में आपराधिक छविवाला गुंडा एक ही तारीख़ में निपटा देता है। भले पैसा ले कर सही। और फिर क्या अदालतों में पैसा नहीं लगता ?’’ वह बोला, ‘‘अब अदालतों में आने वाले बेवकूफ माने जाते हैं।’’ वह रुका और बोला, ‘‘अच्छा चलो अदालत कोई फैसला बीस-पचीस साल में दे भी देती है तो उसे मानता ही कौन है ?’’
‘‘ये बात तो है !’’ एक वकील बोला। बात बढ़ती क्या फैलती जा रही थी। संजय धीरे से वहां से खिसक गया। पर बहस चालू थी। न्याय मांगने आए, अन्याय की मार झेलने वाले कोई एक दो तो थे नहीं। पूरा का पूरा हुजूम था। अन्याय और तारीख़ों के कंटीले तारों में उलझा हुआ। मरता हुआ। तिल तिल कर। संजय के केस की फिर तारीख़ें लगीं। पर अपोजिट पार्टी के वकील ने ‘‘सरसुरारी’’ और ‘‘मेंडमस’’ का तीर चला कर एक बार कंटेंप्ट की प्रोसिडिंग ही रुकवा दी। कहा कि प्राइवेट बाडी के खि़लाफ ‘‘सरसुरारी रिट’’ लाई नहीं करती सो रिट ही मेनटेनेबिल नहीं है। और न्याय मूर्ति मान भी गए। फिर रिट की मेनटेनेबिलिटी पर तारीख़ों और बहसों का दौर साल भर चला और आखि़रकार रिट एडमिट हो गई। कंटेंप्ट की प्रोसिडिंग फिर से शुरू हो गई। पर अपोजिट पार्टी ने फिर एक बहाना लिया कि उन्हों ने रिट की मेनटेनेबिलिटी के खि़लाफ स्पेशल अपील की है। स्पेशल अपील की सुनवाई तक कंटेंप्ट प्रोसिडंग रोक दी जाए। न्याय मूर्ति फिर मान गए। कंटेप्ट प्रोसिडिंग रोक दी। कोई छः-सात महीने बाद स्पेशल अपील ख़ारिज हो गई और कंटेंप्ट प्रोसिडिंग फिर शुरू हुई तो अपोजिट पार्टी के सीनियर वकील फिर पार्ट हर्ड में ‘‘बिजी’’ रहने लगे।
संजय इस अदालती चूतियापे से हार गया था। तारीख़ दर तारीख़ वह टूटता जा रहा था पर तारीख़ों का सिलसिला नहीं टूटता था। बेरोजगारी अलग तोड़ती जा रही थी। फ्रीलांसिंग वह भी लखनऊ में अब भारी पड़ती जा रही थी। वह अब नौकरी करना चाह रहा था। पर उस की छवि एक मुकदमेबाज की बन चली थी सो जब भी कहीं नौकरी की बात वह चलाता, लोग बड़ी संजीदगी से बात टाल जाते। सो हाई कोर्ट उस की विवशता थी। इस विवशता को ढोने के लिए जैसे वह अभिशप्त हो गया था।
बेतरह !
हार मान कर उस ने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस, मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सब को चिट्ठियां लिखनी शुरू कीं। पर वो कहते हैं, न कि, ‘‘कहीं से कोई सदा न आई।’’ बहुत बाद में छपी छपाई औपचारिक चिट्ठी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की आई कि आवश्यक कार्यवाई के लिए लिख दिया गया है। पर कभी कोई कार्यवाई नहीं हुई। मानवाधिकार आयोग से किसी बड़े बाबू टाइप के व्यक्ति की चिट्ठी आई कि वह इस की रेमेडी हाई कोर्ट में ही ढूंढे। संजय यह चिट्ठी पढ़ कर बिलबिलाया कि हाई कोर्ट में अगर रेमेडी होती तो वह मानवाधिकार आयोग को चिट्ठी ही क्यों लिखता ? उस ने एक चिट्ठी और मानवाधिकार आयोग को लिखी कि अदालत के आदेश के मुताबिक उसे वेतन मिलना चाहिए जो कि उसे नहीं मिल रहा। सो वेतन न मिलना भी मानवाधिकार का हनन है सो आयोग इस मामले में हस्तक्षेप कर उसे वेतन दिलवाए। पर इस चिट्ठी का जवाब भी संजय को नहीं मिला।
संजय ने मुख्यमंत्री के मार्फत भी दबाव डलवाने की सोची। वह मुख्यमंत्री से मिला भी। उन्हों ने आश्वासन भी दिया। कुछ दिनों तक उस ने इसी चक्कर में काटे। वह तो बाद में मुख्यमंत्री के एक सचिव ने संजय की आंखें खोलीं। उस ने बताया कि, ‘‘मुख्यमंत्री जी आप से जान पहचान के नाते साफ नहीं बता पाते। पर स्थिति अब वह नहीं है जो आप समझ रहे हैं। स्थिति उलट गई है। पहले उद्योगपति आते थे तो कहते थे कि मुख्यमंत्री जी से मिलना है। पर अब ? अब मुख्यमंत्री जी ही उद्योगपतियों का दरवाजा जब-तब खटखटाते रहते हैं कि हम मिलना चाहते हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री उस उद्योगपति से क्या कहेंगे ? क्या दबाव डालेंगे ? और वह क्या मानेगा ? आप खुद ही सोच सकते हैं !’’
फिर संजय ने डिप्टी लेबर कमिश्नर के यहां रिकवरी ख़ातिर दौड़ लगानी शुरू की। यहां भी तारीखे़ं लगने लगीं। पर डिप्टी लेबर कमिश्नर ने काफी तेजी दिखाई। क्यों कि एक बार लेबर सेकेट्री ने संजय के कहे पर उसे बुला कर लगभग आदेश ही दिया कि दो तीन लाख रुपए संजय को मिल जाएंगे तो इन का भला हो जाएगा जब कि उस उद्योगपति का इस से कुछ नहीं बिगड़ेगा। तब डिप्टी लेबर कमिश्नर ‘‘यस सर, सर’’ कहता हुआ गया था। और फिर बिलकुल राणा प्रतापाना अंदाज में कार्यवाई शुरू की। संजय को लगने लगा कि उस की हल्दीघाटी अब उसे मिलने ही वाली है। तब उस को जरा भी अंदाजा नहीं था कि जिस राणा प्रताप की बिना पर वह हल्दीघाटी के सपने जोड़ रहा है वह राणा प्रताप नहीं जयचंद है। वह डिप्टी लेबर कमिश्नर पचीस हजार रुपए में ही मैनेजमेंट से पट गया और संजय की रिकवरी अप्लीकेशन रिजेक्ट कर दी।
संजय को इस से बहुत आश्चर्य नहीं हुआ।
धोखा खाना और वह भी मुकदमेबाजी में उस ने सीख लिया था। चेतना ने उसे एक बार फिर कहीं कोई नौकरी कर लेने को कहा। वह कहने लगी, ‘‘अगर अख़बार में नौकरी नहीं मिलती तो कहीं और कोई दूसरी नौकरी कर लीजिए।’’ वह भावुक होती हुई उस के माथे के बाल सहलाती हुई बोली, ‘‘और जो नौकरी नहीं भी करिए तो कम से कम एक काम तो करिए ही….!’’
‘‘क्या ?’’ चेतना की बात बीच में ही काटते हुए संजय ने पूछा।
‘‘यह मुकदमेबाजी छोड़ दीजिए !’’
‘‘ठीक है दो चार तारीख़ें और देख लेते हैं। नहीं कुछ बना तो छोड़ देंगे। बिलकुल छोड़ देंगे।’’
‘‘आप को तो जैसे नशा लग गया है। बिलकुल जुआरियों की तरह। कि हारते जाते हैं और कहते जाते हैं, बस एक बाजी और। और वह बाजी कभी ख़त्म नहीं होती। भले घर बार बिक जाए !’’ कह कर चेतना और भावुक हो गई।
संजय ने चेतना की बात का प्रतिवाद नहीं किया और चुपचाप उस के बाल सहलाने लगा। फिर वह धीरे-धीरे चेतना को बांहों में भर कर उस पर झुकने लगा। उसे चूमने लगा। वह ‘‘नहीं-नहीं, आज नहीं’’ कहती रही और संजय उस के एक-एक कपड़े उतारता रहा। थोड़ी देर बाद दोनों हांफ कर निढाल हो गए। संजय चुपचाप लेटा पड़ा था कि अचानक चेतना उस की देह पर चढ़ आई। संजय ने अचकचाकर पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ कहती हुई वह शरमाई और बोली, ‘‘अब मैं करूंगी।’’ वह हंसती हुई बोली, ‘‘बिलकुल आप की तरह !’’ और वह शुरू हो गई। ऐसे जैसे वह सचमुच ही पुरुष हो, स्त्री नहीं। संजय ने भी अपने को उस के हवाले कर दिया। बिलकुल किसी समर्पिता स्त्री की तरह कि लो भोगो। जितना और जैसे चाहो भोगो। और चेतना भी भोग रही थी उसे बिलकुल किसी ढीठ पुरुष की तरह। कभी छातियों का निप्पल उस के मुंह में डालती, कभी मुख मैथुन पर आ जाती और फिर वह उस पर किसी घुड़सवार की तरह सवार हो कर हांफने लगी। तब तक जब तक वह निढाल नहीं हो गई।
संजय को यह अनुभव भी अच्छा लगा।
जैसे चेतना ने संजय को अभी-अभी भोगा ठीक वैसे ही संजय हाई कोर्ट को भोगना चाहता है। जैसे उस ने चेतना के सामने अपने को समर्पिता स्त्री की तरह हवाले कर दिया, हाई कोर्ट भी अपने को संजय के हवाले कर दे। जिस विकलता और तन्मयता से चेतना ने संजय को भोगा, उसी विकलता और तन्मयता से संजय हाई कोर्ट को भोगे और जैसे चेतना ने देह का सुख पा कर नेह बटोरा वैसे ही संजय न्याय का सुख पा कर संतोष और संतुष्टि बटोर ले !
पर क्या ऐसा सपने में भी संभव है ?
सोचता है संजय चेतना की बगल में लेटे-लेटे जो पसीने में लथपथ पड़ी है निर्वस्त्र। तो क्या न्याय भी निर्वस्त्र हो कर मिलेगा ? ठीक उसी अर्थ में कि ‘‘न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे !’’ संजय यह भी सोचता है। सोचता है कि उस की तारीख़ भी नजदीक आ गई है। और हाई कोर्ट में छुट्टियों का दिन भी।
वह हाई कोर्ट में बैठा है। तीन दिन से लगातार ‘‘अनलिस्टेड’’ में उस का केस लग रहा है पर कभी अपोजिट पार्टी का वकील गायब रहता है तो कभी केस टेक अप नहीं हो पाता। पर आज अपोजिट पार्टी का सीनियर वकील भी भारी-सा टीका लगाए बैठा है और अनिलिस्टेड केसेज भी चल रहे हैं। इलाहाबाद से आया यह जस्टिस शरण भी कड़क है। लगता है आज बात बन जाएगी। संजय सोचता है। पर संजय की वकील नहीं है। वह परेशान है। कि तभी उस का नंबर आ जाता है। वह ख़ुद खड़ा हो जाता है। न्याय मूर्ति पूछते हैं, ‘‘आप के वकील कहां हैं ?’’
‘‘अभी नहीं हैं। पर मैं अपनी बात खुद कहना चाहता हूं।’’ संजय बोला।
‘‘पहले वकालतनामा विदड्रा कीजिए, फिर अपनी बात कीजिए। या अपने वकील को बुलाइए !’’ संजय अभी कुछ और कहता कि उस की वकील दौड़ती हुई आ गईं। उसे हटाया और ‘‘सॉरी’’ कहती हुई बहस शुरू कर दी। अपोजिट पार्टी के सीनियर वकील के पसीने छूट गए। उस का बड़ा सा टीका पसीने में बहने लगा। जस्टिस शरण ने अवमानना करनेवालों के खि़लाफ नान बेलेबिल वारंट के आर्डर कर दिए थे। और वह सीनियर वकील गिड़गिड़ा रहा था कि, ‘‘वारंट की जरूरत नहीं है। वह ख़ुद ही उन्हें अदालत में पेश कर देगा।’’ पर न्यायमूर्ति फिर भी नहीं माने तो सीनियर वकील बेलेबिल वारंट की रिक्वेस्ट पर आ गया। वह जाने क्यों गिड़गिड़ाता जा रहा था। और समय काटता जा रहा था। फिर न्यायमूर्ति पसीजे और उन्हों ने नान बेलेबिल वारंट के आदेश रद्द कर बेलेबिल वारंट कर दिए। पर सीनियर वकील अभी भी गिड़गिड़ा रहा था कि कि सिर्फ तारीख़ दे दी जाए और….अभी कुछ और वह कहता कि वह सुदर्शनीया वकील साहिबा जो बुलबुल की तरह बोलती थीं, अपनी भारी-भारी छातियों और उस से भी भारी नितंबों को फड़काती हुई, हांफती हुई पर मादक मुसकान से सबको मारती हुई आ गईं। उन्हें देखते ही संजय के होश उड़ गए। वह समझ गया कि अब यह फिर कोई ड्रामा करेगी। उस ने किया भी और कहा कि, ‘‘आज के इस अनलिस्टेड केस की उसे सूचना नहीं थी, वह इस केस की फाइल भी नहीं लाई है इस लिए इस मामले की सुनवाई की कोई अगली तारीख़ दे दी जाए !’’
संजय की वकील ने उस बुलबुल-सी बोलने वाली वकील की बात का बेतरह प्रतिवाद किया पर न्यायमूर्ति तो पिघल गए थे, बुलबुल-सी आवाज में बह गए थे और अपने सारे पिछले आदेश रद्द कर अगली तारीख़ दो महीने बाद की दे बैठे। संजय की वकील निराश हो कर बैठ गई। पर संजय भड़क उठा वह जा कर वकील की जगह खड़ा हो गया और न्यायमूर्ति से बहस पर आमादा हो गया। उस ने साफ-साफ कहा कि, या तो हाई कोर्ट का जो आदेश है वह अभी रद्द कर दिया जाए। वह आखि़र यह आदेश कब तक झुनझुने की तरह बजाता हुआ घूमता रहेगा और अपनी जवानी बरबाद करता रहेगा। दूसरे, अगर अदालत उस आदेश को मानती है तो उसे पूरी तरह माने। तीसरे, उस आदेश को अपोजिट पार्टी ने नहीं माना है। साफ है कि आदेश की अवमानना हुई है। क्लीयरकट कंटेंप्ट है। और जो फिर भी अदालत को लगता है कि अपोजिट पार्टी ने कंटेंप्ट नहीं किया है,’’ संजय ने इस बात को चीख़ कर कहा कि, ‘‘मैं इस भरी अदालत में इस अदालत की अवमानना करता हूं।’’ वह और जोर से चीख़ा, ‘‘मैं कंटेंप्ट करता हूं। मुझे जेल भेजा जाए। कम से कम वहां रोटी दाल तो मिलेगी।’’ संजय बोलता जा रहा था और न्यायमूर्ति उसे बराबर टोकते जा रहे थे कि, ‘‘बैठ जाइए !’’ वह बार-बार संजय की वकील से भी कह रहे थे कि वह संजय को कोर्ट से बाहर ले जाएं। कोर्ट में बैठे बाकी वकील संजय की इस हरकत से सकते में आ गए थे। संजय की वकील भी घबरा-घबरा कर बार-बार संजय को पीछे से खींचती और कहती, ‘‘सजंय जी प्लीज बाहर चलिए। चुपचाप बैठ जाइए।’’ पर संजय पर तो जैसे जुनून सवार था, वह लगातार चीख़ रहा था, ‘‘मैं इस कोर्ट का कंटेंप्ट कर रहा हूं, मुझे जेल भेजिए !’’ न्यायमूर्ति ने संजय को फिर से समझाया, ‘‘हर चीज की प्रोसिडिंग होती है।’’
‘‘हद है ! आप दस मिनट के अंदर अपना ही आदेश तीन बार बदलते हैं। इन ड्रामेबाज वकीलों के झांसे में आ जाते हैं और हमें प्रोसिडिंग समझाते हैं ?’’ संजय जैसे पागल हुआ जा रहा था और बार-बार चीख़ने से न्यायमूर्ति भी एक बार तैश में आ गए। संजय से वह भी चीख़ कर बोले, ‘‘मैं कह रहा हूं आप चुपचाप कोर्ट से बाहर जाइए नहीं आप को अभी कस्टडी में ले लिया जाएगा।’’
‘‘मैं तो कह ही रहा हूं कि मुझे जेल भेजिए। मैं कंटेंप्ट कर रहा हूं।’’ संजय फिर चिल्लाया। फिर न्यायमूर्ति का धैर्य जैसे जवाब दे गया। वह संजय के केस में अंततः ‘‘नाट बिफोर’’ का आदेश दे ‘‘कोर्ट इज एडजर्न’’ कह कर तमतमाते हुए उठ कर अपने चैंबर में चले गए।
‘‘नाट बिफोर का क्या मतलब ?’’ एक वकील से संजय ने पूछा।
‘‘मुझे नहीं मालूम।’’ वह वकील खीझ कर बोला। पर उस के बगल में खड़े एक दूसरे वकील ने बताया कि, ‘‘अब यह केस यह कभी नहीं सुनेंगे !’’
‘‘अच्छा !’’ संजय बड़बड़ाया और जरा जोर से, ‘‘ऐसे नपुंसक जजों के सामने मेरा केस न ही जाए तो अच्छा है !’’ कह कर वह कोर्ट से बाहर आ गया। ज्यादातर वकील उसे देख कर कन्नी काट गए। उस सीनियर का एक जूनियर संजय के पास आ कर बोला, ‘‘हमारे सीनियर वकील नहीं, चलती फिरती कोर्ट हैं। समझे !’’ संजय कुछ बोला नहीं और घर चला आया। खाना खा कर सो गया।
शाम हो गई थी जब वह सो कर उठा।
बाथरूम गया पेशाब करने। पेशाब करते समय उसे एक घटना याद आ गई। उस घटना की याद आते ही उसे हंसी आ गई।
कुत्तों से संजय को हरदम परहेज रहा। परहेज क्या वह हद से ज्यादा डरता है कुत्तों से। दिल्ली में जब वह था, उस के फ्लैट के बगल वाले फ्लैट में एक डॉक्टर थे। डॉक्टर के पास एक कुत्ता था। वह कुत्ता जब तब संजय के फ्लैट के सामने आ कर पेशाब-टट्टी कर दिया करता था। संजय ने कई बार डॉक्टर से इस की शिकायत की। पर डॉक्टर को इस की परवाह नहीं हुई।
एक दिन संजय ने ख़ूब पी। धुत्त हो कर घर लौटा। घर आते ही उसे जोर से पेशाब लगी। वह बाथरूम की और बढ़ा। पर अचानक कुछ सोच कर रुक गया। वापस दरवाजा खोल कर बाहर निकला और डॉक्टर के फ्लैट के सामने ख़ूब जी भर कर छर-छर मूत दिया। पेशाब डॉक्टर के घर के अंदर तक गया। उस ने सोचा डॉक्टर उस से शिकायत करेगा। पर डॉक्टर ने कभी शिकायत नहीं की। यह जरूर हुआ कि तब से डॉक्टर के कुत्ते ने संजय के फ्लैट के आगे पेशाब-टट्टी बंद कर दिया। संजय यह सोच कर फिर हंसा और सोचा कि आज वह हाई कोर्ट में मूतेगा।
पर कैसे ?
हां, कैसे ? उस ने सोचा और पाया कि यह सब करने के लिए शराब में धुत्त होना जरूरी है। और शराब वह छोड़ चुका है।
तब ?
तो क्या आज वह इस पुनीत कार्य के लिए शराब पी ले ? उस ने सोचा। फिर तय किया कि वह शराब नहीं पिएगा। सोचा कि यह हाई कोर्ट का अन्याय क्या कम है उसे धुत्त करने के लिए ?
वह उठा।
उठ कर चार पांच लोटा पानी पिया। एक घंटे में वह जितना अधिक से अधिक पानी पी सकता था पी कर हाई-कोर्ट पहुंचा। पहुंच कर चौकीदार को पकड़ा। उसे सौ रुपए का नोट दिया और हाई कोर्ट की उस अदालत का दरवाजा खुलवा कर ऐन उस न्याय मूर्ति की कुर्सी के सामने छर-छर मूतने लगा। मूतना तो वह न्याय मूर्ति की कुर्सी पर चाहता था पर चौकीदार ने ऐसा नहीं करने दिया। अपनी नौकरी का वास्ता दिया। सो वह न्यायमूर्ति की कुर्सी के सामने मूतता रहा । वहां मूत कर वह बड़ा निश्चिंत भाव से बाहर निकला।
गरज यह कि एक नपुंसक व्यवस्था के खि़लाफ एक नपुंसक विरोध दर्ज हो गया था।
तो क्या संजय नुपंसक हो गया था ?
यह सोचते हुए उस ने यह भी सोचा कि नपुंसक व्यवस्था से लड़ते-लड़ते आदमी नपुंसक नहीं तो और क्या बनेगा ? उस ने स्कूटर स्टार्ट की और चल पड़ा। कहीं रेडियो बज रहा था कि टेप संजय जान नहीं पाया पर सुदर्शन फाकिर के लिखे को जगजीत सिंह गा रहे थे, ‘‘रहते थे हम हसीन ख़यालों की भींड़ में/उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में।’’
संजय ने स्कूटर और तेज कर दी !
दूसरे दिन संजय एक सेमिनार में बैठा हुआ है। एक न्यायमूर्ति इस सेमिनार का अध्यक्षीय भाषण कर रहे हैं। मुसलमान हैं और भारतीय संस्कृति की दुहाई बार-बार उच्चार रहे हैं, उसे और समृद्ध करने पर जोर भी मारे जा रहे हैं। सुन-सुन कर संजय अफना रहा है। उस के बगल में बैठी महिला पत्रकार मनीषा पूछती भी है, ‘‘क्या बात है संजय जी? कोई दिक्कत है क्या ?’’
‘‘नहीं, कोई बात नहीं।’’ संजय लापरवाही से बोलता है।
‘‘कुछ तो है !’’ मनीषा पिंड नहीं छोड़ती। सवाल फिर दुहराती है, ‘‘क्या बात है?’’
‘‘बात कुछ नहीं।’’ संजय जोड़ता है, ‘‘यह हत्यारों को जमानत देने वाला संस्कृति की बात कर रहा है, उसे और समृद्ध करने की बात कर रहा है तो बात हजम नहीं हो पा रही !’’
‘‘तो ?’’
‘‘तो क्या ?’’ संजय बिफरा, ‘‘हत्यारों को जमानत देने वालों को संस्कृति पर बोलने का अधिकार नहीं देना चाहिए !’’ वह बोला, ‘‘मुझे तो उबकाई आ रही है !’’ और यह कहता हुआ वह सेमिनार हाल से बाहर निकल आया। उस के पीछे-पीछे वह महिला पत्रकार मनीषा भी आ गई। आयोजकों ने बाहर घेर कर रोका भी कि, ‘‘कुछ खा पी कर जाइए !’’ पर संजय जैसे बदहवास गया था। बोला, ‘‘अरे नहीं उबकाई आ रही है !’’ यह सुनते ही आयोजकों ने घेरेबंदी तोड़ दी और संजय और मनीषा को बाहर निकल जाने दिया।
‘‘आप को जजों से इतनी एलर्जी क्यों है ?’’ बाहर निकल कर मनीषा ने संजय से पूछा।
‘‘जजों से एलर्जी नहीं है।’’ संजय बोला, ‘‘जजों के दोगले चरित्र और दोमुंहेपन से एलर्जी है !’’

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