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आयीं हे सुरुज देव, लीहीं न अरघिया हमार

त्रिलोचन नाथ तिवारी

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पूर्वाञ्चल के नदियों एवं जलाशयों के तट पर श्रद्धा का महापूर उमड़ा है । भारती प्रजा अपने प्रत्यक्ष देव को अपना समस्त अनुग्रहीत भाव समर्पित करने हेतु व्रत-विनत भाव से एकत्र हुई है। मगध के अञ्चलों से निकल कर समस्त भारत के प्रत्येक प्राङ्गण में अपना स्थान बना चुका श्रद्धा का यह आयोजन अपने भर्ता भरत के प्रति अपनी कृतज्ञता अपने भावनाओं का अर्घ्य बना कर निवेदित कर रही है। भारत भारती के जन-जन के मन का अहोभाव नदियों एवं जलाशयों के तट पर मनः सागर की वीचियों सा लहरा रहा है और गा रहा है “आयीं हे सुरुज देव, लीहीं न अरघिया हमार” और भावना, श्रद्धा एवं आन्तरिक नेह के इस अर्घ्य-जल में भींजता भास्कर का ताम्र-विग्रह कुछ और ललछौंहाँ हो कर उन्हीं जलस्रोतों के जल में घुलता जा रहा है जिनके जल से उसकी प्रजा उसे अर्घ्य प्रदान कर रही है।
निरुक्त कहता है – “भरतः आदित्यः तस्य भाः भारती।” और तुलसी बाबा कहते हैं – “विश्व भरण पोषण करि जोई। ता कर नाम भरत अस होई।।” जो इस विश्व का भरण-पोषण करता है उसका नाम भरत है। विश्व के भरण-पोषण का दायित्व आदित्य का है अतः आदित्य ही भरत है तथा उसकी प्रभा, उसकी सन्तानें भारती हैं। ऐतिहासिक कारणों में चाहे जिस कारण हमारे देश का नाम भारत-वर्ष पड़ा हो, दार्शनिक एवं तात्विक कारण मात्र एक ही है – वह प्रजा जो ‘भा’ अर्थात् प्रभा अर्थात् दिव्यता या ज्योति में रत रहे वह भारती है अतः उसके देश का नाम भारत के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। भारत की प्रत्येक प्रजा भारती है – दैवी उत्कर्ष की प्राप्ति में रत सूर्य की सन्तान! यही हमारा वास्तविक जातीय बोध है जिसका बोध हमारी आत्मा तक को है।
एक साधारण धारणा निर्मित हो चुकी है कि सूर्य पूजन मगध क्षेत्र की देन है जिसे आज बिहार के एक भाग के रूप में जाना जाता है। किन्तु वास्तविकता यह है कि हमारे देश में सूर्योपासना प्रलय से भी पूर्व सत्ययुग से, महाराज प्रियव्रत के समय से प्रचलित है जिन्होंने प्रथम बार षष्ठी व्रत का पालन किया था जो आज छठी मैया के व्रत नाम से लोक में ख्यात एवं प्रचलित है। इस सन्दर्भ में अल्प-विवेचना मेरे ‘सुनहु तात यह अकथ कहानी भाग – ३’ में की जा चुकी है अतः चर्वित-चर्वण व्यर्थ है। सूर्य-उपासना की यह परम्परा त्रेता तथा द्वापर तक में अविच्छिन्न रूप से प्रचलित रही जिसका प्रमाण दोनों ही युगों के ख्याति-लब्ध चरित्रों द्वारा की गयी सूर्य-उपासना तथा उसके प्रतिफल में प्राप्त विशिष्ट वर – श्रेष्ठ प्रतिदान की अनगिन गाथायें हैं। राम ने रावणवध से पूर्व सूर्य की उपासना की थी। रावण के साथ युद्ध करते समय श्रान्त राम जब उस घोर योद्धा के पराक्रम से चिन्तित हुए तो महर्षि अगस्त्य ने उन्हें सूर्योपासन विधि बताते हुए कहा था –
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ।।
हे राघव! विपत्ति में, कष्ट में दुर्गम वनों में, या किसी भय के समय जो व्यक्ति सूर्य देव का नाम-कीर्तन करता है उसे कोई दुःख नहीं भोगना पड़ता।
जिस स्तोत्र से राम ने भुवन-भास्कर की अर्चना की थी वह ‘आदित्य-हृदय स्तोत्र’ अब तक सूर्य-कृपा के अभिलाषी जनों की कामना पूर्ति कर रहा है। द्वापर युग में भी दुर्वासा और कुन्ती से लेकर युद्धिष्ठिर, अर्जुन, कृष्ण, सत्राजित, साम्ब, अनगिन लोगों ने सूर्य-उपासना से अपना मनो-वाञ्छित प्राप्त किया और कलियुग में भी सूर्य की उपासना करने तथा लाभान्वित होने वाले अनेक हैं जिनमें सभी के नाम न तो ज्ञात हैं और न ही जितने ज्ञात हैं उन सबका उल्लेख ही संभव है किन्तु फिर भी, बाणभट्ट के श्यालक ‘मयूरभट्ट’ के सम्बन्ध में कौन नहीं जानता जिन्होंने सूर्य-शतक की रचना की और कहते हैं कि अपनी ही भगिनी के शाप-वश कुष्ठ से ग्रसित मयूरभट्ट अपने सूर्य-शतक का छठा श्लोक रच कर पूर्ण करते ही रोग मुक्त हो गये थे। इस सम्बन्ध में ‘मघा’ पर प्रकाशित मेरे आलेख ‘मयूरभट्ट व उसके मयूराष्टक का ललित अनुशीलन’ में कुछ सङ्केत अनुस्यूत हैं। बाणभट्ट तथा मयूरभट्ट का आश्रयदाता नरेश स्वयं हर्षवर्धन तथा उसका पिता प्रभाकरवर्धन सूर्योपासक था यह एक ज्ञात एवं ख्यात तथ्य है।
कालान्तर में भी, मेदपाट (मेवाड़) के शासक भी जो स्वयं को एकलिंग का सेवक मान कर शासन करते रहे हैं वे सभी सूर्योपासक ही थे। ज्योतिर्लिंग रूपी शिव द्वादश भिन्न ज्योतियों में समाविष्ट है यही कारण है कि ज्योतिर्लिंगों की कुल संख्या द्वादश है। और ये ज्योतिर्लिंग रुद्र-लिंग हैं। सूर्य में पचपन रुद्र-प्राणों की समष्टि है। अधियज्ञ में एकादश, अधिभूत में एकादश, अध्यात्म के एकादश, अधिदैवत के एकादश, तथा आन्तरिक्ष्य के एकादश इस प्रकार सूर्य में पचपन रुद्र हैं। विस्तार भय से इस प्रकरण को संक्षेप में ही दिया जा रहा है। ब्राह्मण ग्रंथों में एवं पुराणों में इनका विस्तृत विवरण उपलब्ध है। इन प्रत्येक मुख के एकादश कलाओं से युक्त इन पञ्चाशत रुद्र का जिस एक स्थान पर सन्निपात होता है वही सूर्य एकलिङ्ग है जिसमें विश्व के समस्त पदार्थ समाहित हैं। यह तेजोमय लिंग अति उग्र एवं भैरव-भीषण है। यदि इसके चतुर्दिक जल परिभ्रमण न हो तो यह सर्व-संहारकारी हो सकता है किन्तु जलाभिषिक्त हो यही रुद्र शिव में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार उदयपुर राजस्थान का एकलिंग विग्रह मूलतः शिव-विग्रह नहीं बल्कि सूर्य-विग्रह है जिसके सन्दर्भ में उल्थाकारी अपना हाथ साफ़ करते रहते हैं।
एक और प्रचलित धारणा है जिसे स्थापित करने में वामपंथी इतिहासकारों तथा उनके पादुका-पूजकों की महती भूमिका है कि सूर्य-पूजा इस देश में शकों द्वारा प्रचलित की गयी है। सतयुग से द्वापर तक के उक्त उदाहरण इस मिथ्या-धारणा के खण्डन हेतु पर्याप्त हैं कि सूर्योपासना इस देश में अनादिकाल से प्रचलित है। इतना अवश्य है कि इस देश में एक समय ऐसा भी आया था जब सूर्योपासना ही नहीं ऋत एवं क्रतु के नियामक ब्राह्मणों पर सत्ता का ऐसा प्रहार हुआ था कि एक यज्ञ में उपस्थित साठ हजार अनूचान ब्राहमणों की हत्या कर दी गयी थी तथा बहुतों को निर्वासित भी कर दिया गया था और कुछ स्वयं ही उस अवसाद में यह भूमि छोड़ कर चले गये थे। कालान्तर में जब सत्ता को ब्रह्मदण्ड की शक्ति का आभास हुआ तो उन्होंने अपनी भूल को सुधारा तथा भारत-भूमि से निर्वासित हुए एवं पुनः आमन्त्रित किये गये विद्वानों में शक द्वीप के ब्राह्मणों ने सूर्योपासना की पुनर्प्रतिष्ठा की, किन्तु कुरुवंशी जनमेजय की अपने ही पुरोहित ‘तुर कावशेय’ से शत्रुता ने इस राष्ट्र की जो क्षति की थी न तो उसका कहीं लेखा है और न ही वह क्षति कभी पूरी की जा सकी। व्यक्तिगत विद्वेष राष्ट्र एवं समाज के उन्नयन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं हमारे राष्ट्र का इतिहास इसका भी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है किन्तु यह अवसर उस इतिहास को उद्घाटित करने का नहीं है।
मैंने एकाधिक बार यह निवेदन किया है कि हमारे आराध्य देवों का स्वरुप ऐतिहासिक, पौराणिक एवं तात्विक तीन प्रकार का है। इतिहास की देवी, या शिव, या विष्णु, सूर्य एवं गणेश, पौराणिक आख्यानों में गुम्फित उनकी कथायें एवं अर्चित होने वाला उनका देवता स्वरुप ये भिन्न हैं। कुछ कूट भाषा, कुछ लोक की आस्था, कुछ आख्यान तथा कुछ मानव की कठिन को छोड़ सरल को अपना लेने की प्रवृत्ति इन सब ने मिल कर सब कुछ को आपस में इतना मिश्रित कर दिया है कि सत्य एक कुहेलिका के आवरण में जा छिपा है तथा इसे उद्घाटित करने का प्रयास ‘कपर-फोरउवल’ को आमंत्रण देना है। इतिहास की देवी, या शिव, या विष्णु, सूर्य अथवा गणेश की उपासना उनके राष्ट्र के प्रति अवदान के कारण है और अवश्य है, होनी भी चाहिए, और होगी भी, किन्तु वास्तव में उपासना की मूल धारा उस परम ब्रह्म की उपासना है जिसकी ये पाँच धारायें हैं और इनका वास्तविक स्वरूप मात्र तन्त्र – शास्त्र जानता है। और जो वास्तव में जानते हैं वे यह भी जानते हैं हैं कि शाक्त, शैव, वैष्णव, सौर एवं हेरम्ब तन्त्र प्रारम्भ करने के पाँच भिन्न बिन्दु से निःसृत होने के कारण पाँच धाराओं से हो कर प्रवाहित हैं किन्तु उनकी परिणति एक ही बिन्दु पर होती है और ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ का वास्तविक रहस्य यह है।
आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः।।
गुरवो योगनिष्णाताः प्रकृतिं पञ्चधा गताम्‌।
परीक्ष्य कुर्युः शिष्याणामधिकारविनिर्णयम्‌।।
आकाश तत्व के अधिपति विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरी, वायु तत्व के सूर्य पृथ्वी तत्व के शिव एवं जल तत्व के अधिपति गणेश हैं। योग पारङ्गत गुरु को चाहिये कि वह शिष्य की प्रकृति एवं प्रवृत्ति का परीक्षण करके उसके विशिष्ट तत्वानुरूप उसके उपासना-अधिकार अर्थात् उसके इष्ट का निर्णय करे। क्योंकि
विष्णुश्चिता यस्तु सता शिवः सन्,
स्वतेजसार्कः स्वधिया गणेशः।
देवी स्वशक्त्या कुशलं विधत्ते
कस्मैचिदस्मै प्रणतिः सदास्ताम्।।
जो परमात्मा चित् भाव से विष्णुरूप हो कर, सत् भाव से शिव रूप हो कर, तेज रूप में सूर्य रूप हो कर, बुद्धि रूप में गणेश रूप हो कर तथा शक्ति रूप में देवी रूप हो कर इस जगत् का कल्याण करते हैं, उस एक परब्रह्म को ही नमस्कार है।
सूर्य संपूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं, जगत् की आत्मा हैं और प्राणिमात्र को सत्कर्मोंमें प्रेरित करनेवाले देव हैं। देवमण्डलमें इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, क्योंकि ये जीवमात्र के लिये प्रत्यक्षगोचर हैं। ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करनेवाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं, अतः समस्त प्राणिधारियोंके लिये स्तवनीत हैं, वन्दनीय हैं। वैदिक ऋषि ने सूर्य की अभ्यर्थना सूर्य-सूक्त द्वारा की जो ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में संकलित है। इस ऋग्वेदीय “सूर्य सूक्त” के ऋषि ‘कुत्स आङ्गिरस’, देवता सूर्य और छन्द त्रिष्टुप है।
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥१॥
सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥२॥
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥३॥
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥४॥
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥५॥
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥६॥
[जंगम एवं स्थावर जगत् के आत्मा रूपी सूर्यदेव दैवी शक्तियों के अद्भुत् तेज से समूह रूप में उदित हो गये हैं। मित्र एवं वरुण आदि के चक्षु रूप इन सूर्यदेव के उदित होते ही द्युलोक, पृथ्वीलोक तथा अंतरिक्ष को इन्होने अपने तेज से भर दिया है।
प्रथम दीप्तिमान एवं तेजस्विता युक्त देवी ऊषा के पीछे सूर्यदेव वैसे ही अनुगमन करते हैं जिस प्रकार कोई पुरुष सौन्दर्यमयी नारी का अनुगमन करता है। देवत्व के उच्च लक्ष्य को की प्राप्ति हेतु साधक जब यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म संपादित करते हैं तो उन कल्याणकारी यज्ञीय कर्म को सूरदेव निज प्रकाश से प्रकाशित करते हैं।
सूर्यदेव की अश्वरूपी किरणें कल्याणकारी, जालों को अवशोषित कर के पुनः वृष्टि करने वाली, आश्चर्यकारी, आनन्दकारी एवं निरन्तर गतिशील हैं। वे वंदनीय रश्मियाँ दिव्यलोक के सर्वोच्च विस्तृत भाग पर फैलती हैं तथा यही द्युलोक एवं भूलोक पर भी निरन्तर विस्तार प्राप्त करती हैं।
(यह जो कहा गया) वह सब सूर्यदेव के देवत्व के (और देवत्व का भी) कारण है। जब वे अपनी हरानशील किरणों को आकाश से विलग कर के केंद्र में धारण करते हैं तब रात्रि इस विश्व के ऊपर गहन तमिस्रा का आवरण डाल देती है।
द्युलोक की गोद में स्थित सूर्यदेव मित्र एवं वरुण का वह रूप प्रकट करते हैं जिससे वे मनुष्यों को सभी ओर से देखते हैं तथा इनकी किरणें अनन्त विश्व में एक ओर प्रकाश एवं चेतना भर देती हैं तो दूसरी ओर अन्धकार भर जाता है। (सूर्य, तथा पृथ्वी की गति एवं स्थिति के कारण पृथ्वी के अर्ध गोलार्ध पर प्रकाश एवं अन्य अर्ध गोलार्ध पर अन्धकार का ज्ञान ऋषियों को स्पष्टतया था।)
हे देव! आप सूर्योदय काल से ही हमें आपत्तियों एवं दुष्कर्म रूपी पाप से संरक्षित करें। हमारी इस कामना को मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी तथा दिव्यलोक के समस्त देवता अनुमोदित करें।
ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११५]
इस सूक्त के तात्विक विवेचन का यहाँ अवकाश नहीं है, किन्तु यह सूक्त अल्पशः इतना तो सिद्ध कर ही देता है कि सूर्य-आराधना इस देश में कहीं से आयातित नहीं, बल्कि यहाँ की अपनी आदिकाल से चली आ रही परम्परा है। अथर्ववेद में संकलित सूर्योपनिषद का भी अपना ही महात्म्य है।
संपत्ति, संतति एवं स्वास्थ्य सूर्योपासना के मुख्य लाभ माने जाते हैं। नेत्र-विकार एवं कुष्ठ के निवारण हेतु आदित्य-तन्त्र का कोई स्पर्धी नहीं है। और कुछ भी न हो तो श्रद्धा से एक लोटा जल ढरका देने पर जैसे भोला प्रसन्न हो जाता है वैसे ही मात्र जल के अर्घ्य से सूर्य देव भी प्रसन्न हो जाते हैं।
अर्घ शब्द का अर्थ है मूल्यवान और सम्माननीय भी। महार्घ का अर्थ होता है अधिक मूल्य वाला अर्थात् महँगा। अतः अर्घ्य है वह जो मूल्यवान समझा जा सके। आदित्य तन्त्र के कर्मकाण्ड तथा सूर्य-विज्ञान के प्राचीन रहस्य तो इस भारत-भूमि से कभी के तिरोहित हो चुके हैं किन्तु भक्ति की भावना ने उन प्राचीन पद्धतियों का विरूपित रूप अब तक सँजो रखा है और भक्ति में कर्मकाण्ड एवं तत्सम्बन्धित पदार्थों का उतना महत्व नहीं होता जितना भाव का होता है अतः भाव-पूर्वक एक लोटे जल मात्र का अर्घ्य भी सूर्यदेव को प्रसन्न कर सकता है।
आस्था के लोक-पर्व कार्तिक शुक्ल षष्ठी में न तो कहीं पुरोहित या आचार्य का स्थान है और न ही शास्त्र या संस्कृत का। यह पर्व तो आद्यांत परम्परा से चली आ रही मान्यताओं एवं संस्कृति का पर्व है किन्तु फिर भी जो थोड़ा-बहुत कुछ जानते हैं वे यह अवश्य जानते हैं कि सूर्य को अर्घ्य देने हेतु मन्त्र भी होते हैं। उन्हें यह भी जानना चाहिये कि जो पृथ्वी पर अग्नि है, वही अंतरिक्ष में सूर्य है तथा वही द्युलोक में परब्रहम है अतः अग्नि एवं सूर्य की उपासना में ये ये दोनों संज्ञायें एक दूसरे हेतु व्यवहृत होती हैं। विषय अति विस्तृत है तथा फेसबुक पटल पर इतना भी एक उपरामता के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि वैसे भी यह पटल इस तरह के आलेखों हेतु सुसंगत स्थान नहीं है। यह स्थान तो मात्र अपनी एकांगी धारणाओं का बलात पेषण करने वाले अर्द्ध-पठितों की लीलाभूमि है।
सूर्य अर्घ्य का सर्वाधिक प्रचलित मन्त्र भविष्योत्तर पुराण में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद से लिया गया है। जिस प्रकार महर्षि अगस्त्य ने राम को आदित्य की उपासना की देशना की थी वैसे ही भारत-युद्ध में विजय हेतु कृष्ण ने अर्जुन को आदित्य-उपासना का उपदेश किया था और इसे भी आदित्य-हृदय स्तोत्र के नाम से ही जाना जाता है और उसकी विशिष्टता यह है कि पौराणिक हो कर भी यह स्तोत्र प्रच्छन्न तांत्रिक प्रभाव वाला है। कृष्ण स्वयं ठहरे काली के पुरुषावतार, अतः भविष्योत्तरपुराण का वह प्रकरण अपने मूल में आदित्य-तन्त्र की एक छोटी झांकी उपस्थित करता है जिसमें १७० श्लोकों में सूर्यदेव का आवाहन, विनियोग, न्यास, ध्यान, यंत्रोद्धार, प्रार्थना, अंगन्यास, पूजन-अर्चन, प्रयोग तथा अर्घ्य-विधि दी हुई है। एक अनुज की एक जिज्ञासा के निरसन हेतु विशिष्ट प्रयोजन से इस प्रकरण से मात्र अर्घ्य-विधान यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है कि सम्बन्धी जिज्ञासा का शमन करने में यह समर्थ होगा।
सकेसराणि पद्मानि करवीराणि चार्जुन ।
तिल-तण्डुल युक्तानि कुशगन्धोदकानि च।।
हे अर्जुन! केसर सहित कमल, करवीर (बन्धूक या गुल-दुपहरिया, लाल कनेर भी ग्राह्य) तथा तिल, तण्डुल, कुश का अग्र-भाग, गन्ध द्रव्य सहित जल,
रक्तचन्दनमिश्राणि कृत्वा वै ताम्रभाजने।
धृत्वा शिरसि तत्पात्रं जानुभ्यां धरणीं स्पृशेत्।।
एक ताम्र-पात्र में ले कर उसमें रक्त-चन्दन मिश्रित कर के उसे अपने शीश पर रखे तथा अपने जानुओं को भूमि पर टिका कर,
मन्त्रपूतं गुडाकेशः चार्घ्यं दद्याद्गभस्तये।
सायुधं सरथं चैव सूर्यमावाहयाम्यहम्।।
हे अर्जुन! सायुध, स-रथ उस मन्त्रपूत गुडाकेश गभस्ति सूर्य का आवाहन करके उसे अर्घ्य देना चाहिये। [गुडाकेश उसे कहते हैं जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली हो। अतः गुडाकेश अर्जुन का भी नाम है क्योंकि वह भी निद्रा-जयी था और सूर्य तो कभी सोता ही नहीं अतः उसकी भी संज्ञा गुडाकेश उचित है।]
स्वागतो भव ।
सुप्रतिष्ठितो भव ।
सन्निधौ भव ।
सन्निहितो भव ।
सम्मुखो भव ।
(इति पञ्चमुद्राः। ये पञ्चमुद्राएँ हैं।)
स्फुटयित्वाऽर्चयेत्सूर्यं भुक्ति मुक्तिं लभेन्नरः।।
इनका उच्चारण करके सूर्य की अर्चना करने वाला भुक्ति एवं मुक्ति दोनों प्राप्त करता है।
अब निम्नानुसार उच्चारण करते हुए अर्घ्य देना चाहिये –
ॐ श्रीं विद्या किलिकिलिकटकेष्टसर्वार्थसाधनाय स्वाहा ।
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रूं हंसः सूर्याय नमः स्वाहा ।
ॐ श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रः सूर्यमूर्तये स्वाहा ।
ॐ श्रीं ह्रीं खं खः लोकाय सूर्यमूर्तये स्वाहा ।
ॐ ह्रूं मार्तण्डाय स्वाहा ।
[मन्त्रों का अर्थ देना न उचित है न यह रीति ही है।]
नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानरजातवेदसे।
त्वमेव चार्घ्यं प्रतिगृह्ण देव देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।।
• जातवेद अर्थात अग्नि रूप में जो वैश्वानर है तथा सूर्यरूप में जो सहस्रभान – सहस्र भा – न हजारों किरणों वाला है, ऐसे हे देवाधिदेव तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। तुम मेरे द्वारा अर्पित यह अर्घ्य ग्रहण करो।
नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे।
दत्तमर्घ्यं मया भानो त्वं गृहाण नमोऽस्तु ते।।
• हे भगवन्! तुम्हें नमस्कार है। हे अग्निरूप! तुम्हें नमस्कार है। हे भानु [भा अनु – अर्थात प्रभा या प्रकाश जिसकी अनुवर्ती हो] तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे द्वारा प्रदत्त यह अर्घ्य ग्रहण करो।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां देव गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते।।
• हे सहस्रांशु [सहस्र अंशु – हजारों किरण वाले] सूर्य! तुम तेज-राशि हो, तेज के समूह, और तुम ही इस जगत् के स्वामी हो। तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझपर अनुकम्पा करके यह अर्घ्य ग्रहण करो।
नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे।
ममेदमर्घ्यं गृह्ण त्वं देवदेव नमोऽस्तु ते।।
• हे भगवन्! तुम्हें नमस्कार है। हे अग्निरूप! तुम्हें नमस्कार है। देवों के देव! तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे द्वारा यह अर्घ्य ग्रहण करो।
सर्वदेवाधिदेवाय आधिव्याधिविनाशिने।
इदं गृहाण मे देव सर्वव्याधिर्विनश्यतु।।
• हे समस्त देवों के अधिदेव! तुम समस्त आधियों-व्याधियों (मानसिक एवं शारीरिक पीडाओं) के विनाशक हो। यह अर्घ्य ग्रहण कर के मेरे समस्त व्याधियों का विनाश करो।
नमः सूर्याय शान्ताय सर्वरोगविनाशिने।
ममेप्सितं फलं दत्त्वा प्रसीद परमेश्वर।।
• हे समस्त रोगों के विनाश-पूर्वक शान्ति एवं स्थैर्यप्रदायक सूर्य! तुम्हें नमस्कार है। हे परमेश्वर। प्रसन्न हो कर मुझे मेरा अभीप्सित प्रदान करो।
ॐ नमो भगवते सूर्याय स्वाहा।
ॐ शिवाय स्वाहा।
ॐ सर्वात्मने सूर्याय नमः स्वाहा।
ॐ अक्षय्यतेजसे नमः स्वाहा।
सर्वसङ्कटदारिद्रयं शत्रुं नाशय नाशय।
सर्वलोकेषु विश्वात्मन्सर्वात्मन्सर्वदर्शक।।
• हे विश्वात्मा! हे सर्वात्मा! हे समस्त लोकों में सबकुछ देख लेने वाले! मेरे समस्त संकट, सारा दारिद्र्य तथा सभी शत्रुओं का नाश करो! नाश करो!
नमो भगवते सूर्य कुष्ठरोगान्विखण्डय।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं देहि देव नमोऽस्तु ते।।
• हे भगवान् सूर्य! तुम्हें नमस्कार है। तुम कुष्ठ रोग से विखंडन कर के (अपने भक्त को उससे दूर करके) आयु, आरोग्य तथा ऐश्वर्य दो।
नमो भगवते तुभ्यमादित्याय नमो नमः ।
ॐ अक्षय्यतेजसे नमः।
ॐ सूर्याय नमः।
ॐ विश्वमूर्तये नमः।
आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्यरूपिणम्।
उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च।।
• आदित्य को शिव समझो, शिव को आदित्य-रूप समझो। इन दोनों में कोई अंतर नहीं है आदित्य का रूप शिव का और शिव का रूप आदित्य का है।
ममेदमर्घ्यं प्रतिगृह्ण देव देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।
श्रीसूर्यनारायणाय साङ्गाय सपरिवाराय इदमर्घ्यं समर्पयामि।।
• हे देव! हे देवाधिदेव! तुम्हें नमस्कार है। नमस्कार है। मैं श्री सूर्यनारायण हेतु अङ्ग एवं परिवार सहित यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ।
भारतीय वाङ्गमय की समस्त धारायें एक केन्द्र से उठती और पुनः उसी केंद्र पर लौटती वीचियों का प्रतिरूप हैं जिनका वास्तविक रहस्य वेदों एवं आगम में है। कार्तिक षष्ठी के इस पर्व में अपनी भावना के अनुरूप अपने सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ भी भक्त जुटा पाते हैं, श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सूर्य देव को अर्घ्य रूप में अर्पित करते हैं जिसमें शृंगाटक (सिंघाड़ा) एवं पिण्डालु (सुथनी) से ले कर मातुलुंग (बिजौरा नीम्बू) तक, अपूप (मालपूआ) से ले कर मण्डक (ठेकुआ) तक, नारिकेल से ले कर कूष्माण्ड तक जो भी जुर जाता है, उसे भक्त भा-रत सन्तानें अपने प्रत्यक्ष देव को अर्पित करती हैं। ये समस्त पदार्थ आदित्य-तन्त्र के विशिष्ट उपादान हैं जिनका तांत्रिक उपयोग एवं प्रयोग लोक को विस्मृत हो चुका है किन्तु परम्परा में वे अब तक स्मृतियों में सञ्चित हैं। कार्तिक षष्ठी पूजन पर्व आदित्य तन्त्र के कई विस्मृत कर्मकाण्डों का लोक द्वारा आस्था सहित मनोनुकूल स्वायत्तीकरण के उदाहरण का पर्व है।
गीता में श्री कृष्ण ने कर्म योग एवं भक्ति योग के साथ ज्ञान योग का भी उपदेश किया है। किन्तु मुझ पामर से न कर्म योग सध पाता है, न भक्ति योग और न ही ज्ञान योग। मैं तो उमर खैयाम की उस रूबाई का भोगी पामर हूँ जो किसी घने वृक्ष के नीचे किसी शाद्वल भूमि पर बैठा अपने हाथ में रोटी के दो टुकडे, मदिरा की एक प्याली, कविता की कोई एक पुस्तक और अपनी प्रिया का साथ चाहता है। मैं इसे रस-योग कहता हूँ। किन्तु साथ ही मुझे यह भी प्रतीत होता है कि इस रूबाई का भी अर्थ विद्वानों को ढंग से समझ में नहीं आया। हाथ में जीवनदायी प्राणों का पोषक आहार हो, किन्तु खाने की आवश्यकता नहीं। काल-पक्व मदिरा की प्याली हो, किन्तु पीने की प्यास नहीं बाकी। मैं तो उस प्रमस्तिष्क – मेरु वृक्ष के नीचे बैठना चाहता हूँ जिसकी जड़ें ऊपर और शाखा-पत्र नीचे की ओर कल्पित हैं। अंतस में शाश्वत अनुगूंज की एक कविता है, जिससे मैं उस परमब्रह्म को आकर्षित करना चाहता हूँ। इस निर्जन एकान्त में मेरा नीरव अन्तर आनन्द के उसी स्वर्ग की कामना करता है।
संध्या का सूर्य भावों का अर्घ्य स्वीकार कर के नदियों एवं जलाशयों के जल में घुल गया। प्रातः का सूर्य प्राची से पुनः उदित होगा। भारती प्रजा दउरी और सूप में अपनी क्षमता के अनुरूप महार्घ अर्घ्य तथा अंतर में भावनाओं का अनर्घ्य (अनमोल) अर्घ्य ले कर पुनः नदियों एवं जलाशयों के तट पर एकत्र होने लगी है। किन्तु उस सूर्यदेव को समर्पित करने को मेरे पास कुछ नहीं! न अपूप, न मण्डक, न पिण्डालु, न शृंगाटक, न मातुलुंग, न ही अन्य बहुविध पदार्थ और न ही ताम्बे के लोटे में रक्त-चन्दन मिश्रित जल। मैं उसे क्या अर्घ्य दूं? गुडाकेश के द्वारा रात्रि जागरण तो हो गया और इस जागरण से जुटा यह शब्दार्घ्य। शब्दार्घ्य यह है अवश्य, किन्तु क्या वह भास्कर यह त्रुटियों से पूर्ण शब्दार्घ्य स्वीकार करेगा?
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुरूषो वै दिवाकरः।
उदये ब्राह्मणो रूपं मध्याह्ने तु महेश्वरः।।
अस्तमाने स्वयं विष्णुस्त्रिमूर्तिश्च दिवाकरः।
नमो भगवते तुभ्यं विष्णवे प्रभविष्णवे।।
भारत की समस्त सनातनी प्रजा को तन्त्र के लोकधर्मी संस्करण-स्वरूप आस्था के महापर्व छठ की हार्दिक शुभकामनायें।
श्रीसूर्यनारायणाय साङ्गाय सपरिवाराय इदमर्घ्यं समर्पयामि।
श्री सूर्यनारायण अर्पणमस्तु….

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