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इकोनोमी : चीन बनाम अमेरिका

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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इकोनोमी : चीन बनाम अमेरिका

जब से रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, बैन लगने के बाद रूबल की ऐसी-तैसी होने के बाद, उसको बचाने की मशक्कत के लिए रूबल बनाम गोल्ड योजना लाई गई। भारतीय सोशल मीडिया में लोगों ने बताना शुरू कर दिया कि अब अमेरिकी डालर के दिन लद गए, अमेरिकी डालर कमजोर होगा, बाकायदा इस तरह से तर्क देते हुए लिखते हैं मानो कि अंतर्राष्ट्रीय इकोनोमी के बहुत बड़े विशेषज्ञ व पुरोधा हों, बहुत लोग इन लोगों की हवा-हवाई बातों को आथेंटिक मानकर चलते भी हैं।
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ऐसे ही बहुत लोग यह बताते हैं कि चीन ने अमेरिका को लोन दे रखा है, चीन ने अमेरिका में निवेश कर रखा है। कुछ लोगों को तो यहां तक लगता है कि चीन अमेरिका में सबसे बड़ा निवेश कर्ता है। वगैरह-वगैरह। जब से श्रीलंका की इकोनोमी का भठ्ठा बैठा है, तबसे लोगों ने अधकचरी जानकारी व समझ के आधार पर लोन के ऊपर ज्ञान देना शुरू कर दिया है। इसी प्रक्रिया में बहुत लोगों को (विशेषकर जिन लोगों को चीन को हव्वा मानने का नशा है या चीन के प्रति भक्ति है या रोमांस है) यह लगता है कि यदि चीन अपना लोन खींच ले तो अमेरिका हिल जाएगा, वगैरह-वगैरह।
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इन्हीं सब बातों पर कुछ चर्चा करने के लिए यह लेख लिख रहा हूं, ताकि जिन लोगों को वस्तुस्थिति समझने में रुचि है, या जिन लोगों को वास्तव में थोड़ी भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की समझ है, उनको समझने में मदद मिलेगी।
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लोन पर बात करने से पहले बहुतों की एक गलतफहमी दूर करते हुए बताना चाहता हूं कि अमेरिका द्वारा चीन में निवेश, चीन द्वारा अमेरिका में निवेश की तुलना में अधिक है। कोविड काल में दोनों तरफ से निवेश घटा है, अन्यथा अमेरिका का निवेश कई गुना अधिक रहता रहा है, कोविड काल में भी अमेरिका द्वारा चीन में निवेश, चीन द्वारा अमेरिका में निवेश का लगभग दुगुना रहा है। जापान, कनाडा, नीदरलैंड्स, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में से हर एक देश जितना अमेरिका में निवेश करता है। चीन का अमेरिका में निवेश इनमें से किसी एक देश के भी अमेरिका में निवेश की तुलना में दसवां भी नहीं है।
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अब बात करते हैं चीन के अमेरिका के ऊपर लोन की।
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अमेरिकी सरकार ट्रेजरी बांड इत्यादि के माध्यम से फंड जनरेट करती है, जिसको दुनिया के देश खरीदते हैं। इसे अमेरिकी सरकार पर लोन के रूप में जाना जाता है। अमेरिका को चीन जापान के बाद दूसरे नंबर का सबसे अधिक उधारी दाता है। चीन की अमेरिका में उधारी लगभग एक ट्रिलियन डालर है।
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अमेरिकी सरकार लोन नहीं मांगती है, अमेरिकी सरकार ट्रेजरी बांड इत्यादि इशू करती है, अमेरिका की इकोनोमी इतनी मजबूत है कि देश दौड़ते हुए ट्रेजरी बांड्स खरीदते हैं। चीन अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स खरीदना चाहता है इसलिए खरीदता है। अमेरिका चीन से बांड्स खरीदने का हाथ जोड़कर निवेदन नहीं करता है। चीन की गरज है, इसलिए खरीदता है। चीन अमेरिका के ट्रेजरी बांड क्यों खरीदता है, यदि चीन अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स को बेचे तो इससे अमेरिका की इकोनोमी को नुकसान होगा या चीन की इकोनोमी का भठ्ठा बैठेगा। हम इस लेख पर इन कुछ मूलभूत बिंदुओं पर चर्चा करेंगे।
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चीन की इकोनोमी निर्यात पर निर्भर है। चीन द्वारा दुनिया भर को किए जाने वाले कुल निर्यात का लगभग 20% अमेरिका को जाता है। अमेरिका भी चीन को निर्यात करता है। चीन अमेरिका से लाभ तभी कमा पाएगा जब चीन का अमेरिका को निर्यात, अमेरिका से चीन को निर्यात से अधिक हो। चीन अमेरिका को यह बढ़ा हुआ निर्यात तभी कर पाएगा जब चीन दूसरे देशों की तुलना में अमेरकी उपभोक्ताओं को अपने सामान को सस्ते में उपलब्ध कराएगा, ऐसा चीन तभी कर पाएगा जब चीन की मुद्रा अमेरिका की मुद्रा की तुलना में कमजोर होगी और चीन के अंदर उत्पादन लागत कम होगी, मतलब चीन अपने यहां मजदूरों को भुगतान कम रखे।
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इस प्रक्रिया में चीन को प्राप्त हुए सरप्लस अमेरिकी डालर से अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स खरीदता है। चीन अमेरिकी डालर को अपने पास जमा रखने की बजाय निवेश करना चाहता है। क्योंकि अमेरिकी इकोनोमी दुनिया की सबसे मजबूत, सुरक्षित व स्थिर इकोनोमी है, इसलिए जब निवेश की बात आती है तो सबसे सुरक्षित, मजबूत व स्थिर अमेरिकी ट्रेजरी में निवेश करने के लिए चीन अमेरिका के ट्रेजरी बांड्स खरीदता है। जिसे चलताऊं भाषा में लोन कहा जा सकता है।
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एक मूल कारण और भी है। चीन जब ट्रेजरी बांड्स खरीदता है तो इससे अमेरिका के अंदर धन पहुंचता है जिसके कारण अमेरिकी लोगों की क्रय शक्ति बढ़ती है। चीन का सामान सस्ता होने के कारण लोग चीन का सामान खरीदने की ओर आकर्षित होते हैं, चीन का निर्यात निरंतर बना रहता है। इससे चीन व अमेरिका दोनों को लाभ होता है। निर्यात होते रहने से चीन के अंदर रोजगार पैदा होता है, अमेरिका के लोगों को सस्ते में माल उपलब्ध होता है।
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अब बात आती है कि यदि चीन अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स बेच दे तो इसका अमेरिकी व चीन की इकोनोमी में क्या फर्क पड़ेगा। सीधी बात यह है कि इससे चीन की इकोनोमी बुरी तरह से हिल जाएगी, अमेरिकी की सेहत में खास फर्क नहीं पड़ना है।
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यदि चीन अमेरिकी बांड्स बेचता है, तो कोई दूसरा देश या कई देश खरीद लेंगे, दूसरा या दूसरे देश नहीं भी खरीदेंगे तो भी अमेरिका अपने यहां अतिरिक्त डालर छापकर चीन को दे देगा। यदि अमेरिका डालर छापता है तो डालर का कुछ अवमूल्यन होगा जिसके कारण चीन की मुद्रा तुलनात्मक रूप से अपने आप मजबूत हो जाएगी। ऐसी स्थिति में चीन की वस्तुओं की कीमत बढ़ जाएगी, बढ़ी हुई कीमतों के कारण चीन की वस्तुओं की मांग अमेरिका में तो व्यापक रूप से घटेगी ही, दुनिया के कुछ दूसरे देशों में भी चीनी वस्तुओं की मांग पर असर पड़ेगा। चीन की इकोनोमी निर्यात पर निर्भर है, जब निर्यात ही नहीं होगा तो चीन की इकोनोमी का भठ्ठा बैठ जाना है। इसलिए चीन चाहकर भी अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स बेचकर अमेरिका की इकोनोमी को हिला नहीं सकता है, उल्टे चीन की अपनी इकोनोमी हिल जाएगी। चीन अपने हित के लिए अमेरिकी ट्रेजरी बांड्स खरीदता है, न कि अमेरिका चीन के सामने धन के लिए गिड़गिड़ाता है। इसे तकनीकी रूप से भले ही लोन का नाम दिया लेकिन इसका चरित्र लोन की तरह न होकर, इकोनोमी को मजबूत करने का रणनीतिक तत्व है।
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मैंने कठिन विषयवस्तु को सरल तरीके व संक्षेप से बताने की चेष्टा की है। बहुत मुश्किल था, फिर भी आशा है कि प्रयास से कुछ बिंदुओं के संदर्भ में समझ बढ़ाने में कुछ मदद तो हुई ही होगी।
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दरअसल ऑब्जेक्टिव विश्लेषण हमारी आपकी पसंद नापसंद, हमारे आपके पूर्वाग्रहों, कुछ भी साबित करने के लिए तर्कों की तुकबंदी इत्यादि के आधार पर नहीं किए जा सकते हैं, संभव ही नहीं होता है। अमेरिका के प्रति खुन्नस नापसंदगी तथा चीन के प्रति रोमांस व भक्ति इत्यादि के आधार पर कुछ का कुछ कहने सोचने से वास्तविक वस्तुस्थिति वही की वही रहती है। वस्तुस्थिति को समझने के लिए ऑब्जेक्टिव मानसिकता का होना पड़ता है। ऑब्जेक्टिव अध्ययन करना पड़ता है।

 

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