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एक जीनियस की विवादस्पद मौत

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विष्णु प्रताप सिंह जीनियस तो थे ही स्मार्ट भी बहुत थे और प्राइवेट सेक्टर की नौकरी में होने के बावजूद खुद्दार भी ख़ूब थे। यह उनकी खुद्दारी ही थी जो उनकी ओर सब को बरबस खींचती थी। उनके प्रतिद्वंद्वी और विरोधी भी उनकी इस खुद्दारी की ख़ास इज्जत करते। इनके बारे में और तमाम बातें लोग करते पर उनकी खुद्दारी की बात आती तो लोगों की चर्चा में जैसे विराम आ जाता। पर अब जब वह मरे थे तो जितने मुंह उतनी बातें थीं। क्यों कि वह स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे और अपने शहर में नहीं मरे थे। हालांकि यह लखनऊ शहर भी उनका अपना शहर नहीं था। पर चूंकि कोई तीन दशक वह इस शहर में गुजार चुके थे, लगभग बस गए थे तो अब यह उनका अपना शहर ही था।
लखनऊ वह जब पढ़ने आए झांसी के किसी गांव से तो नहीं जानते थे कि यहीं बस जाएंगे। इंग्लिश लिट्रेचर से एम. ए. करने के लिए जब वह दाखिल हुए लखनऊ यूनिवर्सिटी में तो यह दाखिला ही उनके लखनऊ रहने का सबब बन गया। एक क्लासफेलो से उनकी आंखें लड़ीं तो उन्होंने फेरी भी नहीं। एम. ए. फाइनल करते न करते उन्होंने उस क्लासफेलो से कोर्ट मैरिज कर ली। लड़की के घरवालों की ओर से ऐतराज बड़ा हलका सा था लेकिन बाबू विष्णु प्रताप सिंह के घर से ऐतराज पहाड़-सा था। क्योंकि लड़की पिछड़ी जाति की थी और वह चौबीस कैरेट के क्षत्रिय। लेकिन विष्णु बाबू इस पहाड़-से ऐतराज से भी टकरा गए। सो घर वालों ने इनसे और इन्होंने घर वालों से नाता तोड़ लिया।
फिर तो बस गए लखनऊ में। भूल गए झांसी वांसी। मर गए लेकिन नहीं गए झांसी। पुरखों की जमीन जायदाद की भी कभी नहीं सोची उन्होंने। लखनऊ में ही उन्होंने तब की एक बड़ी कंपनी में बतौर अप्रेंटिस रोजी रोटी शुरू की।
पत्नी एक नर्सरी स्कूल में टीचर हो गईं। नौकरी में दोनों के उतार चढ़ाव आते जाते रहे। गोया समुद्र में ज्वार भाटा। लेकिन विष्णु बाबू ने कंपनी नहीं छोड़ी। अप्रेंटिस से शुरू हो कर पचास वर्ष से कम की उम्र में ही वह उसी कंपनी में अब जनरल मैनेजर हो चले थे। जब कि पत्नी एक इंटर कालेज में लेक्चरर। इस बीच तीन बच्चे भी हुए। एक बेटा पोलियो की चपेट में आ गया। वह बेटे को ले कर गए लिंब सेंटर, एक एक्सपर्ट डाक्टर को दिखाने। डाक्टर ने चेक अप के दौरान कुछ बताने में कोई फैक्चुअल गलती कर दी तो विष्णु बाबू उस एक्सपर्ट डाक्टर पर डपट पड़े। डाक्टर ने उल्टा उन्हें डपटते हुए पूछा कि, ‘डाक्टर मैं हूं कि आप ?’
‘डाक्टर आप ही हैं पर मेडिकल साइंस आप ठीक से नहीं जानते। लेकिन मैं जानता हूं।’ कह कर उन्होंने बेटे को वहां से उठाया और चलने लगे। साथ गए दो दोस्तों और पत्नी ने टोका भी कि, ‘बड़ा डाक्टर है !’ और जोड़ा भी कि, ‘बेटे की जिंदगी का सवाल है !’ पर विष्णु बाबू माने नहीं। बोले, ‘बेटे की जिंदगी का चाहे जो हो पर इस मूर्ख डाक्टर को जो मेडिकल साइंस ठीक से नहीं जानता उसके हाथों मैं अपने बेटे की जिंदगी हरगिज हवाले नहीं कर सकता।’
‘बड़े बदतमीज आदमी हैं आप !’ डाक्टर बोला, ‘आख़िर किस बेस पर आप बोल रहे हैं कि मैं मेडिकल साइंस नहीं जानता।’
‘बेस यह रहे !’ कह कर विष्णु बाबू ने अपना ब्रीफकेस खोल कर पोलियो से जुड़े तमाम देशी विदेशी लिट्रेचर डाक्टर की मेज पर पटक दिए ! बोले, ‘मेडिकल कालेज में तो आप ठीक से नहीं पढ़े। अब से पढ़ लीजिए। फिर पेशेंट्स देखिए !’
डाक्टर हकबक रह गया।
विष्णु बाबू बेटे को ले कर घर आ गए।
दरअसल विष्णु बाबू भले प्राइवेट कपंनी की नौकरी में थे पर चीजों के बारे में जानने की उनकी ललक उन्हें आल राउंडर बनाए रहती। सांइस, मेडिकल साइंस, हिस्ट्री, ज्यागर्फी, पॉलिटिक्स, स्पोर्ट, कामर्स से लगायत फिजिक्स, लिट्रेचर यहां तक कि ज्योतिष और खगोल शास्त्र तक के विषयों पर वह हमेशा अपडेट रहते। टाइम, न्यूजवीक, आब्जर्वर जैसी पत्रिकाओं, अख़बारों को वह नियमित मंगाते और पढ़ते थे। जानकारी का जज्बा इतना कि फुटपाथी दुकानों तक से वह काम की किताबें छांट कर सस्ते दामों में ले आते। इतवार को नक्खास बाजार में लगने वाली कबाड़ मार्केट तक से वह तमाम किताबें छान लाते। सो किसी भी विषय पर पूरे कमांड के साथ वह बतियाते।
क्षत्रिय वह भले थे पर मांसाहार और शराब छूते तक न थे। हां, मिठाई उनकी कमजोरी थी। वह कहते भी कि, ‘इस मामले में मैं ब्राह्मण हूं।’ वह जोड़ते, ‘ब्राह्मणम् मधुरम् प्रियम् !’ वह खुद भी खूब मिठाई खाते और यार दोस्तों को भी खिलाते। वह हमेशा सूटेड बूटेड रहते पर टाई नहीं लगाते। टाई की जगह स्कार्फ बांधते। वह जब कभी मूड में होते तो स्कार्फ ढीली टाइट करते, किसी दोस्त को पटाते हुए कहते, ‘आओ चलो, तुम्हें मिठाई खिलाते हैं!’
विष्णु प्रताप सिंह की जिंदगी ऐसे ही मिठास क्षणों को जीते-भोगते गुजर रही थी।
कि अचानक उनकी जिंदगी में एक नमकीन क्षण आ गया। उनकी एक नई पर्सनल असिस्टेंट आ गई। थी तो वह पचीस-तीस के बीच की और नाम के आगे कुमारी लिखती थी। पर जल्दी ही अफवाह उड़ी कि वह डाइवोर्सी है। इस अफवाह में एक पुछल्ला यह भी जुड़ा कि उसके दो बच्चे भी हैं। जो भी हो यह बात अफवाह थी या सच इसकी सत्यता न किसी ने जांची, न आगे जांचने की जरूरत समझी। अफवाहबाजों को तो इसके तथ्य और सत्य को जानने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। वह तो उसके चाहने वालों की क्यू में लग गए थे। क्या बुड्ढे क्या जवान ! सभी क्यू में थे।
उस की मदद, उस की रक्षा में हाजिर !
उस लड़की का नाम बिंदू बंसल था और वह तमाम सहयोगियों की ‘मदद’ और ‘रक्षा’ वाली लालसा की लपटों से परेशान थी। पर इस लालसा लपट की सूची में अभी तक उसके बॉस विष्णु प्रताप सिंह नहीं समाए थे। बिंदू ने लालसा लपट उम्मीदवारों से सुरक्षा ख़ातिर एक ख़ामोश गुहार विष्णु प्रताप सिंह से की। पर उन्होंने इस ओर तब कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया। बिंदू की ख़ामोश गुहार को रुटीन के जंगल में छोड़ दिया। लेकिन रुटीन के इस जंगल में कुत्ते, भेड़िए बहुत थे सो उसने एक दिन शेर से स्पष्ट रूप से सुरक्षा की गुहार लगा दी। विष्णु प्रताप सिंह हालां कि पचास की उम्र पार कर गए थे पर एक बार प्रेम विवाह के भंवर में लिपटने के बाद अन्य औरतों में उनकी दिलचस्पी लगभग नहीं रह गई थी। उनकी सारी दिलचस्पी मिठाई में थी। पर अब बिंदू नाम की एक औरत उनसे सुरक्षा की भीख मांग रही थी। और वह जाने क्यों अब चाह कर भी उसे रुटीन के जंगल में छोड़ना नहीं चाहते थे। सो वह रुटीन के जंगल में शिकार तलाशते कुत्ते, भेड़ियों से बिंदू को बचाने के लिए बिलकुल जंगल के राजा शेर की ही तरह सामने आ गए। कुछ चीते, तेंदुए टाइप के लोग अफनाए भी पर सिर्फ अफना कर रह गए।
सामने शेर जो था। जंगल का राजा।
बिंदू बंसल अब बिंदू जी कहलाने लगी थीं। किसी कि हिम्मत ही नहीं पड़ती आंख उठा कर उन्हें देखने की। पीठ पीछे चाहे जो टिप्पणी चलाएं लोग लेकिन बिंदू जी के सामने चीते, तेंदुए, कुत्ते, भेड़िए आदि सभी की नजरें नत रहतीं। क्या सीनियर, क्या जूनियर सभी की।
बिंदू जी आख़िर विष्णु प्रताप सिंह की रक्षा-सुरक्षा में थीं और वह कंपनी के जनरल मैनेजर थे। जंगल के राजा।
कुत्तों, भेड़ियों ने तो नहीं पर चीता, तेंदुआ टाइप लोगों ने इस रक्षा-सुरक्षा का रंग पूरा मसाला मिला कर पहले कंपनी के एम. डी. और फिर चेयरमैन तक पहुंचाया। पर चेयरमैन और एम. डी. ने अपने खुद्दार जनरल मैनेजर के खि़लाफ ऐसी खुसफुस टाइप की शिकायत को सुना ही नहीं। कहा कि, ‘कंपनी के काम में जो कोई लापरवाही वह कर रहे हों तो बताएं।’ और बात यहीं ख़त्म हो गई।
पर विष्णु-बिंदू की बात ख़त्म नहीं हुई। सुलगती रही।
बिंदू जी तो नहीं पर विष्णु जी अब जब तब बिंदू जी के घर भी जाने लगे। बात आगे और बढ़ी। अब वह गले की स्कार्फ ढीली-टाइट करते बिंदू जी को मिठाई भी खिलाने लगे। तेंदुआ, चीता टाइप लोगों ने बिंदू मिठाई में नमक मिला कर विष्णु प्रताप सिंह की पत्नी को परोसा। पर उन्होंने इस नमक को इस ख़ामोशी से सुना कि जैसे कुछ सुना ही नहीं और जब सुना ही नहीं तो कोई जवाब या प्रतिक्रिया भी नहीं आई। उन्होंने तो विष्णु प्रताप सिंह तक से इस नमक का जिक्र नहीं किया। पर इधर तो नमक अब ब्लड प्रेशर की हदें लांघते हुए बढ़ रहा था।
अब दफ्तर में विष्णु प्रताप सिंह का नया नाम चल गया था शुगर और बिंदू बंसल का नाम ब्लड प्रेशर ! पर पीठ पीछे और खुसफुस अंदाज में । अब जहां शुगर और ब्लड प्रेशर दोनों एक साथ हों वहां सेहत पर कुछ न कुछ असर तो पड़ेगा ही। पड़ा भी, बात एम. डी. तक फिर पहुंचाई गई। जनरल मैनेजर विष्णु प्रताप सिंह के पास फोन आया एम. डी. का। विष्णु प्रताप सिंह ने उलटे एम. डी. को डपट लिया, ‘आप की हिम्मत कैसे हुई मुझ से ऐसी रबिश टाक की !’ कह कर उन्होंने फोन पटक दिया। बिंदू जी को बुलाया। इस्तीफा बोल कर लिखवाया। कहा कि ‘तुरंत टाइप करके ले आओ !’
‘लेकिन विष्णु जी अचानक ? आख़िर….।’ बिंदू बंसल की जबान फंस-फंस जा रही थी।
‘कहा कि तुरंत टाइप कर ले आओ।’ विष्णु प्रताप सिंह बिंदू बंसल पर गरजे।
‘मैं कहती हूं एक बार पुनर्विचार कर लीजिए !’ बिंदू बंसल बोलीं, ‘मेरी बात मान लीजिए !’ वह रुआंसी हो गईं।
‘सब विचार कर लिया है।’ वह बोले, ‘तुम टाइप कर रही हो कि मैं हाथ से लिख लूं ?’ विष्णु प्रताप सिंह अब की डपट कर नहीं, बड़े सर्द आवाज में बोले। बिंदू बंसल समझ गईं कि मामला संगीन है। सो ‘अभी टाइप कर लाती हूं सर !’
उसी तरह सर्द आवाज में बोलती हुई बिंदू बंसल चैम्बर से बाहर निकल गईं। उनकी शोख़ चाल भी इस क्षण सर्द चाल में बदल गई थी।
बिंदू बंसल को विष्णु प्रताप सिंह का इस्तीफा टाइप करने में ज्यादा समय नहीं लगा। कंप्यूटर पर हालांकि उनकी उंगलियों की दस्तक बड़ी ठंडी थी पर दफ्तर में यह ख़बर गरम थी कि विष्णु प्रताप सिंह की एम. डी. ने खाल खींच ली है।
इस्तीफा पर दस्तख़त कर चपरासी से एम॰ डी॰ के पास भेज कर विष्णु प्रताप सिंह अपनी व्यक्तिगत चीजें बटोरने लगे। किताबें ज्यादा थीं।
बिंदू बंसल भी उनकी मदद में थीं। अभी वह यह सब सहेज ही रहे थे कि फोन फिर बजा। विष्णु प्रताप सिंह ने खुद उठाया। उधर से एम. डी. थे, ‘यह इस्तीफा क्यों भेज दिया ?’ उन्होंने बात को टालते हुए कहा, ‘अरे, मैंने तो सिर्फ मजाक किया था आप से ! भूल जाइए उस बात को।’
‘मेरा आप का मजाक का रिश्ता रहा है कभी ?’ विष्णु प्रताप सिंह बोले, ‘अभी आप की उम्र हमसे मजाक की नहीं है। आप के पिता और इस कंपनी के चेयरमैन तक ने कभी मुझ से कोई हलकी बात नहीं की और फिर मैंने कंपनी को कहां से कहां पहुंचाया है, इसका भी लिहाज नहीं आया आप को ?’ विष्णु प्रताप सिंह बहुत ठंडे ढंग से बोले, ‘मेरा इस्तीफा मंजूर करने का अगर आप में दम नहीं है तो इसे अपने पिता के पास दिल्ली भिजवा दीजिए।’
‘लेकिन सुनिए तो !’
‘कुछ नहीं, मैंने इस्तीफा दे दिया है और थोड़ी देर में घर जा रहा हूं।’ कह कर विष्णु प्रताप सिंह ने फोन रख दिया।
थोड़ी देर बाद वह जब अपनी कुछ व्यक्तिगत चीजों और किताबों से लदे-फंदे दफ्तर से बाहर निकले तो कैम्पस के गेट पर दरबान ने उन्हें रोक लिया। विष्णु प्रताप सिंह ने दरबान से डपट कर पूछा, ‘क्या बात है ?’
‘साहब, तलाशी लेनी है !’ दरबान जरा बेरुखी से बोला।
‘मेरी तलाशी !’ विष्णु प्रताप सिंह सकपकाए। बोले, ‘लेकिन यह सब मेरी व्यक्तिगत चीजें हैं।’ कार का फाटक खोलते हुए उन्होंने दरबान से आतुर हो कर कहा, ‘तुम खुद देख लो। कंपनी की कोई भी चीज नहीं है।’
‘पर साहब आप कुछ नहीं ले जा सकते।’ दरबान बोला, ‘एम. डी. साहब ऐसा ही बोला है।’
‘रुको मैं खुद एम. डी. से बात करता हूं।’ कार से उतर कर वाचमैन हट में रखे इंटरकाम फोन की ओर विष्णु प्रताप सिंह बढ़े।
‘लेकिन एम. डी. साहब दफ्तर में नहीं हैं।’ दरबान उनको फोन करने से रोकते हुए बोला।
‘पर अभी तो थे। मेरी बात भी हुई है।’ विष्णु प्रताप सिंह आहत होते हुए बोले।
‘हां, थे तो पर अभी-अभी पांच मिनट पहले निकल गए।’ कह कर दरबान दो दूसरे आदमियों से कह कर कार के भीतर से किताबें वगैरह निकलवाने लगा। एक क्लर्क आगे बढ़ कर सामानों की लिस्ट बनाने लगा। दफ्तर के और भी लोग गेट पर इकट्ठे होने लगे। विष्णु प्रताप सिंह के अपमान की इंतिहा थी यह। बाकी सामान उन्होंने खुद कार से निकाल कर बाहर फेंका और कार स्टार्ट कर चलने लगे तो दरबान ने उन्हें फिर रोका। तो विष्णु प्रताप सिंह उसे गुरेरते हुए लेकिन सर्द आवाज में बोले, ‘अब क्या है ? सब तो खुद ही निकाल दिया।’
‘हां, लेकिन पीछे डिग्गी भी देखना है !’ दरबान पूरी बेरुखी से बोला।
‘ओफ्फ ! इतना ह्यूमिलिएशन !’ वह बुदबुदाते हुए कार बंद कर बाहर निकले। डिग्गी खोली। बोले, ‘ठीक से देख लो। कहो तो इंजन भी खोल दूं।’
‘नहीं साहब, इंजन मत खोलिए।’ डिग्गी में रखी स्टेपनी हिला डुला कर देखते हुए दरबान बुदबुदाया, ‘साहब गुस्सा मत होइए। गरीब आदमी हूं, नौकरी कर रहा हूं।’
‘ठीक है, ठीक है।’ खीझते हुए विष्णु जी ने कार स्टार्ट की। पर गेट पर आ बटुरे दफ्तर का एक भी आदमी उनकी सहानुभूति में आगे नहीं आया। बिंदू बंसल भी नहीं। वह तो अपने क्यूबिकल से ही बाहर नहीं आईं।
पर गेट पर विष्णु जी के साथ क्या-क्या घटा उसका पूरा ब्यौरा बारी-बारी कई लोगों ने लगभग तंज करते हुए उन्हें सुनाया। पर बिंदू बंसल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
लोगों ने कयास लगाया कि बिंदू बंसल भी कल से आफिस नहीं आएंगी। लेकिन वह दूसरे दिन क्या चौथे, पांचवें दिन भी आईं। बावजूद इस रुटीन के जंगल में चीतों, तेंदुओं, कुत्ते, भेड़ियों की बढ़ आई गश्त के। इनकी गश्त बढ़ गई थी और उन का शेर इस्तीफा दे गया था।
बिंदू बंसल परेशान थीं। बेहद परेशान। पर परेशानी की लकीरें चेहरे पर वह नहीं आने देती थीं।
एक पुराना एडिशनल जनरल मैनेजर अब कंपनी का नया जनरल मैनेजर बना दिया गया था। बिंदू बंसल अब इस नए जनरल मैनेजर की मातहत थीं। नया जनरल मैनेजर यानी इस रुटीन के जंगल का नया राजा। पर बिंदू बंसल ने न सिर्फ उसे अपना शेर नहीं माना बल्कि उसकी उपेक्षा भी शुरू कर दी। पांच बजते न बजते उनका बैग तैयार हो जाता और वह चलने लगतीं तो नया जनरल मैनेजर उन्हें थोड़ी देर और रुकने को कहता। वह टालती हुई बोलतीं, ‘सर देर तक रुक पाना मेरे लिए पॉसिबिल नहीं है।’ वह जोड़तीं, ‘एक तो अंधेरा हो जाता है दूसरे, घर में भी बहुत काम है।’
‘पर पहले तो आप रात दस-दस बजे तक रुकती थीं।’ नया जनरल मैनेजर द्विअर्थी मुसकान फेंकता हुआ बोलता, ‘तब अंधेरा नहीं होता था ?’ वह लगभग आदेश देता, ‘अभी बैठिए कुछ जरूरी काम है। देर होने पर कंपनी की कार आपको घर छोड़ आएगी।’ बिंदू बंसल फिर भी आनाकानी करतीं तो जनरल मैनेजर लगभग किचकिचाता, ‘देखिए नौकरी करना आप की मजबूरी है यह मैं जानता हूं। इस लिए जैसा कहता हूं चुपचाप वैसा ही कीजिए।’ इशारा साफ होता कि मेरे साथ भी वही संबंध रखो और मेरी गोद में आ जाओ। जैसे पुराने जनरल मैनेजर के साथ मिठाई खाती थी, मेरे साथ भी खाओ। पर बिंदू बंसल नए जनरल मैनेजर की मिठाई खानी तो दूर उसकी मिठाई की ओर देखती भी नहीं थीं। यह बात नए जनरल मैनेजर को नागवार गुजरती और वह तरह-तरह से बिंदू बंसल को तंग करता। एक बार उसने बहक कर बिंदू बंसल का हाथ पकड़ लिया तो बिंदू बंसल ने झट दूसरे हाथ से अपनी सैंडिल निकाल ली। ऐन वक्त पर चपरासी ने बीच बचाव किया।
बात आगे बढ़ गई। बिंदू बंसल को अनुशासनहीनता के आरोप में डिसमिस करने की जनरल मैनेजर ने पहल की। पर इस कंपनी में ट्रेड यूनियन तब स्ट्रांग थी।
यूनियन के लोग आगे आए और बिंदू बंसल के डिसमिसल की बात यहीं दफन हो गई। फिर भी वह लंबी छुट्टी पर चली गईं। मेडिकल लीव पर। अफवाहों ने फिर हवा पकड़ी कि मेडिकल लीव नहीं, एबॉर्शन लीव पर गईं हैं मैडम। तो कोई कहता नहीं मिस्टर शुगर के यहां ब्लड प्रेशर जी अपना प्रेशर बढ़ाने गईं हैं। कोई कहता कि अब क्या आएंगी ? लेकिन बीस दिन के मेडिकल लीव के बाद फिटनेस सर्टिफिकेट के साथ वह आईं। उसी दिन उनका ट्रांसफर एकाउंट्स सेक्शन में कर दिया गया।
जाति की बनिया भले थीं बिंदू बंसल पर एकाउंट्स में जीरो थीं। हाई स्कूल तक में मैथ उन्होंने नहीं पढ़ी थी। होम साइंस ले कर किसी तरह हाई स्कूल पास कर इंटर किया था। बी. ए. में दो बार फेल हो कर किसी तरह सोसियोलॉजी, एजूकेशन, साइकॉलजी टाइप सब्जेक्ट ले कर थर्ड डिवीजन पास हुई थीं और अब एकाउंट्स सेक्शन से उनका पाला पड़ा था। दूसरे, एकाउंट्स का सेक्शन हेड नए जनरल मैनेजर का चंपू था। एकाउंट्स सिखाने के नाम पर वह बिंदू बंसल को अपने पास ही बैठाता था और जब तब द्विअर्थी बातें करता रहता। वह हिप से ब्रा साइज तक की बातें करता और खुसफुसा कर पूछता, ‘बिना मर्द के आप कैसे रहती हैं ?’ बिंदू बंसल उसकी बातों का बिना जवाब दिए ख़ामोशी से पी जातीं। लेकिन सेक्शन हेड की द्विअर्थी बातों का पिटारा ख़त्म नहीं होता। उकता कर बिंदू उठ खड़ी होतीं। तो खीझ कर वह पूछता, ‘क्या बात है ?’
‘बाथरूम जा रही हूं।’
‘क्या खाती हो जो इतना बाथरूम जाती हो ?’ वह किचकिचा कर लेकिन इस बात को द्विअर्थी टच दे कर खुसफुसा कर पूछता। बिंदू बंसल निरुत्तर हो जातीं और बाथरूम जाने के बजाय बैठ जातीं। थोड़ी देर बाद सेक्शन हेड द्विअर्थी मुसकान फेंकता पूछता, ‘रुक गई क्या ?’
‘क्या ?’ बिंदू बंसल अचकचा कर पूछतीं।

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