Home विषयऐतिहासिक एक शहर प्यारा सा बीकानेर
क्या होता है शहर?
कैसे बनता है एक शहर??
सतही तौर पर कहा जाये तो ऊंची ऊंची इमारतों, पक्की सड़कों, मनोरंजन के कई साधनों वाला जनसंकुल स्थान।
एक अर्थशास्त्री कहेगा, अनुत्पादक स्थान और वस्तुओं के लेनदेन की मंडी।
एक प्रकृतिवादी कहेगा सीमेंट का जंगल।
और मेरे जैसा निराश व्यक्ति कहेगा, सामाजिकता का मृत्युस्थलऔर जहां जितने ज्यादा मुर्दे रिश्ते वह उतना ही बड़ा शहर।
तो क्या होती है वह चीज जो एक शहर को शहर बनाती है?
क्या केवल ऊंची और भव्य इमारतें?
शानदार कॉलोनियां?
हरे भरे पार्क?
मॉल?मनोरंजन के साधन??विलासिता के संसाधन???
हाँ, ये हो सकते हैं भौतिक प्रतीक एक शहर के पर उसकी आत्मा के नहीं।
किसी शहर की आत्मा तो होते हैं वो लोग जो बसते हैं वहां और बनाते हैं वो रिश्ते जो आधार बनता है उस शहर की पहचान का जिसके अभाव में एक शहर बन जाता है जूम्बी जैसे कि ‘दिल्ली’।
कंक्रीट के इस जंगल में आपको जीवन की हर सुविधा आपके पर्स की क्षमता के अनुपात में मिल जाएगी पर नहीं मिलेंगे तो रिश्ते और अगर होंगे भी तो खो जाएंगे इसकी चकाचौंध में।
#मैंने_लोगों_को_बदलते_देखा_है_यहाँ।
शहरों के बारे में मेरी राय यही थी और तब तक तो निश्चय ही जब तक मैं नहीं पहुंचा था एक ऐसे शहर में जिसने मेरी सारी पूर्वधारणाओं को तोड़ दिया। शहरों का शहर–
***********#बीकानेर************
जो पहले था मेरे लिए रेगिस्तान की रेत से अटा और #बीकानेरी_भुजिया और #रसगुल्ले का ब्रांड भर।
23मई, 2015 को दैववश जीविकोपार्जन के लिये यहाँ पहुंचा तो पहले से ही निराश मन और निराश हो गया।
जब सुबह आंख खुली तो ट्रेन बीकानेर के नजदीक थी। चारों ओर आंखों को थका देने वाला पीला रेगिस्तानी परिदृश्य और बर्थ पर ढेर सारा रेत।
अपने नाम के स्वभाव अनुरूप बादलों में खो जाने वाले मेरे मयूरमन को सदैव मरुस्थल और सूरज की चकाचौंध से चिढ़ रही है और यहां थी सिर्फ गर्म लू और मरुस्थल की रेणुरज।
पहले से ही दुःखी मेरा मन नियति को कोस उठा।
अपने स्वभाव के अनुरूप शहर में प्रवेश करने से पूर्व ही बीकानेर का इतिहास दिमाग में बिठाया हुआ था।
राव बीका के स्वाभिमान से खड़ा हुआ ये शहर महाराज गंगासिंह की दूरदर्शिता के कारण रेगिस्तान में नखलिस्तान के रूप में प्रसिद्ध है पर मैं अपने पूर्वाग्रह के कारण आश्वस्त नहीं था।
यद्यपि भव्य और साफसुथरे रेलवेस्टेशन को देखकर मुझे कुछ अच्छा लगा और शहर भी छोटा पर बेहद साफ सुथरा और व्यवस्थित।
इसके बाद मुझे वास्तविक बीकानेर के दर्शन होना शुरू हुए।
एक ओर जूनागढ़ के रूप में प्राचीन विरासत तो दूसरी ओर पेरिस की तर्ज पर विकसित मनमोहक सेंटर पार्क।
एक ओर परम्परागत हवेलियों से अटा पड़ा ‘परकोटा’ तो दूसरी ओर ‘व्यास कॉलोनी’ जैसी आधुनिक भव्य हरीभरी बस्तियां।
एक ओर शानदार सड़कें व कारें तो दूसरी ओर पूजे जाते हजारों उन्मुक्त सांड और कुत्ते।
एक ओर जींस, टीशर्ट, टॉप में सजे लंबे, गौर, स्वस्थ और सुंदर किशोर किशोरियां तो दूसरी ओर ठेठ राजस्थानी पहनावे #भेस में स्कूटियां दौडातीं महिलाएं और पगड़ी में बनेठने प्रौढ़।
एक ओर करोड़ों का व्यापार करते खांटी व्यापारी तो संध्या को भव्य मंदिरों में भाव विभोर स्वर में गाते और झूमते भक्त।
कुल मिलाकर अपनी जड़ों से दृढ़तापूर्वक जुड़ा एक ऐसा शहर जो आधुनिकता से भी कदमताल मिला रहा है।
मेरे मन के पूर्वाग्रहों में दरार पड़ रही थी।
पर मन अभी अशांत और आशंकित था कि इस अनजान शहर में कैसे टिक पाऊंगा पर फिर भी खुद को दिलासा देता काम में मन को व्यस्त रखने की कोशिश में लग गया और यहां मुझे बीकानेर की आत्मा, इसके लोगों की पहली झलक मिली।
इंस्टीट्यूट के मेरे प्रथम परिचित Prakhar Goswami जी ने मेरे खराब स्वास्थ्य को देखकर जिस तत्परता से एक सर्वसुविधाजनक आवास और सभी आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था की उससे मैं अभिभूत हो उठा।
संस्थान के तीनों निदेशकजन Bajaj सर, Jethmal सर और DrShwet सर, सौजन्य और सद्व्यवहार की साक्षात प्रतिमूर्ति, जिन्होंने कभी भी यह अनुभव ही नहीं होने दिया कि वे उत्तरपश्चिम राजस्थान के अग्रणी संस्थान के स्वामी हैं और मैं उनका एम्प्लॉई।
सहयोगी शिक्षक गण, Purohit सर, Rajiv Agrawal सर, Girish sharma सर, Manoj Solanki सर, Pawan Sutharसर, Bhargav सर, Amit Sen सर, Dhirendra Sutharसर आदि सभी से ऐसा अद्भुत जीवंत संबंध बना जो आज के प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या के इस दौर में अन्यत्र नामुमकिन है।
पर बीकानेर से पूर्ण परिचय अभी बाकी था।
मेरी फेसबुक मित्र आदरणीया सरिता जी को पता चला कि मैं बीकानेर में हूँ तो उन्होंने मेरी नानुकुर को सुने बिंना kuldeep Chauhan जी को मुझे लेने भेज दिया और वहाँ मेरा परिचय हुआ सरिताजी के पति श्री प्रदीप पाराशरजी जो समस्त मंडली में “गुरूजी” के नाम से प्रसिद्ध थे और कब यह संबोधन मैंने भी अपना लिया पता ही नहीं चला। यहीं परिचय हुआ बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के धनी सिद्धार्थ जी से, बेहद मासूम Vishal Bhargava जी से, मिलनसार मांगीलाल जी से और मित्र कम भ्राता बने अशोक सुथार से, Harendra Singh Raghuwanshi जी से।
यूँ तो पूरा राजस्थान मुस्लिम प्रशासन से मुक्त रहने के कारण स्वाभिमानी है परंतु बीकानेरियों में तो इसके संस्थापक का वह स्वाभिमान जैसे रक्त में घुला हुआ है जिसके कारण चचा भतीजे ने इस शहर की नींव रखी थी। आज भी अपने पद और पैसे की ठसक दिखाकर आप यहाँ किसी से भी सम्मान नहीं पा सकते पर मीठे बोल और सम्मान देने पर वे आपको अपनी पलकों पर बिठा लेंगे और गणस्वतंत्रता व समानता के प्रति आग्रही मेरे मन को यह बात बहुत भायी।
हर शनिवार बजरंगधौरे पर एक ही थाल में बजरंगबली का स्वादिष्ट सात्विकी प्रसाद ग्रहण करते, परस्पर ठिठोली करते, एक दूसरे को चिढाते, हिंदुत्व पर गंभीर विमर्श करते, रात को एक दो बजे तक परकोटे में घूमते, #पाटे पर ठेठ बीकानेरी ठलुओं की ओबामा से स्थानीय पार्षद तक चर्चा को देखते, गर्म दूध के कुल्हड़ों और विभिन्न दुकानों के अलग अलग स्वाद के पानों का रसास्वादन करते, मैंने पहली बार जाना कि क्या होता है एक #जिंदा #शहर।
अगर #पूनरासर और #रामदेवरा यात्राओं से जाना कि सामाजिकता, अर्थव्यवस्था और धर्म का गहन अन्तर्सम्बन्ध ही जीवंत संस्कृति का निर्माण करता है तो #कोलायत में सांख्यवादियों के कपिल आश्रम पर अशोक जी के वहाँ की अव्यवस्था पर दिये गये लघु परंतु गंभीर वक्तव्य द्वारा जाना कि अव्यवस्था व गंदगी में भी सौंदर्य ढूंढा जा सकता है।
तो ये है एक छोटी सी झलक बीकानेर की–
हर पल, हर पग जीवन को जीता बीकानेर,
सुबह सुबह कचौरियां उड़ाता बीकानेर,
जीमण में कम खाने पर मीठा उलाहना देता बीकानेर,
खिलखिलाकर हँसने हँसाने वाला बीकानेर।
बीकानेरी होने की गरिमा का ध्यान रखता बीकानेर,
रंगरगीला बीकानेर।
मैं बीकानेर पहुंचा था मानवीय संबंधों के प्रति अविश्वास और अपने दुःखी, आहत मन के साथ परंतु इस शहर ने मेरे जख्मों पर अपना स्नेहलेप लगाया, मुझे ‘प्रेम’ के प्रति मेरा खोया विश्वास लौटाया।
और यह बीकानेर की मुझे दी गई सबसे कीमती सौगात थी।
शुक्रिया बीकानेर ।
तुम अद्भुत और अतुल्य हो।

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