आनंद उन दिनों आदर्शवादी राजनीति का ककहरा पढ़ रहा था।
‘जज़्बात, सिद्धांत, ईमानदारी और मेहनत! ये चार शब्द अगर आप अपने जीवन में गंठिया लें और सौ फ़ीसदी अमल में भी लाएं तो आप को तरक़्क़ी से कोई रोक नहीं सकता।’ आनंद जब अपनी खनकदार लेकिन सहज आवाज़ में अपने साथियों के बीच यह बात कहता तो साथियों पर उस का रौब तो नहीं ग़ालिब होता। पर वह अपने दोनों कंधे थोड़ा सा अदब से झुकाए गर्दन ज़रा आगे बढ़ा कर जाकेट के पॉकेट में दोनों हाथ डाले जैसे जोड़ता, ‘फिर देश में ही क्या हो सकता है दुनिया के नक़्शे पर आप के नाम का परचम लहराए।’ वह जैसे बुदबुदाता, ‘कोई रोक ही नहीं सकता आप को आगे बढ़ने से!’ साथी लोग आनंद की इन बातों पर मन ही मन मुसकुराते और आगे बढ़ जाते। लेकिन कुछ साथी थे ऐसे जिन्हें आनंद की इन सीधी बातों में दम दिखता और वह उन्हें एप्रीशिएट करते। तो कुछ साथी ऐसे भी थे जो खुल्लमखुल्ला उसे क्रेक डिक्लेयर कर देते। लेकिन उस के सामने नहीं, पीठ पीछे। पर बात घूम फिर कर आनंद तक भी आती। लेकिन आनंद उन साथियों पर नाराज़ होने, अप्रिय टिप्पणी करने से लगभग बचता। और जब साथी कुढ़ते हुए उन्हें कुरेदते इस मसले पर कि, आख़िर वह सब आप को क्रेक डिक्लेयर कर रहे हैं! तो वह लगभग गंभीर होते हुए कहता, ‘ये सब हताश और परेशान लोग हैं। इन की बातों का प्रतिवाद कर इन से माथा फोड़ना, फोड़वाना है। शोहदे हैं सब जाने दीजिए। हम लोग अपना काम करें।’
यह सत्तर के दशक के बीच के साल थे। इमरजेंसी बस लगना ही चाहती थी। और आनंद राजनीति में उतर रहा था। विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में। मूल्यों और आदर्श की राजनीति करने। मुश्किल था यह काम। वह मानता था। पर ज़रूरी भी है, यह भी वह मानता था। कहता था, ‘यह बेहद ज़रूरी है।’
संजय गांधी की युवक कांग्रेस ब्रिगेड की छाया इस विश्वविद्यालय में भी थी और भरपूर। लड़कियां बेलबाटम पहन कर निकलतीं और संजय गांधी ब्रिगेड के लड़के उस में घुसने को तैयार! घात लगा कर घुस भी जाते।
कुछ दिन बाद तो युवक कांग्रेस में लड़कियों की जैसे बहार आ गई। अब बहुतेरे लड़के तो युवक कांग्रेस की सदस्यता रसीद कटवाते ही इसी लिए थे कि वहां खुले व्यवहार वाली लड़कियां भी हैं। विश्वविद्यालय भी इसी हवा में सांस खींच रहा था। और इस आबोहवा में आनंद चला था, मूल्यों और आदर्श की राजनीति करने।
उस का लंबा क़द और चौड़ा माथा उस के सैद्धांतिक राजनीति में जैसे कलफ़ लगाता। हालां कि इस तरुणाई में भी वह तन कर नहीं ज़रा झुक कर खड़ा होता। और नौजवानों को जैसे मोह लेता अपनी इस अदा से। लोहिया और गांधी, मार्क्स और लेनिन को पढ़ते-पढा़ते आनंद का़का और सार्त्र को भी पढ़ता। दास्तोवस्की और गोर्की के साथ-साथ प्रेमचंद और निराला को भी बांचता। दिनकर को गर्व से गाता और बच्चन को भी गुनगुनाते हुए धूमिल की कविताएं और दुष्यंत कुमार के शेर कोट करता चलता। अजब कंट्रास्ट था। लोग बाग और गुरुजन भी पूछते उस से कि तुम बनना क्या चाहते हो आखि़र आनंद? नेता कि बुद्धिजीवी? पहले यह तो तय कर लो।’ वह अकुलाते हुए कहता, ‘बनना तो अच्छा आदमी ही चाहता हूं। और अच्छा आदमी बन कर राजनीति करना चाहता हूं।’
‘साहित्य और राजनीति एक साथ?’
‘मार्क्स कहता था कि रूसी समाज को जानने में उसे गोर्की से काफ़ी मदद मिलती है।’
‘तो साहित्य पढ़ कर, किताब पढ़ कर समाज को जानोगे, फिर राजनीति करोगे?’
‘हर्ज क्या है?’
‘क्यों ख़ुद समाज से बाहर रहते हो क्या?’ एक गुरुजन की तल्ख़ टिप्पणी थी तो विश्वविद्यालय छात्र संघ के एक पूर्व अध्यक्ष बोले, ‘यह न तो राजनीति करेगा, न साहित्य! जो भी करेगा वह एक नपुसंक राजनीति के बाने में रह कर बुद्धिजीवी होने के ढोंग का सुख भोगेगा।’
‘देखिए आप समझते नहीं हैं। राजनीति बिना विचार के संभव है क्या? बिना सिद्धांत और मूल्य के संभव है क्या? या आप लोग संजय गांधी की युवक कांग्रेस वाली फासीवादी राजनीति में देश को नष्ट करने का सपना देख रहे हैं? मैं तो भाई इस का पुरज़ोर विरोध करता हूं।’ कहते हुए आनंद विश्वविद्यालय की सड़कों पर छितराए गुलमुहर के छोटे-छोटे फूलों को कुचलते हुए आहिस्ता-आहिस्ता ऐसे चलता गोया वह फासीवादी राजनीति को कुचलते हुए चल रहा हो गुलमुहर के फूल नहीं।
लेकिन उस को लगता था कि उस के सपने कुचले जा रहे हैं। साफ़ सुथरी राजनीति का सपना। विचारों की राजनीति का सपना।
आनंद पर उन दिनों लोहिया का नशा सवार था। लोहिया का दाम बांधो, जाति तोड़ो, अंगरेज़ी हटाओ का कंसेप्ट उस के सिर चढ़ कर बोलता था। पर दिक़्क़त यह थी कि आनंद दाम बांधो, जाति तोड़ो, बुदबुदाता था पर दाम थे कि बंधते नहीं थे और राजनीति थी कि जातियों के आक्सीजन में जी रही थी। ग्रास रूट पर जाता तो बिना जातिगत चौखटे के कोई बात ही नहीं होती। और जब सेमिनारों में जाता तो बिना अंगरेज़ी के औघड़पन के कोई बात ही नहीं सुनता। अजीब अंतर्विरोध में फंसता जा रहा था आनंद!
इन सांघातिक स्थितियों से जूझ-जूझ कर वह फिर-फिर हारता, हारता जाता। हार-हार कर बुदबुदाता सर्वेश्वर की एक कविता, ‘जब-जब सिर उठाया चौखट से टकराया।’
कभी कभार वह इस कविता को स्वर भी देता और लगभग किचकिचा कर बोलता, ‘जब-जब सिर उठाया चौखट से टकराया।’ तो उस के घेरे में उपस्थित उद्दंड छात्र कविता का भाष्य, मर्म या संकेत समझने के बजाय एक भद्दा सा फ़िक़रा कसते, ‘तो आनंद जी सिर उठा के चलते ही क्यों हैं?’
‘क्या करूं सिर झुका कर चलने की आदत नहीं है।’
‘पर गरदन तो आप की हरदम कंधे में धंसी रहती है।’ दूसरा फ़िक़रा आता।
‘और जो ज़्यादा दिक़्क़त हो तो चौखट बड़ा बनवा लीजिए। छोटे चौखट को उखड़वा फेंकिए।’ तीसरा फ़िक़रा आता, ‘चौखट का क्या दोष, आप ख़ुद ही ज़्यादा लंबे हैं।’
‘बेवक़ूफ़ो मैं घर के चौखट की बात नहीं कर रहा।’
‘तो?’
‘समाज की, राजनीति की, व्यवस्था के चौखट की बात कर रहा हूं।’ आनंद थोड़ा सहज, थोड़ा असहज हो कर बताता। व्यवस्था विरोधी बातें करना आनंद की जैसे आदत में शुमार होता जा रहा था।
जे.पी. मूवमेंट ज़ोर पकड़ रहा था। आनंद को जैसे राह मिल गई। वह भी जे.पी. मूवमेंट से जुड़ गया। हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस आकाश से कोई गंगा निकलनी चाहिए/मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए/सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’ अपने भाषणों में दुष्यंत का यह शेर आनंद जब दोनों हाथ जाकेट के जेबों में डाले, गरदन कंधों में धंसाए पढ़ता तो जैसे लोगों में चिंगारी फूट पड़ती व्यवस्था को बदलने की। पर्वत सी पीर पिघलती तो ख़ैर नहीं दिखती लेकिन, सीनों में आग ज़रूर सुलगती। लोगों के ज़ेहन में और जज़्बात में भी। आनंद अब अपनी राजनीति की हदें विश्वविद्यालय से बाहर भी तलाश रहा था। नुक्कड़ सभाएं उस की शहर से ले कर गांवों तक फैल रही थीं। शहरों में अपने भाषणों में वह शेर सुनाता तो गांवों में लोक गीतों के मुखड़े।
आनंद की स्वीकृति अब एक स्थानीय जुझारू नेता की हो रही थी। और स्थानीय लोग उस में एक राष्ट्रीय नेता की संभावना साफ़ देख रहे थे।
आनंद भी नुक्कड़ सभाएं ज़रूर कर रहा था लेकिन उस के भाषणों में राष्ट्रीय फ़लक होता, स्थानीय मुद्दे और घटनाएं भी होतीं लेकिन ज़िलाधिकारी और थानेदार नहीं आते उस के भाषणों में अन्य स्थानीय नेताओं की तरह। बल्कि समूची व्यवस्था और व्यवस्था का देश समाया होता उस के भाषणों में। अपने देश के प्रजातंत्र में वह खोट ढूंढता और धूमिल को कोट करते हुए बताता कि ‘हमारे देश का प्रजातंत्र ठीक वैसे ही है जैसे किसी बाल्टी पर लिखा हुआ हो आग पर उस के भीतर होता है बालू या पानी।’ बात को वह और आगे बढ़ाता बतर्ज़ धूमिल ही, ‘लोहे का स्वाद लोहार से नहीं उस घोड़े से पूछो जिस के मुंह में लगाम लगी हुई है।’ सत्ता व्यवस्था की विद्रूपता प्याज़ की तरह परत दर परत वह जब अपने भाषणों में खोलता तो उस के समकालीन छात्र नेता तो छोड़िए अन्य वरिष्ठ राजनीतिज्ञ भी दांतों तले उंगली दबा लेते। बुज़ुर्ग नेताओं को आनंद में एक बड़ी संभावना दिखने लगी थी। लेकिन ज़्यादातर स्थानीय राजनीतिज्ञ आनंद की काट ढूंढने लग गए थे। क्यों कि उन में आनंद के रूप में अपने लिए ख़तरा दिखने लगा था। एक स्थानीय नेता तो ऐलान ही कर बैठे कि, ‘आनंद के पर अभी नहीं कतरे गए तो किसी दिन ये लखनऊ दिल्ली में बैठेगा और हम लोग इस का दरबार करेंगे और ये साफ़ सुथरी राजनीति की सनक में हम लोगों की एक नहीं सुनेगा।’
आनंद के कानों तक भी यह बात आई लेकिन वह बोला, ‘आज की तारीख़ में यह और ऐसी बातों का कोई अर्थ नहीं है। अभी हम सबको एकजुट हो कर रहना है और बड़ी लड़ाई लड़नी है।’
इस बड़ी लड़ाई की अगुवाई जे.पी. कर रहे थे और आनंद तथा उस जैसे जोग अपने को जे.पी. का सिपाही बताते थे और यही जे.पी. देश भर में अलख जगाते आनंद के शहर आ रहे थे। पूरा शहर जैसे एक जुनून में क़ैद हो गया था। कांग्रेसी हकबक अलग-थलग पड़ ऐसे छटपटा रहे थे गोया कोई उन की विरासत छीन ले रहा हो।
जे.पी. का कार्यक्रम अंततः विश्वविद्यालय में ही रखा गया। जे.पी. बीमार थे लेकिन सत्ता व्यवस्था ज़्यादा बीमार थी सो वह सत्ता व्यवस्था की बीमारी दूर करने, व्यवस्था में आमूल चूल बदलाव की बात कर रहे थे। देश भर में घूम-घूम कर।
जे.पी. जब आए तो उन्हें ट्रेन से रिसीव करने, उन्हें ठहराने, उन के कार्यक्रम तक आगे-आगे रहने वालों में आनंद भी एक था। जाने क्यों जे.पी. के आस-पास उपस्थित रह कर ही आनंद और उस के जैसे लोगों के नथुनों में एक अजीब सी सांस समा जाती, सीने फूलने लगते और मन उड़ने लगता। अजीब सी फैंटेसी, अजीब सा उत्साह था यह।
हालांकि बहुतेरे लोगों ने गुपचुप ही सही काटने की बहुतेरी कोशिश की आनंद को लेकिन जब जे.पी. विश्वविद्यालय पहुंचे तो छात्र-छात्राओं और लोगों के उमड़ आए जन सैलाब को जे.पी. के पहले आनंद ने संबोधित किया। बहुत ही संक्षिप्त भाषण था आनंद का और कहा कि यहां आप लोग जे.पी. को सुनने आए हैं, मुझे नहीं, यह मैं जानता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि ‘कैसे-कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं/अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।’ फिर लोक नायक जय प्रकाश नारायण के नारों से आकाश गूंजने लगा। लोग नारे लगा रहे थे जे.पी. तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। जे.पी. ने अस्वस्थ होने के कारण अपना भाषण कुर्सी पर बैठे-बैठे दिया। और अपने भाषण से नौजवानों में सत्ता व्यवस्था को बदलने का एक नशा, एक जुनून, रच कर एक जंग का ऐलान कर दिया।
आनंद और उस के जैसे नौजवान तो इस सत्ता व्यवस्था को उखाड़ने के लिए जैसे कमर कस कर कूद पड़े। उस के भाषणों में जैसे आग दहकती थी। आनंद ने अब अपने साथ कुछ रंगकर्मियों को भी जोड़ लिया था और अपने भाषण के पहले व्यवस्था विरोधी नुक्कड़ नाटक-नुक्कड़ गीत भी करवाता। ‘हम होंगे कामयाब एक दिन हो-हो मन में है विश्वास, पूरा ़है विश्वास हम होंगे कामयाब एक दिन।’ जब उस के रंगकर्मी साथी एक स्वर में गाते तो एक समां सा बंध जाता।
आनंद को जे.पी. मूवमेंट में एक राह, एक जुनून, एक नशा तो मिला ही था, पर एक सब से बड़ी बात यह थी कि इस मूवमेंट में तब जातिवादी गंध नहीं थी। जातिवादी राजनीति या अंगरेज़ी की हिप्पोक्रेसी की चौखट से सिर के टकराने की नौबत नहीं थी। यह बहुत बड़ी सहूलियत थी।
युवक कांग्रेस के नेताओं की राजनीति इन दिनों बिखरने लगी थी। अलग बात है कि युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष आनंद के ही शहर के थे और पढ़े लिखे भी। लेकिन स्थानीय राजनीति में उन का बहुत ज़ोर इस लिए नहीं था कि उन की राजनीतिक यात्रा अपने शहर से नहीं बल्कि बनारस से शुरू हुई थी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से। एम.टेक. टॉंप किया था उन्हों ने और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे। पढ़े लिखे समझदार और साफ़ सुथरी राजनीति के हामीदार रहे तब के प्रदेश युवक कांग्रेस अध्यक्ष राकेश को आनंद बहुत पसंद करता था पर कहता था कि वह ग़लत पार्टी में हैं। उन्हें युवक कांग्रेस छोड़ कर जे.पी. मूवमेंट में आ जाना चाहिए।
राकेश और आनंद में कई एक समानताएं थीं। दोनों पड़ोसी रहे थे और दोनों ही ग्रामीण पृष्ठभूमि के और दोनों ही संवेदनशील और साफ़ सुथरी राजनीति के पक्षधर। हद दर्जे के आदर्शवादी। राकेश की स्थिति यह थी जब वह टीन एज थे और इसी शहर में स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे तो राजनीति से लगभग घृणा करते थे। इस घृणा का कारण थे उनके एक चचेरे बड़े भाई वीर प्रताप बहादुर सिंह। यह चचेरे भाई वीर प्रताप बहादुर एडवोकेट थे और तब के दिनों शहर कांग्रेस के महामंत्री रहे थे। व्यवहार में वह विनम्रता दिखाते ज़रूर थे पर ज़मींदारी का अहंकार उन में कूट-कूट कर भरा था और ऐंठ भी।
वकालत चलती नहीं थी, सो राजनीति का शौक़ भी पाल लिया था। वस्तुतः उन का ज़ोर न राजनीति में था न वकालत में। घर की ज़मींदारी से राशन पानी और ख़र्चा वर्चा, नौकर-चाकर सभी उपलब्ध थे। और पैसा था तो दरबारी भी थे। अय्याशी भी। आरामतलबी, औरतबाज़ी और शराब सब कुछ वह साधते पर सब कुछ गुप्त। तब के समय चुनाव पांच साल पर ही होते। और जब भी चुनाव का ऐलान होता अटैची ले कर वीर प्रताप बहादुर लखनऊ निकल जाते। पर जाने क्यों तमाम कोशिशों और ख़र्च-वर्च के बावजूद वह कांग्रेस का टिकट नहीं पाते और लौट आते अपनी वकालत में।
कचहरी भी वह रिक्शे से जाते। नौकर सुबह नौ बजे रिक्शा बुला लाता। वकील साहब आराम से दस बजे, ग्यारह बजे जब मन करता तैयार हो कर निकलते, तब तक रिक्शा खड़ा रहता। लेकिन कचहरी जा कर वह रिक्शे वाले को तय किराया ही देते। एक घंटा, दो घंटा रुकने का नहीं। नोक झोंक करता अगर रिक्शा वाला तो लातों जूतों से पिटाई उस की तय होती। यही हाल शाम को भी होता। वह कचहरी से शाम जल्दी ही आ जाते और रिक्शे वाले को रोके रखते। घंटे दो घंटे बाद वह फिर शहर घूमने निकलते। घूमने निकलते पार्टी बैठक के नाम पर और पी पा कर देर रात लौटते। कई बार भोर हो जाती औरतबाज़ी के फेर में तो कभी-कभी सुबह भी।
कई बार तो अगर वह रात कहीं गए नहीं होते, घर पर ही रहे होते तो अगली सुबह काम वाली महरी उनकी शिकार हो जाती। महरी क्या थी टीन एजर थी। नाम था सन्नो। पंद्रह-सोलह साल की। मुंह अंधेरे आती और वकील साहब अपने कमरे में बुला लेते कि पहले इस कमरे की सफ़ाई करो। और दरवाज़ा बंद कर लेते। वह लड़की भी पैसे की लालच में बिछ जाती थी। अजब था। कि उसको भी पैसा प्यारा था, इज़्ज़त नहीं। मां का निधन हो चुका था। दादी को ठीक से दिखता नहीं था। बाप हरदम घर से लापता रहता। शराब के लती बाप को घर में रोटी कैसे बनती है, इसकी भी चिंता नहीं होती। और बेटी को इज़्ज़त से कोई सरोकार नहीं था। उन दिनों दस पैसे, चार आने दे कर कोई भी उसे लिटा सकता था। बैचलर्स के घर उसे सूट करते बरतन मांजने के लिए। और वीर प्रताप बहादुर सिंह, एडवोकेट का घर उसे काफ़ी सूट करता। यहां सभी ‘बैचलर’ थे। वकील साहब तो शादीशुदा थे। उनके नौकर भी। पर सबकी बीवियां गांव पर थीं। हां, वकील साहब के दो-तीन चचेरे भाई ज़रूर बैचलर थे। जो यहां रह कर पढ़ाई कर रहे थे। तो सन्नो जब वकील साहब से छुट्टी पाती तो उनके चचेरे भाई दबोच लेते। बाद में नौकर भी दबोच लेते। कई बार तो होता यह कि चचेरे भाई और नौकर उससे कहते कि झाड़ू, चौका, बरतन वह ख़ुद कर लेंगे बस वह उनकी वासना तृप्त कर दे। सुबह हो या शाम। और वह मान जाती। दोपहर में शहर से लगे एक ताल में बकरी के लिए वह घास लेने जाती साथ ही कंडा भी बीनती। पर वहां भी पता चलता कि लड़के पहले सन्नो के लिए घास काटते और कंडा बीनते, फिर अपने लिए। और वह उनके लिए भी वहीं ताल में लेट जाती।
आनंद भी उन दिनों टीनएज था। एक सुबह वह वकील साहब के एक चचेरे भाई से अपनी किताब मांगने उन के घर गया तो देखा कि नौकर और एक चचेरा भाई दोनों मिल कर बर्तन मांज रहे थे अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए। और दूसरा चचेरा भाई सन्नो के साथ संभोगरत था। किचेन में ही। किचेन भी ख़ूब बड़ा था। पूरा कमरा। बाहर का दरवाज़ा खुला पड़ा था सो आनंद सीधे घर में घुस गया। आनंद के पहुंचते ही अफ़रा तफ़री मच गई। आनंद ख़ुद ही झेंप गया यह सब देख कर। पर यह तो बाद के दिनों की बात है। राकेश प्रताप बहादुर सिंह तब तक बी.एच.यू. पढ़ने जा चुके थे। बी.टेक. की पढ़ाई की ख़ातिर। लेकिन जब वह यहां थे तब भी वीर प्रताप बहादुर सिंह से वह हरदम ही लगभग असहमत रहते। पर एक बार यह असहमति उन की अवज्ञा में बदल गई। सुबह के आठ बजे थे। नौकर किसी काम में लगा था, वीर प्रताप बहादुर को सिगरेट की तलब लगी और राकेश प्रताप बहादुर सामने पड़ गए। राकेश को उन्होंने पैसे देते हुए चौराहे से सिगरेट लाने को कहा। राकेश ने छूटते ही सिगरेट लाने से साफ़ इंकार कर दिया। कहा कि ‘मैं पढ़ाई कर रहा हूं। सिगरेट लेने नहीं जा सकता।’ यह सुनते ही वीर प्रताप बहादुर सिंह का सामंती जानवर जाग गया। और इस क़दर जाग गया कि लात-घूंसा, जूता-चप्पल जो भी कुछ मिला उस से राकेश प्रताप बहादुर सिंह की डट कर पिटाई हुई। वह पीटते रहे और कहते रहे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे मना करने की?’ साथ ही पूछते भी रहे कि, ‘बोलो, सिगरेट लाओगे कि नहीं?’ और राकेश प्रताप बहादुर भी पूरी अकड़ और पूरी ढीठाई से हर बार जवाब देते रहे, ‘नहीं, सिगरेट लेने नहीं जाऊंगा।’ राकेश प्रताप बहादुर की पिटाई से पूरा अहाता इकट्ठा हो गया। सभी लोग इकट्ठे हो गए। रोक छेंक भी की लोगों ने पर सब बेअसर। इसी बीच उन का नौकर आ गया। उन का पैर पकड़ कर बोला, ‘छिमा सरकार। पैसे दीजिए हम सिगरेट लाए देते हैं।’ उस का इतना कहना था कि उस की भी शामत आ गई। लातों जूतों उस की पिटाई शुरू हो गई। और जब बहुत हो गया तो राकेश प्रताप बहादुर ने आगे बढ़ कर वीर प्रताप बहादुर का जूता वाला हाथ थाम लिया और पूरी सख़्ती से कहा, ‘बड़े भइया अब बस! बहुत हो गया!’
राकेश प्रताप बहादुर की इस सख़्त आवाज़ की उम्मीद शायद वीर प्रताप बहादुर सिंह को नहीं थी। इस सख़्त आवाज़ ने जैसे उन्हें बेअसर कर दिया। वह जूता धीरे से वहीं हाथों से गिरा कर हारे हुए क़दमों से थोड़ी दूर रखी आराम कुर्सी पर जा कर लेट गए। ऐसे गोया पोरस सिंकदर से हार गया हो। और सिंकदर से कह रहा हो कि, ‘मेरे साथ वही व्यवहार किया जाए जो एक राजा दूसरे राजा से करता है।’ लेकिन इधर सिंकदर इस से इंकार करता हुआ वीर प्रताप बहादुर की सामंती ज़ंजीरों को छिन्न भिन्न कर धूल में मिला देने पर आमादा था। मुंह फूट गया था, ख़ून बह रहा था पर आंखों में नफ़रत की धूल भरी आंधी जैसे उन्हें उड़ा ले जाना चाहती थी। राकेश प्रताप बहादुर के मन में राजनीति से नफ़रत के बीज यहीं पड़े।
पर बाद में यही राकेश प्रताप बहादुर सिंह जब बी.एच.यू. में छात्र संघ के अध्यक्ष बने और इस बारे में अख़बारों में ख़बर छपी तो उनके पुराने मुहल्ले के लोग चौंके। कि अरे राकेश बाबू भी राजनीति में? बी.एच.यू. में राकेश बाबू की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से समझा जा सकता था कि बी.एच.यू. में तब एक अध्यक्ष को छोड़ छात्र संघ के सभी पदाधिकारी विद्यार्थी परिषद के चुने गए थे। एक सिर्फ़ अध्यक्ष ही एन.एस.यू.आई. से चुना गया था। यह आसान नहीं था। और सोने पर सुहागा यह कि राकेश बहादुर सिंह ने उस बार एम.टेक. में भी टॉप किया। यह भी एक रिकार्ड था। तब के उ.प्र. के मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा राकेश प्रताप बहादुर से इस क़दर प्रभावित हुए कि उन्हें उत्तर प्रदेश युवक कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया। इस सब से उन के परिवार में, गांव में, शहर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। पर एक आदमी दुखी था इस सब से बेहद दुखी। वह थे उन के चचेरे बड़े भाई वीर प्रताप बहादुर सिंह। पर वह खुल कर कहीं कुछ नहीं बोले। ख़ुशी में ख़ामोश शिरकत उन की कमोबेश सभी ने नोट की। संजय गांधी रिजीम में राकेश प्रताप बहादुर की आदर्शवादी और साफ़ सुथरी राजनीति की चादर आसान बात नहीं थी। वह भी बहुगुणा जैसे राजनीतिज्ञ की छत्र-छाया में।
इमर्जेंसी के दिनों की बात है। सर्दियों में राकेश प्रताप बहादुर सिंह शहर आए। बहैसियत अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश युवक कांग्रेस। वह चाहते तो कहीं किसी आलीशान होटल में या किसी बड़े रईस के घर भी ठहर सकते थे। गाड़ी-घोड़ा, फ़ौज-फाटा कर सकते थे। तब के दिनों में यह चलन चल चुका था। पर नहीं, वह तो ऐसे आए कि शहर को पता ही नहीं चला। चुपचाप स्टेशन पर अकेले उतरे। रिक्शा किया और अपने उस किराए के घर आ गए जहां उन के चचेरे बड़े भाई वीर प्रताप सिंह रहते थे। दूसरे दिन शहर में निकले भी तो पैदल चौराहे तक गए। नौकर ने कहा भी कि ‘रुकिए बाऊ साहब, हम रिक्शा ले आते हैं।’ पर वह धीरे से, ‘नहीं।’ कह कर ख़ुद निकल पड़े। जब वह पैदल निकले तब कहीं मुहल्ले वाले भी जान पाए। और सब के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘अरे, राकेश बाबू!’ और वह सब को पुराने दिनों की तरह, अपने स्कूली दिनों की तरह, ‘चाचा जी नमस्ते!’ ‘भइया जी नमस्कार।’ जैसे संबोधनों से सम्मान देते उसी सहजता से चौराहे की तरफ़ चल पड़े। आनंद भी उन के साथ हो चला। भीड़ बढ़ती गई तो वह बोला, ‘बाऊ साहब मैं आप के साथ बैठ कर इत्मीनान से बात करना चाहता हूं।’ वह उन्हें शुरू ही से बाऊ साहब या राकेश बाबू से ही संबोधित करता था।
‘ठीक है आज दिन में तो कई मीटिंग्स हैं। रात को वापस आता हूं तो बैठते हैं। बल्कि खाना साथ खाएंगे। ठीक?’
‘ठीक है। पर भूलिएगा नहीं।’
‘अरे नहीं आनंद जी इस में भूलने की क्या बात है?’ बंद गले के सूट पर फ़र की टोपी। राकेश बाबू का लुक लगभग पूरा-पूरा नेताओं जैसा ही हो चला था। तिस पर उन का लंबा क़द और इज़ाफ़ा भर रहा था।
रात जब वह घर लौटे तो मुहल्ले वालों के अलावा युवक कांग्रेसियों की भीड़ भी जुट चुकी थी। वह सब से विनम्रता पूर्वक मिले और धीरे-धीरे सभी को विदा किया। बड़े भाई वीर प्रताप से बिलकुल उलटा। कोई चोचलापन नहीं, कोई हेकड़ी, कोई ग़ुरूर नहीं। पर बातचीत में तुर्शी और तेवर साफ़ दिखता था। दिन में राकेश बाबू से बतियाने के लिए आनंद ने ढेर सारी बातें सोच रखी थीं पर रात जब वह उन के साथ बैठा तो सब कुछ बिखर गया। और ज़्यादातर बातचीत बचपन की बीती यादों पर केंद्रित हो गई। बचपन और टीनएज के दोस्तों परिचितों को वह याद कर-कर के पूछते रहे। बचपन और टीनएज में खेले गए उबहन कूद, सेवेन टाइम्स, फुटबाल, गुल्ली-डंडा और ईंट जोड़ कर बनाए गए विकेट वाले क्रिकेट तक की याद की। आइस पाइस की भी याद की। इन्हीं यादों में ऊभ-चूभ आनंद ने उन से पूछा, ‘राकेश बाबू आप तो पहले राजनीति से बड़ी घृणा करते थे?’ उस ने जोड़ा, ‘और फिर भी आप राजनीति में?’
‘हां, मुझे लगा कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों को भी आना चाहिए। क्यों कि सिर्फ़ इंटेलेक्चुवल बहस करने से ही बात नहीं बनने वाली कि आप ड्राइंगरूम में बैठ कर पालिटिशियंस और पालिटिक्स को सिर्फ़ कोसते रहिए। इस से काम नहीं चलेगा।’ वह बोले, ‘आज राजनीति में पढ़े-लिखे, समझदार और ईमानदार लोगों की ज़्यादा ज़रूरत है?’
‘यह हम आप सोचते हैं। पर आज का हमारा समाज और ख़ास कर आप की संजय गांधी ब्रिगेड भी ऐसा सोचती है भला?’
‘तो उन की सोच को राजनीति में आए बिना आख़िर बदलेंगे कैसे?’ उन्हों ने पूछा, ‘क्या इंटेलेक्चुअल डिसकशन से?’
‘थियरोटिकली तो यह बात ठीक लगती है पर क्या प्रैक्टिकली भी यह संभव है?’
‘क्यों नहीं संभव है?’ राकेश बाबू बोले, ‘मैं आज राजनीति में जूते घिस रहा हूं। चाहता तो एम.टेक. के बाद कहीं बढ़िया नौकरी कर के ऐशो-आराम की ज़िंदगी बसर कर रहा होता। पर जो समाज को बदलने, उसे सुंदर बनाने का सपना देखा है, उसे कैसे साकार करता? क्या इंजीनियर बन कर?’ वह बोले, ‘हरगिज़ नहीं। यह सपना सच हो सकता है, राजनीति में ही आ कर। और जो पढ़े लिखे लोग राजनीति से कतराते रहेंगे तो गंुडे मवाली ही देश की राजनीति संभालेंगे!’
‘आप की बात सिद्धांत रूप से तो सुनने में अच्छी लगती है, पर व्यवहार रूप में मुश्किल दिखती है।’
‘यही तो।’ राकेश बाबू बोले, ‘यही तो करना है। और यह कोई मुश्किल काम नहीं है। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, गोविंद बल्लभ पंत या आपके लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव आदि नेताओं की एक लंबी सूची और परंपरा है हमारे सामने जिन्होंने सिद्धांत की राजनीति को व्यावहारिक जामा भी पहनाया।’
‘हां, लेकिन आप के इस कहने में आंशिक झूठ का भी साया है।’
‘कैसे?’
‘आप इस सूची में कई नेताओं का नाम भूल गए हैं। जैसे कि आप ने जे.पी. जैसों का नाम नहीं लिया। और अपनी नेता इंदिरा गांधी का नाम नहीं लिया!’ आनंद बोला, ‘राजनीति में सिद्धांत और व्यवहार की जितनी दूरी, दूरी क्या जितनी बड़ी खाई इंदिरा गांधी ने खोदी है, शायद ही किसी ने खोदी हो।’
‘इंदिरा जी को समझने में यह देश, ख़ास कर आप जैसे लोग हमेशा ग़लती करते हैं।’ वह बोले, ‘प्रीवीपर्स, बैंकों का नेशनलाइजे़शन, ग़रीबी हटाओ जैसा नारा, बीस सूत्रीय कार्यक्रम और छोड़िए सेवेंटी वन में पाकिस्तान को धूल चटा कर बांगलादेश को दुनिया के नक्शे पर रखना जैसे कार्यों को आप मामूली काम समझते हैं?’
‘नहीं बिलकुल नहीं।’ आनंद बोला, ‘पर इंदिरा जी की एक बड़ी उपलब्धि बताना तो आप भूल ही गए!’
‘क्या?’
‘यह इमरजेंसी के नाम पर तानाशाही और ज़ुल्म का जो राज वह चला रही हैं उसे क्या कहेंगे आप?’
‘कुछ नहीं, देश को अराजकता की आंधी से बचाने के लिए ज़रूरी फ़ैसला था!’ वह बोले, ‘और यह आप के जे.पी.!’ कहते हुए उन्होंने एक लंबी सांस छोड़ी और बोले, ‘जे.पी. को तो अमरीका और उस की सी.आई.ए. ने गोद ले रखा है! जे.पी. और जार्ज फर्नाण्डीज़ दोनों को आर.एस.एस. की मार्फ़त अमरीका बुरी तरह इस्तेमाल कर रहा है! यह तथ्य अभी देश के भोले-भाले लोगों को नहीं पता है।’
‘असल में तानाशाही में फ़ासिज़्म भी मिला होता है। और इस वक़्त आप की नेता इंदिरा गांधी देश को अराजकता की आंधी से बचाने के नाम पर एक साथ डिक्टेटर और फ़ासिस्ट दोनों हो गई हैं। शायद इसी लिए इस तरह का दुष्प्रचार भी करती करवाती जा रही हैं।’
‘दुष्प्रचार नहीं यह तथ्य हैं आनंद जी!’
‘अच्छा ये जो अख़बारों में सेंसरशिप, जबरिया नसबंदी यहां तक कि अस्सी साल की महिलाओं की नसबंदी!’ वह बोला, ‘थाने और जेलों में यातनाएं! लोगों के मलद्वार में, महिलाओं के यौन अंगों में मिर्चें डलवाना वग़ैरह यह सब क्या है?’
‘कहीं-कहीं प्रशासनिक स्तर पर चूक हो रही है, यह मैं मानता हूं पर यातना की इतनी भयावह तसवीर जो आप पेश कर रहे हैं, सच्चाई के विपरीत है।’ वह बोले, ‘यह आर.एस.एस, वालों का दुष्प्रचार है। अफ़वाह फैलाने में इन ससुरों का कोई जवाब नहीं है! इन के आगे हिटलर भी फे़ल है!’
‘ये गुड़ बोओ और पेड़ बोओ क्या है!’
‘संजय गांधी जी के शब्दों पर नहीं भावनाओं पर जाइए। वृक्षारोपण के बहाने पर्यावरण और गन्ना के बहाने वह किसानों को समृद्ध करना चाहते हैं।’
‘पर आप के नेता को जब यही नहीं पता कि गुड़ नहीं गन्ना बोया जाता है और पेड़ बोया नहीं रोपा जाता है तो वह देश की जनता का दुख-दर्द कैसे समझेगा!’
‘समझेगा-समझेगा!’ वह बोले, ‘राजनीति सिर्फ़ शब्दों से नहीं संवेदना, सपना और दृष्टि से चलती है। संजय जी के सरोकार देखिए, उन के सपने देखिए। वह सपने देखने वाले आदमी हैं और सपने ही समाज बदलते हैं।’
‘तानाशाही के बूटों तले कुचलने वाला समाज!’
‘इतनी तल्ख़ी, इतनी आग, इतनी आंच आप की बातों में क्यों हैं, आनंद जी?’
‘सच अगर तल्ख़ है, सच अगर आग है, सच अगर आंच है, सच अगर फांस भी है तो है।’
‘सो तो है।’
‘पर वैसे ही जैसे एक शेर में कहूं कि सच तो एक परिंदा है, घायल है, पर ज़िंदा है!’ आनंद बोला, ‘फिर एक फ़ासिस्ट राज में अगर इंदिरा इज़ इंडिया कहा जाता है तो यह क्या है?’ इस के बरअक्स एक छोटी सी प्रतिक्रिया भी नहीं होती कांग्रेस में? इस लिए कि कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ कह रहे हैं?’ वह बोला, ‘यह तो व्यक्तिवाद की भी पराकाष्ठा है!’
‘देखिए इंदिरा जी बड़ी नेता हैं!’
‘होंगी! पर क्या वह इंडिया हैं?’
‘नहीं, नहीं यह तो वैसे ही है जैसे हम धरती पर कश्मीर को स्वर्ग कह बैठते हैं। बरुआ जी की भावनाएं हैं और कुछ नहीं। इसे तिल का ताड़ बनाने की ज़रूरत नहीं है।’
‘और यह जो देश भर के तमाम प्रतिपक्षी नेताओं को चुन-चुन कर जेलों में ठूंस दिया गया है। यहां तक कि चंद्रशेखर, रामधन और हेगड़े जैसे कांग्रसियों को भी!’
‘आप तो सारे देश का हिसाब ऐसे मुझ से मांग रहे हैं जैसे मैं ही सारा देश चला रहा हूं, ये सारी ग़लतियां मैं ही कर रहा हूं। इस सब के लिए एक अकेला मैं ही ज़िम्मेदार हूं।’
‘नहीं, मैं तो सिर्फ़ आप से बात कर रहा हूं और बताना चाह रहा हूं कि आप इस समय एक ग़लत पार्टी में हैं, उस का पुराना इतिहास चाहे जितना स्वर्णिम रहा हो, आज की तारीख़ में कांग्रेस एक फ़ासिस्ट पार्टी के रूप में हमारे समाने उपस्थित है। कि कोई उस के ख़िलाफ़ कुछ मुंह खोले तो उसे जेल में ठूंस दो। उस पर अत्याचार बरपा कर दो। इंदिरा गांधी को कभी कहा गया रहा होगा कि दुर्गा हैं, गाया गया होगा, यह गीत कि आमार दीदी, तोमार दीदी, इंदिरा दीदी, ज़िंदाबाद!’ वह बोला, ‘पर आज तो वह सुरसा बन कर सारी प्रजातांत्रिक शक्तियों को, सारे सिस्टम को निगले हुई हैं!’
‘अच्छा तो आप चाहते हैं कि यही सब मैं भी बोलूं और चंद्रशेखर जी, रामधन जी की तरह मैं भी जेल भेज दिया जाऊं?’
‘बिलकुल!’ वह बोला, ‘अभी आप ही कह रहे थे कि सिद्धांत और व्यवहार को एक करना है। और कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है। गांधी, नेहरू वग़ैरह का उदाहरण भी आप दे रहे थे और कि बता रहे थे कि इन लोगों ने सिद्धांत की राजनीति को व्यावहारिक जामा भी पहनाया।’
‘चलिए सोचता हूं कि इस के मद्दे नज़र आप की बात!’
‘मेरी नहीं, आप की बात!’ आनंद बोला, ‘यह मैं नहीं आप ही कह रहे थे। मैं तो सिर्फ़ याद दिला रहा था!’
‘ठीक है भाई, मेरी ही बात!’ राकेश बाबू बोले, ‘रात बहुत हो गई है। सुबह जल्दी उठना भी है।’
‘ठीक है तो मैं चलता हूं। आप सोइए!’ खड़ा हो कर कंबल अपनी देह पर लपेटता हुआ वह बोला, ‘कहिए तो चलते-चलते आज के हालात पर एक शेर सुना दूं?’
‘बिलकुल-बिलकुल!’ वह उत्सुक होते हुए बोले।
‘भोपाल के एक शायर हैं दुष्यंत कुमार। शेर उन्हीं का है कि कैसे-कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं/अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।’
‘क्या बात है!’ राकेश जी बोले, ‘यह सारा भाषण और तर्क-वितर्क करने के बजाय आप पहले ही यह शेर सुना दिये होते। तो भी मैं आप की बात समझ सकता था।’
‘तो चलिए दो शेर और सुनाए देता हूं।’
‘हां, पर इस के बाद और नहीं।’
‘ठीक बात है!’ वह बोला, ‘यह शेर भी दुष्यंत जी का ही है, कि सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए/मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।’
‘बहुत बढ़िया!’ राकेश जी बोले, ‘अगर आप कभी भाषण देंगे तो लगता है कि तारकेश्वरी सिनहा की छुट्टी कर देंगे। ख़ैर, चलिए मैं भी कुछ कोशिश करता हूं। आग जलाने की, सूरत बदलने की!’
‘ठीक बाऊ साहब, नमस्कार!’
‘नमस्कार!’
जाने यह संयोग ही था या कुछ और कि इस बातचीत के कुछ ही दिनों बाद राकेश बाबू के राजनीतिक गुरु और आक़ा हेमवती नंदन बहुगुणा से इंदिरा गांधी किसी बात पर नाराज़ हो गईं। उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया। और उन्हीं के शिष्य नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया। इस से पहले भी यही हुआ था। पी.ए.सी. रिवोल्ट के बाद कमलापति त्रिपाठी को हटाया गया। फिर कुछ दिन बाद जब सरकार बहाल हुई तो कमलापति के शिष्य बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
ख़ैर, बाद के दिनों में यह चीजें और डेवलप हुईं।

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