जब भी हम दुःख/शोक में डूबे हों,हमारे शुभचिंतक चारों ओर से Move On…. Move On की जैक लगाकर उस परिस्थितियों से हमें खींच ले जाना चाहते हैं।उन्हें लगता शीघ्रातिशीघ्र हम उन घटना दुर्घटनाओं की स्मृति से बाहर आकर सुख सन्धान के साधनों(घूमना फिरना,उत्सव उत्साह)से जुड़ जाँय।
यह केवल दूसरे ही हमारे साथ नहीं करते,हम भी उनके साथ करते हैं,, क्योंकि स्नेह संवेदना का पावन भाव “हमारे अपने दुःखी न रहें” के भाव/कर्तब्यबोध के साथ यही हमें उस समय का कर्तब्य बताता है।
किन्तु यदि देखा जाय तो हमें जहाँ से आगे बढ़ जाने,उन अनुभूतियों से निकल जाने को कहा जाता है,समय के बीतते पलों के साथ सदा हम वहीं खड़े होते हैं क्या?
कदापि नहीं, यह हमारा विशुद्ध भ्रम है कि हम रुके हुए हैं…..कुछ भी रुकता नहीं है,,,हम हर क्षण घट रहे होते हैं।प्रत्येक पल का अनुभव विगत पल से भिन्न होता है और मुझे लगता है उन अनुभवों में डूबकर जीवन के उस रंग को अवश्य ही देखना चाहिए।समय/अनुभवों से पलायन वास्तव में हमसे अनुभव रूपी समृद्धि छीन लेता है।
यह हमारी दुर्बलता है कि हम कष्टप्रद दुःखद स्थितियों से भाग जाना और सुख में डूबे रहना चाहते हैं।जीवन का ध्येय हर कोई सुख ही बनाना चाहता है और यही होना भी चाहिए,,,
किन्तु यह तभी सम्भव है जब दुःख में भी उतनी ही तन्मयता से डूबा जाय।दुःख में व्यक्ति जितना गहरे डूबता है, सुख ग्रहण करने की ग्राह्यता और पात्रता उसकी उतनी ही बढ़ती है, उसके प्रयास उतने ही सबल सुदृढ़ होते हैं,सँसार के दुखों को समझने और उन्हें दूर करने के प्रयास में अपना योगदान देने में व्यक्ति उतना ही प्रतिबद्ध और सक्षम होता है।
मजे की बात कि जिस सुख में संलिप्त और दुःखों से भागने में हम प्रतिक्षण तत्पर रहते हैं वह सुख जहाँ हमें विलास देता है,वही दुःख हमें संवेदना और सुख सन्धान के लिए शिक्षित करता है।
सो जितना डूबकर हम सुख का आस्वादन करें,,उतना ही दुःख का भी।
जीवन के ये दोनों रंग भरपूर जी लिया तभी जीवन का असली ध्येय मोक्ष/निर्लिप्तता और सन्तोष प्राप्त हो सकता है।
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