द कश्मीर फाइल्स अगर पचास वर्षों बाद आती तो किसी को समस्या नहीं होती । उसे अतिरंजित और माहौल खराब करनेवाला भगवा झूठ कहकर खारिज किया जाता वा-मिया इकोसिस्टम द्वारा।
आज इन्हें तकलीफ इसलिए है क्योंकि इस त्रासदी के भुक्तभोगी आज भी जीवित हैं, वे यह फिल्म देखने आ रहे हैं और देखकर फूट फूट कर रो रहे हैं, और बोल भी रहे हैं कि हाँ, यह तो सब हुआ ही था बल्कि इससे कई गुना और भी भयानक हुआ था जिसे आप दिखा नहीं सके हैं। समझ आता है कि दिखाते भी तो सेन्सर हो जाता ।
नोट करें कि मैंने भुक्तभोगी लिखा है, सिर्फ प्रत्यक्षदर्शी नहीं।
आज लोग पुस्तकें पढ़ते नहीं, पढ़ना ही लगभग बंद हो गया है, इसलिए इस विषय पर केवल पुस्तकें निकलती तो लाइब्रेरिज में धूल फाँकती। और छपे शब्दों में वो बात नहीं होती जो एक फिल्म या विडिओ में होती है। अगर त्रासदी के भुक्तभोगी ऑन कैमरा कह रहे हैं कि हाँ ये हमारे साथ हुआ, तो इसे नकारते नहीं बनता।
और ये किसने किया यह भी स्पष्ट हो जाता है। राजनेता न हत्यारों के पड़ोसी थे और न पीड़ितों के। और हत्यारों की प्रेरणा उनके नारों से स्पष्ट थी। “किसकी सरकार थी” वाले वामियों के गंदे खेल से परे है यह बात, कि यह एक समूचे समाज का दूसरे समाज के प्रति अत्याचार है, पड़ोसी होने के विश्वास की सामूहिक हत्या है।
सीधा स्पष्ट और वह भी सबूतों के साथ यही निर्देश है जिस से हरेलाल बिलबिलाये हैं। अगर और पचास वर्ष बाद यह फिल्म आती तो कोई साक्षी नहीं मिलते, फिर फिल्म को communal fiction बताकर सेन्सर में ही उसकी भ्रूणहत्या की जाती। दो महीनों तक निंदा होती रहती जिसके चलते सब को संदेश मिलता कि बॉलीवुड में रहना है तो TKF की निंदा करनी है। आज जो सभी महानायक से नालायक तक लोग चुप्पी रखे हैं वे तख्तियाँ लेकर फ़ोटो लगवाते, अपने फैन्स पर जोर डालते कि आप ने यही मेसेज के साथ अपनी फ़ोटो एक दिन में नहीं डाली तो अनफ्रेंड कर देंगे।
और उस फ्रेंड लिस्ट में बने रहने के लिए कई लड़कियां अपने मित्रों और बॉय फ्रेंड्स पर दबाव डालती अपनी dp बदलने के लिए।
पहले भी यह सब हो चुका है, क्या नहीं ?