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ब कोई भी व्यक्ति कुछ बोलता है तो उसके शब्दों से नहीं बल्कि उसके दृष्टिकोण से उसका मंतव्य स्पष्ट होता है।
-वल्लभाचार्य जब कृष्ण को ‘रसिया’ कहते हैं और एक वामपंथी उन्हें ‘रसिया’ कहता है तो दोंनों के दृष्टिकोण में अंतर उनका मंतव्य स्पष्ट करता है। आचार्य के लिए ‘रास’ ईश्वर द्वारा जगत में अपनी विभूति का दिव्य प्रत्यक्षीकरण है जबकि वामपंथी द्वारा प्रयुक्त ‘रास’ शब्द उनकी अपनी यौनकुंठा।
-नरसी जब अपने कान्हा को ‘गालियां’ देते हैं और जब एक विधर्मी कान्हा को ‘गालियां’ देता है तो उनके दृष्टिकोण के अन्तर के कारण उनके प्रति हमारा अलग-अलग व्यवहार होता है। नरसी की ‘गालियों’ में हमें उनका ईश्वर के प्रति विश्वास दिखता है जबकि विधर्मियों की गालियां स्पष्ट रूप दे उसकी घिनौनी मानसिकता।
-जब एक समदर्शी व्यक्ति ‘एकता में अनेकता’, पर बात करता है और एक जातिवादी व्यक्ति ‘अनेकता में एकता’ की बात करता है तो यहां भी अंतर दृष्टिकोण का ही है।
जब एक ‘समदर्शी’ व्यक्ति ‘एकता में अनेकता’ का वक्तव्य देता है तो उसका जोर ‘एकता’ पर होता है। इसके ठीक विपरीत जब एक जातिवादी व्यक्ति ‘अनेकता में एकता’ की बात करता है तो उसका जोर ‘एकता’ पर नहीं बल्कि ‘जातिगतअनेकता’ और उसमें भी ‘जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावाद’ पर सर्वाधिक होता है।
आप ‘अनेकता में एकता’ कहिये या ‘एकता में अनेकता, कोई फर्क नहीं पड़ता है बस यह देखिये कि दोंनों में समदर्शी कौन है।

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