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निर्मल वर्मा की आज जयंती है

दयानंद पांडेय

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निर्मल वर्मा की आज जयंती है :
प्रेम व अकेलापन रचनात्मकता का एक ज़रूरी तत्व: निर्मल वर्मा
कहानियों, उपन्यासों में बार-बार प्रेम और अकेलापन उलीचने-परोसने वाले निर्मल वर्मा से बतियाना भी अकेलेपन की आंच में तिरना है। बातचीत में इतना संयत, इतना धीमे और इतनी नीरवता बोना निर्मल वर्मा का ठेंठ अंदाज़ है। प्रेम और अकेलापन उनकी कथा के अनिवार्य अभिप्राय हैं जिसमें वह बार-बार लौटते हैं। इन्हीं अभिप्राय में शायद उनकी रचनात्मकता के संकेत दिखाई देते हैं। निर्मल का कैनवस दरअसल बहुत छोटा है। एक तरह से वह स्थितियों के लेखक हैं जिनमें वह कुछ सीमित अनुभव परोसते रहते हैं। इसे वह अपने अस्तित्व की बेचैनी बताते हैं और कहते हैं कि हम किसी चीज़ की प्रतीक्षा करते हुए एक अवसाद जी रहे हैं। बेहद संकोची और शऊर वाले निर्मल वर्मा बोलते भी ऐसे हैं जैसे उनकी कहानियों में पत्ते झरते हैं। उदास और शांत। कुछ समय पहले दयानंद पांडेय ने निर्मल वर्मा से ख़ास बात की थी । पेश है वह बातचीत :
आप अपनी कहानियों उपन्यासों में एक अजीब क़िस्म का रोमांटिक तनाव रोपते हैं। लगभग हर बार !
– आपने बहुत सरल और अच्छी टिप्पणी की है पर रोमांटिक तनाव ही रोपता हूं सिर्फ़, ऐसा मुझे नहीं लगता। हर लेखक की अपनी शैली होती है पर यह भी ठीक है कि किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में रोमांटिक तनाव कहा जा सकता है।
रोमांटिक तनाव की जगह कोई उपयुक्त शब्द आप ही सुझाएं?
– भीतर, कोमल और जीवन के स्वप्न के बीच का जो अंतराल है उसके बीच से यह तनाव उपजता है। पर इस समय इस रोमांटिक तनाव की जगह कोई और शब्द नहीं सूझ रहा।
आप की कहानियां और उपन्यास बार-बार प्रेम और अकेलेपन की कथा ही कूतती हैं। एक लंबे समय तक एक ही अनुभव बीनती हैं ! बहुतों को लगता है कि आप स्थितियों के लेखक हैं !
– यह तत्व रचनात्मकता के लिए ज़रूरी लगते हैं। फिर अकेलापन कोई अवधारणा नहीं है। जब हम अकेले होते हैं तो भी किसी के साथ होते हैं। साथ और अकेलापन कहीं न कहीं घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।
आप की मूल मुश्किल?
– कला और दुनिया के बीच का रिश्ता बहुत उद्वेलित करता रहा है। यह एक तरह की मेरी रचनात्मकता भी यहीं कहीं है। हम किसी चीज़ की प्रतीक्षा करते हुए एक अवसाद जी रहे हैं।
इन दिनों क्या कर रहे हैं?
– मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं। अभी पूरा नहीं हुआ है।
विषय क्या है?
– इस उपन्यास के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा। मेरी नीति रही है कि जब तक छप न जाए – किसी से नहीं बताता।
कहीं इस लिए तो नहीं कि कथा बताने के बाद लिखने की ललक ग़ायब हो जाने का ख़तरा रहता है?
– हां, यही बात है।
हम लोग आप को हिंदी कहानी का परदेसी बाबू मानते हैं।
– क्यों?
आप का जो अंदाजे बयां है !
– कहानी को देसी और परदेसी खाने में विभाजित करना ठीक नहीं। यह कहना ख़तरनाक है। अच्छी कहानी कहीं से आए, घर से, गांव से, देस से, परदेस से, कहीं से भी। कहानी अच्छी होनी चाहिए।
अस्सी के दशक में एक शोध पत्र में तो बाक़ायदा स्थापना दी गई थी कि मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव तो शहरी बाबू हैं। रही बात निर्मल वर्मा की तो वह तो परदेसी ठहरे।
– हमें इस तरह के छद्म और कृत्रिम ग़ैर साहित्यिक तरह के विभाजनों, आलोचनाओं से छुट्टी पा लेना चाहिए। उनसे भी जो इस तरह के विभाजन करते हैं।
पर यह तो आप मानेंगे कि आप की कथाओं में पात्र देसी हैं पर स्थितियां परदेसी। ‘रात का रिपोर्टर’ पर ही बात करें। रिपोर्टर है तो भारतीय पर स्थितियां तो यहां की नहीं हैं? कपास की खेती पर एक रिपोर्ट लिखने के लिए 6 महीने की मोहलत भारत में तो किसी रिपोर्टर को नहीं मिलेगी?
– हां, यह मैं, मान लेता हूं। हमारी कथाओं में स्थितियां ऐसी हैं। पर हर लेखक की अपनी शैली होती है।
एक बात यह भी है कि एक समय आप और आप के समकालीन लेखकों की रचनाओं से ज़्यादा चर्चा उनकी महिलाओं की होती थी। उन दिनों की बात है जब जैनेंद्र जी ने लेखकों के लिए पत्नी के अतिरिक्त प्रेमिका की स्थापना दी थी !
– हां, याद है। पर रचना की जो क़िस्सागोई है, तो उससे पाठक की उत्सुकता तो स्वाभाविक हो सकती है, लेकिन उनके रचना संसार का सत्य नहीं उपलब्ध किया जा सकता।
गगन गिल से आपने शादी की। वह उम्र में आप से बहुत छोटी हैं। लगभग आधी। एज गैप नहीं महसूस होता?
– होता है कभी। कभी नहीं होता है। पर व्यक्तिगत बात आप क्यों कर रहे हैं? मेरी रचना के बारे में बात करिए।
गगन गिल पहले बहुत अच्छी कविताएं लिखा करती थीं। अब उनकी कविताएं दिखती नहीं?
– कुछ और बात कीजिए। व्यक्तिगत बातें नहीं।
शिमला के बारे में?
– शिमले में मेरा बचपन बीता था। इस लिए बचपन की स्मृतियां मेरे साथ जुड़ी हुई हैं।
आप के बहुतेरे समकालीन टी.वी., फ़िल्मों की ओर भागे हैं। आप नहीं गए?
– अपने को उसके उपयुक्त नहीं मानता।
आप ने कहानी, उपन्यास, निबंध, अनुवाद और यात्रा वृतांत लिखे। पर नाटक, कविता आदि विधाओं से भागे रहे? वज़ह विवशता है या कोई रिजर्वेशन?
– अयोग्यता !
कैसे?
– आदमी हर चीज़ नहीं कर सकता। मैं जो भी करना चाहता हूं ठीक-ठीक ढंग से करना चाहता हूं।
अरुंधती राय इन दिनों हर चर्चा में छाई हुई हैं।
– मुझे भी उनकी रचना बहुत पसंद है। उन्हें जो सम्मान मिला है उनकी रचना और योग्यता पर ही मिला।
प्रतिबद्धता और कलावाद की बहस पर आप की खीझ, कल बहुत साफ नहीं हो पाई।
– खीझ नहीं है। पर प्रतिबद्धता का प्रश्न साहित्येतर प्रश्न है ऐसे प्रश्न हमें ऐसी किसी सार्थक बहस में नहीं ले जाते।
आप को नहीं लगता कि ऐसे बसियाए विषयों के बजाय रचनाओं पर केंद्रित बहस ज़्यादा मायने रखती?
– बिलकुल।
लेखन की चुनौती?
– अच्छा सुघड़ शिल्प और भाषा को विकसित कर पाना ताकि हम अपने जीवन के विविध अनुभव को उनकी पूरी संशलिष्टता के साथ व्यक्त कर सकें।
आप के पढ़ाकू होने, ज़्यादा गंभीर होने और बेहद रिजर्व रहने से लोग आक्रांत रहते हैं।
– मुझे तो नहीं लगता।
अभी कल ही मनोहर श्याम जोशी कह रहे थे कि मैं भी अगर वयस्क होता तो निर्मल वर्मा की तरह लिखता और बोलता।
– ऐसा कह रहे थे वह ! सचमुच ! अब मैं क्या कह सकता हूं? पर कई बार ऐसा होता है।
एक चिथड़ा सुख की तरह? जहां जो लोग थियेटर करते हैं लगता है बहुत ज़रूरी काम कर रहे हैं और व्यर्थतता का एहसास भी करते रहते हैं।
– हां, व्यर्थतता का बोध भी हमें संवेदनशील बना सकता है।
निर्मल वर्मा
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल, 1929 को हिमाचल के शहर शिमला में हुआ, जहां उनके पिता श्री नंदकुमार वर्मा ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा-विभाग में एक उच्च पदाधिकारी थे। आठ भाई-बहनों में पांचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर उस पहाड़ी शहर की छायाएं दूर तक पहचानी जा सकती हैं। बचपन के एकाकी क्षणों का यह अनुभव जहां निर्मल वर्मा के लेखन में एक सतत तंद्रावस्था रचता है, वहीं उन्हें मनुष्य के मनुष्य से, व स्वयं अपने से अलगाव की प्रक्रिया पर गहन पकड़ देता है।
सन् 1956 में ‘परिंदे’ कहानी के प्रकाशन के बाद से नई कहानी के इस निर्विवाद प्रणेता का सबसे महत्वपूर्ण, साठ का दशक, विदेश-प्रवास में बीता। चेकोस्लोवाकिया व अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों को निकट से देखने ने जहां उन्हें साम्यवादी व्यवस्था की अचूक समझ दी, वहीं उत्तर-उपनिवेशी भारत के बारे में नई अंतर्दृष्टि भी।
यह मात्र एक संयोग नहीं है कि लगभग आधे शतक की अपनी लेखकीय उपस्थिति से निर्मल जी ने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्य से संबंधों की चीर-फाड़ की है, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, हमारे तेज़ी से बदलते जाते समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी भरसक साक्षात्कार किया है।
छात्रावस्था के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता लेकिन गांधी जी की प्रार्थना-सभाओं में हाज़िरी, इमर्जेंसी के दौरान भूमिगत विरोध, जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति और दलाई लामा के अहिंसक तिब्बत मुक्ति आंदोलन से उनके जुड़ाव में उनके जीवन की चिंताओं और चिंतन के विभिन्न आयाम देखे जा सकते हैं। वह उन थोड़े से रचनाकारों में हैं, जिन्होंने एक संवेदनशील बुद्धिजीवी की व्यक्तिगत स्पेस और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच सुंदर संतुलन का आदर्श हमारे सामने प्रस्तुत किया है। आज भारतीय सांस्कृतिक पटल पर उनकी आवाज़, वह कितनी ही विवादास्पद और विवादाग्रही क्यों न हो, एक अनिवार्य नैतिक उपस्थिति है, यह उनके विरोधी भी मानते हैं।
वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर “उपन्यास”, पिछली गरमियों में, परिंदे, जलती झाड़ी, कौवे और काला पानी, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियां “कहानी” तथा चीड़ों पर चांदनी, धुंध से उठती धुन “यात्रा वृतांत”, शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए तथा शताब्दी के ढलते वर्षों में उनके न सिर्फ़ महत्वपूर्ण निबंध संग्रह हैं बल्कि अपने ढंग से साहित्य की दुनिया में पूरी महत्ता भी साबित कर चुके हैं। सेंट स्टीफंस कालेज दिल्ली से इतिहास में एम.ए. करने के बाद निर्मल 1959 में चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान और चेकोस्लोवाकिया लेखक संघ के आमंत्रण पर वह वहां 7 वर्ष रहे। इस बीच उन्होंने कई चेक कथाकृतियों के अनुवाद किए। लंदन में प्रवास के दौरान टाइम्स आफ इंडिया के लिए उन्होंने यूरोप पर सांस्कृतिक राजनीतिक टिप्पणियां नियमित लिखीं। 1972 में वह 14 बरस बाद देश वापस आए और भारतीय डच विद्या संस्थान में फेलो रह कर ‘मेथड’ पर काम किया। 1973 में उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर बनी फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार मिला। फिर वह भोपाल में निराला सृजन पीठ और बाद में शिमला के यशपाल सृजन पीठ के अध्यक्ष रहे। ‘कौवे और काला पानी’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1993 में साधना सम्मान और फिर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का लोहिया अति विशिष्ट सम्मान भी उन्हें मिला। हैडिलबर्ग विश्वविद्यालय दक्षिण एशिया के निमंत्रण पर ‘भारत और यूरोप प्रतिश्रुति के क्षेत्र’ व्याख्यानमाला में निर्मल ने एक नई स्थापना रखी थी। कहा कि भारत और यूरोप दो ध्रुवों का नाम है। एक दूसरे से जुड़ कर भी ये दो अलग वास्तविकताएं हैं जिनको खींच कर या सिकोड़ कर मिलाया नहीं जा सकता।
अपने संपूर्ण कृतित्व के लिए उन्हें भारतीय साहित्य के सर्वोच्च भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार “2000” से सम्मानित किया गया है।

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