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महासुर शुम्भ निशुम्भ

by रंजना सिंह
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महासुर शुम्भ निशुम्भ ने अपने अपरिमित बल से जीतते जीतते सम्पूर्ण सृष्टि पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।ऐसा कुछ भी,किसी के भी पास त्रिलोक में नहीं बचा था जो महत्वपूर्ण या मूल्यवान हो और उसपर इनदोनों महासुरों का आधिपत्य न हो।इन्हें जो भाता, छीन लूटकर अपने पास ले लेते।सृष्टि के समस्त श्रेष्ठ वस्तुओं,संसाधनों और सत्ताओं पर ये अपना स्वाभाविक अधिकार मानते थे,अपरिमित बल और भोग ही इनके जीवन/शौर्य का लक्ष्य था।ये सबल थे,सफल थे।
इसी कारण अलौकिक सुन्दरी अम्बिका भी उन्हें रत्नस्वरूपा लगी और वह इन्हें भोग हेतु अपने अधिकार में चाहिए थी। यह स्वीकारना उनके संस्कार में ही नहीं था कि स्त्री कोई वस्तु नहीं, उसकी अपनी भी कोई पसन्द, इच्छा अनिच्छा हो सकती है,,वह भी उनकी ही तरह अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है,वह बल सामर्थ्य से परिपूर्ण भी हो सकती है और लोभ स्वार्थ या भय से असंपृक्त रह उनकी अधीनता स्वीकारने से मना भी कर सकती है।
वस्तुतः इनदोनों को जो सफलता प्रभुत्व परिस्थितियाँ आजतक मिलीं थीं उसने इन्हें सभी को अपने सम्मुख भयभीत पददलित शक्तिहीन असहाय देखने का अभ्यासी बना दिया था। इसी कारण जब देवी अम्बिका ने बिना युद्ध में इनसे पराजित हुए इनका आधिपत्य न स्वीकारने का अपना प्रण इन्हें बताया तो ये क्रोध से बावले हो उठे और इन्होंने अपने सर्वाधिक असभ्य सेनापति धूम्रलोचन को आदेश दिया कि वह बड़ी सी सेना लेकर अम्बिका के पास जाए और झोंटे से पकड़कर घसीटते हुए उसका मान मर्दन करते लाकर उनके चरणों में भूलुंठित करे।
धूम्रलोचन वध के उपरांत तो खैर चण्ड मुण्ड रक्तबीज से होते अंत में दोनों भाई स्वयं भी अपनी समस्त सेना और महारथियों को लेकर नारी शक्ति दलन हेतु रणांगण में प्रस्तुत हो गए।
परन्तु माता अम्बिका ने जब इनके समस्त महावीरों सेनाओं छोटे भाई निशुम्भ आदि सबका विध्वंस करते युद्ध में शुम्भ को एकाकी कर दिया, तो अपने पराजय की आशंका से विचलित इसने विक्टिम कार्ड निकाल लिया और अम्बिका को धर्म और उनका प्रण स्मरण कराने लगा कि उन्होंने तो युद्ध में अकेले लड़ने की बात कही थी,पर अब ब्राह्मणी रुद्राणी इन्द्राणी जगदम्बिका आदि अनेकानेक अन्य स्त्रियों के बल का सहारा लेकर लड़ रही हैं,,,,,यह फाउल है।
जिस व्यक्ति ने विध्वंस मचाते समय एकबार भी धर्म अधर्म का,दूसरों के कष्ट का विचार न किया,,,एक स्त्री को अपने अधीन करने को,उसका गर्व तोड़ने को अपनी पूरी सेना लगा दी,,स्वयं को संकट में पाते,पराजय सन्निकट देखते उसे नीति धर्म सूझने लगा।
श्री दुर्गाशप्तशती पाठ क्रम में जब इस स्थान पर पहुँचती हूँ तो शुम्भ का यह उद्बोधन मुझे उनतक ले जाता है जो बड़ा बड़ा विध्वंस मचाते,मानवता तार तार करते धर्म का नहीं सोच पाते,परन्तु स्वयं को घिरा देखने पर,दण्डित होने की संभावना देखते, दया करुणा सहिष्णुता मानवता की दुहाई देने लगते हैं।अपराधी को “मनोरोगी,, बेचारा गरीब मास्टर का बेटा,, मासूम भटका नौजवान ….”आदि ठहराते दण्ड से बचा ले जाने को शाम दाम दंड भेद नीति सब धर्म बनाकर अपना लेते हैं।अपराधियों को बचा लेने को आतुर तत्पर एक पूरा तन्त्र इतना करुण रस बहाता है कि अपराधीको दण्डित करने वाला अपराधबोध के गहन अवसाद में जाने से स्वयं को किसी प्रकार ही बचा पता है।कुछ न्यायदाता तो सेवा निवृत्ति के बाद भी कह जाते हैं कि फलनवे को फाँसी देना उनकी बहुत बड़ी भूल थी।
आज 2 मिनट के लिए अमित शाह जी को सदन में बोलते हुए सुना और यह सुनकर कलेजा ठण्डा हो गया कि “मानवाधिकार अधिक महत्त्वपूर्ण उनके होते हैं जो संविधान नियम के हिसाब से शांतिपूर्वक चलते हैं। कोई निर्भीक अपराधी आकर यदि उन्हें हानि पहुँचाते यह सोचकर कर चला जाता है कि न्याय व्यवस्था की पेचीदगियाँ,अपराधियों के रक्षा के लिए सजग तत्पर मानवाधिकार संगठन उन्हें बचा ही लेंगे,,तो ऐसे अपराधियों के हितों की चिन्ता और रक्षा करना सत्ता और संविधान का दायित्व नहीं है।समुचित नियम बनाकर अपराध रोकना,अपराधी की निर्भीकता मिटाना सत्ता का कर्तब्य है।”
विगत सत्र में जितने भी बिल पास हुए, मीडिया में उनकी चर्चा भले न हुई हो, पर उनका महत्त्व आगे भविष्य में इतना व्यापक होगा कि लोग स्पष्ट लक्ष कर पाएँगे।

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