Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय वह तब भी फ्रीलांसर था

वह तब भी फ्रीलांसर था

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वह तब भी फ्रीलांसर था जब देवेंद्र से बारह बरस पहले मिला था। और आज जब फिर देवेंद्र से मिल रहा था तो फ्रीलांसिंग भुगत रहा था। फर्क बस यही था कि तब वह दिल्ली में मिला था और अब की लखनऊ में मिल रहा था।
और देवेद्र ?
देवेंद्र तो तब भी फ्रीलांसर थे, अब भी फ्रीलांसर। और शायद आगे भी फ्रीलांसर रहेंगे ही नहीं फ्रीलांसिंग ही करेंगे। शायद आजीवन। रंगकर्म और पत्रकारिता का यह फर्क है। तो जब वह नाटक के मध्यांतर में लगभग सकुचाते हुए मिला देवेंद्र से कि, ‘‘मैं संजय!’’ तो वह हलके से मुसकुराए। संजय को लगा कि शायद देवेंद्र ने पहचाना नहीं। तो कह भी दिया, ‘‘शायद आप ने पहचाना नहीं।’’ तो देवेंद्र हाथ मिलाते हुए बोले, ‘‘अरे, दिल्ली में हम मिले थे।’’
सुन कर संजय खुश हुआ। बोला, ‘‘हम ने सोचा, क्या पता आप भूल गए हों।’’ तो देवेंद्र अपनी गंभीरता की खोल से जरा और बाहर निकले, ‘‘आप ने मेरे बारे में लिखा था। गोल मार्केट में रहते थे आप। कैसे भूल जाऊंगा।’’ अब गंभीर होने की संजय की बारी थी, ‘‘बड़ी अच्छी याददाश्त है आप की। नहीं, लिखता तो मैं जाने कितनों के बारे में हूं पर लोग इतने बरस बाद छोड़िए, छपने के दूसरे दिन से याद करना तो दूर पहचानना ही भूल जाते हैं। कन्नी काट कर बगल से कौन कहे सामने से ही बड़ी बेशर्मी से निकल जाते हैं।’’
देवेंद्र हलका-सा मुसकुराए। तब तक उन्हें और भी कई लोग घेर चुके थे। कि इसी बीच नाटक की घंटी बजी। और एक अभिनेता आ कर देवेंद्र से पूछने लगा, ‘‘शुरू करें?’’ देवेंद्र बिलकुल निर्देशकीय अंदाज और आवाज में सिर हिलाकर बोले, ‘‘हूं।’’ फिर संजय ने उन से पूछा, ‘‘ठहरे कहां हैं। कल कैसे भेंट होगी ?’’ देवेंद्र बोले, ‘‘ठहरा तो अप्सरा होटल में हूं। पर कल दिन दस से बारह यहीं रिहर्सल करेंगे। यहीं मिलते हैं।’’ संजय चाहता था कि कह दे ‘‘ठीक है।’’ पर कुछ कहा नहीं। कहते-कहते रह गया। अचानक उसे याद आया कि ग्यारह बजे उस ने अपनी महिला मित्र चेतना को टाइम दे रखा है। बोला, ‘‘तो ठीक है कल शाम को ही मिलते हैं।’’ सिर्फ कहानियां निर्देशित करने वाले देवेंद्र का सहज न रहना, खोल से बाहर न आना संजय को खल गया। शायद इस लिए कि सचमुच ही दूसरी प्रस्तुति ढीली थी, उस के लिए ठीक-ठीक तय कर पाना मुश्किल था। पर यह तो तय था कि इस के पहले वाली कहानी की प्रस्तुति काफी सशक्त थी। हालां कि दोनों कहानियां भुवनेश्वर की ही थीं। फिर भी पहली कहानी का कथ्य और प्रस्तुति दोनों ही कसे हुए थे। अभिनय की आंच भी पुरजोर थी। हालां कि कहानी के नायक का किरदार निभाने वाला लगातार तो नहीं पर लगभग हर तीसरे संवाद में मनोहर सिंह ‘‘बन’’ जाता था। आंगिक में कम पर वाचन में तो समूचा ही। मनोहर सिंह उस पर पूरी तरह हावी थे। हालां कि पूरे नाटक में उस के प्रिय कवि-लेखक की बेटी हेमा जो नायिका की भूमिका निभा रही थी, सब पर भारी थी। कहानी थी ही स्त्री-पुरुष संबंधों की सुलगन, थकन और जेहन के जद्दोजहद की। पर हेमा का अभिनय जिस तरह देह के द्वंद्व और मन के अंतर्द्वंद्व को परोस रहा था वह अप्रतिम था, अद्वितीय था।
यह कहानी जब ख़त्म हुई तो मध्यांतर में संजय भागा-भागा मंच के पीछे चला गया देवेंद्र की तलाश में। पर देवेंद्र के बजाय वह ‘‘मनोहर सिंह’’ मिल गया। तो संजय आदत के मुताबिक उस से लगभग पूछते हुए बोला, ‘‘अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?’’
‘‘बिलकुल !’’ वह बोला।
‘‘आप सचमुच बुरा मत मानिएगा,’’ दुहराते हुए संजय बोला, ‘‘आप को नहीं लगता कि मनोहर सिंह आप में बुरी तरह तरह गूंजते हैं ?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘हो सकता है नहीं, है। और मैं समझता हूं कम से कम सत्तर प्रतिशत।’’
‘‘हां, पहले भी कुछ लोगों ने ऐसा कहा है। पर मैं इसे गुड सेंस में मानता हूं। अगर ऐसा है।’’ उस ने कंधे उचकाए ‘‘क्रेडिट है !’’
‘‘आप का शुभ नाम जानूं ?’’
‘‘हां, वागीश।’’
‘‘ओह तो आप हेमा के पति हैं।’’ झिझकते हुए संजय बोला, ‘‘और जाहिर है एनएसडियन भी होंगे ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो रेपेट्री में भी रहे होंगे ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तभी मनोहर सिंह आप में गूंजते हैं।’’
‘‘हां, वह मेरे मॉडल हैं। उन के साथ रेपेट्री में सात-आठ साल काम किया है।’’
‘‘कब थे रेपेट्री में आप ?’’
‘‘अस्सी इक्यासी से।’’
‘‘तब तो मैं भी दिल्ली में था,’’ संजय चहकते हुए बोला, ‘‘और तभी मनोहर सिंह को गिरीश कर्नाड के ‘‘तुगलक’’ में अल्काजी के निर्देशन में देखा था। इस के पहले उन के बारे में सुनता ही था। हां, ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म में भी देखा था। पर मिला ‘‘तुगलक’’ में ही था। सुरेका सीकरी भी थीं।’’
‘‘रेपेट्री का कोई और प्रोडक्शन नहीं देखा आप ने ?’’
‘‘नहीं, देखा तो था।’’ संजय बोला, ‘‘घासीराम कोतवाल देखा।’’
‘‘पर घासीराम कोतवाल तो रेपेट्री ने तब किया ही नहीं।’’
‘‘नहीं भाई, मेघदूत में देखा था। मुझे अच्छी तरह याद है। डॉ॰ लक्ष्मीनारायण लाल के साथ देखा था।’’
‘‘ऊ-हूं।’’ वागीश ने सिर हिलाया।
‘‘हां, हां आप ठीक कह रहे हैं। एन॰ एस॰ डी॰ सेकेंडियर वालों ने किया था।’’
बात लंबी खिंच गई थी। और संजय देवेंद्र से मिलने को आतुर था। आगे बढ़ा तो हेमा आती दिखी। उस के चाचा विजय ने मिलवाया, ‘‘ये संजय हैं। पहले हमारे ही अख़बार में थे। दिल्ली में भी थे। तुम जानती होगी।’’ सुन कर हेमा अचकचाई तो संजय ने याद दिलाया, ‘‘जब आप एन॰ एस॰ डी॰ में पढ़ती थीं। हास्टल में विभा आप के बगल में रहती थी। वानी इरफाना शरद, उपेंद्र सूद वगैरह थे। तो मैं आता था….’’ बात बीच में ही काटते हुए हेमा बोली, ‘‘हां, हां याद आया।’’ जाने उसे सचमुच याद आ गया था कि याद आने का अभिनय कर रही थी। संजय को लगा जैसे अभिनय कर रही थी। आखि़र दस-बारह बरस बीत गए थे, तब से अब में। संजय अब थोड़ा सा मुटा भी गया था। और फिर उसे याद आया कि जब वह एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर लिखने के सिलसिले में गया तो वहां के बारे में संजय लिखे हेमा नहीं चाहती थी। उस ने कभी स्पष्ट रूप से तो यह नहीं कहा पर उस के हाव भाव से संजय को ऐसा ही लगा था। फिर तब हेमा अभिनय सीख-पढ़ रही थी, पक्की नहीं थी, सो तब संजय को उस की मंशा जानने में दिक्कत नहीं हुई।
हेमा क्यों नहीं चाहती थी कि संजय एन॰ एस॰ डी॰ के बारे में लिखे ? एन॰ एस॰ डी॰ मतलब दिल्ली का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा।
कारण दो थे।
एक तो शायद यह कि जिस पत्रिका के लिए संजय एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर तैयार कर रहा था, उस पत्रिका के संपादक पद से उस के पिता जल्दी ही हटाए गए थे और अब जो संपादक थे उस के पिता को वह भाते नहीं थे। दूसरे यह कि एन॰ एस॰ डी॰ में उन दिनों अराजकता पनपने लगी थी। दूर-दराज से रंगकर्म पढ़ने आने वाले छात्र आत्महत्या पर आमादा हो गए थे।
क्यों कर रहे थे आत्महत्या ?
संजय इस पर ख़ास तौर से फोकस करना चाहता था। इस फोकस करने के बाबत उस ने कुछ एनएसडियनों से दोस्ती गांठी। इस दोस्ती के बहाने धीरे-धीरे मंडी हाउस का कीड़ा उस में बैठने लगा।
हालां कि अंततः मंडी हाउस का कीड़ा वह फिर भी नहीं बन पाया। बावजूद तमाम कोशिशों और चाहत के।
तो सवाल यह था कि एनएसडियन आत्महत्या क्यों कर रहे थे ? देश की तमाम समस्याओं के मद्देनजर यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। पर तब जाने क्या था कि संजय इस समस्या को ले कर लगभग झूल गया था।
कि आज उसे सोच कर अपने इस बचपने पर हंसी आती है।
सचमुच संजय के लिए वो दिन मंडी हाउस ओढ़ने बिछाने के दिन थे। और वह मंडी हाउस ही ओढ़ने बिछाने लगा। ‘‘लंच’’ और ‘‘डिनर’’ भी वह एनएसडियनों के साथ करने लगा। दो तीन ‘‘जोड़ों’’ के बीच अकेला घसीटता हुआ वह बंगाली मार्केट घूमने लगा। एनएसडियनों की कैंटीन साधते-साधते वह लड़कियों के हास्टल में भी घुस गया तो उसे लगा कि अब पहली बाजी वह मार ले गया। लड़कियों के हास्टल में घुसना जैसा कि संजय समझता था मुश्किल होगा, सचमुच जरा भी मुश्किल नहीं था। क्यों कि एन॰ एस॰ डी॰ का ‘‘कल्ट’’ ही कुछ ऐसा था कि कोई बिना ‘‘जोड़े’’ के रह ही नहीं सकता था। एकाध जो बिना जोड़े के थे वह या तो ‘‘क्रेक’’ डिक्लेयर हो जाते थे या अछूतों सा बरताव होता था उन के साथ। तो विवशता कहिए या अराजकता, चाहे लड़का हो या लड़की, जोड़ा बनाना ही पड़ता था। बिना जोड़े के गुजारा ही नहीं था एन॰ एस॰ डी॰ में।
यह देख और महसूस कर बहुत अच्छा लगा संजय को। तब संजय भी इत्तफाक से कुंवारा था। पर इस मामले में जरा संकोची था।
और वह आज भी पछताता है कि क्यों था संकोची तब ?
वह सचमुच संकोची था और थोड़ा बेशऊर भी। लड़कियों को देखने का सलीका तो उसे आ गया पर उन्हें ‘‘कनविंस’’ करने का न तो उसे शऊर था, न समय था, न ही साथ-साथ लगे रहने का बेहयाई वाला माद्दा। और यह लड़कियां ? चाहे कहीं की हों, कोई हों दो चीज तो मांगती ही मांगती हैं। एक तो समय, दूसरे बेहयाई। तीसरे, फूंकने को भरपूर पैसा भी हो तो क्या बात है। यह ध्रुव सत्य है। चाहे जितनी क्रांति हो जाए, मूल्य बदल जाएं, समय और इतिहास बदल जाएं पर यह सत्य नहीं बदलने वाला। ‘‘ध्रुव सत्य’’ जो ठहरा !
तो संजय को दो क्या इन तीनों सत्य के सांचे की सोच से भी घिन आती थी। कि, ‘‘पटती है लड़की, पटाने वाला चाहिए’’ वाला चलन उसे नहीं सुहाता था। बल्कि वह तो मेंटल हारमनी तलाशता था।
वह आज भी तलाशता है।
वह मानता था कि कम से कम बंगाली मार्केट में घूमने वाली लड़कियां, मंडी हाउस के ‘‘कल्ट’’ में समाई लड़कियां, और नहीं तो कम से कम रंगकर्म पढ़ने वाली एन॰ एस॰ डी॰ की लड़कियां तो इस मेंटल हारमनी को समझती ही होंगी। और ‘‘उसे’’ भी।
दिल्ली नया-नया गया था न ! पर काफी तलाश के बाद भी संजय को ऐसी कोई लड़की जब नहीं मिली, मतलब जब किसी भी लड़की ने उसे अपने को ‘‘आफर’’ नहीं किया तो वह जैसे नींद से जागा। वह समझ गया कि सेंट से महकती, मंडी हाउस में इतराती हाथ में हाथ डाले, पुरुष देह से लगभग चिपट कर चलती-बैठती लड़कियां उस की कुंडली में नहीं लिखी हैं। पर इसी बीच एक दिन विभा मिली। तब तक उस का ‘‘जोड़ा’’ नहीं बन पाया था। वह तो बहुत बाद में पता चला कि वह बिछड़ी हुई कबूतरी थी। विभा को तो अब तक शायद संजय की याद भी नहीं होगी। देखे, तो भी शायद न पहचाने। आखि़र हेमा ने भी तो नहीं पहचाना था। हो सकता है संजय भी अब विभा को न पहचाने। हो सकता है क्या बिलकुल हो सकता है। खै़र ! तो विभा उन दिनों अकेली ही घूमा करती थी। लखनऊ से गई थी। लखनऊ में वह कई नाटक कर चुकी थी। साथ ही भारतेंदु नाट्य अकादमी की डिग्री भी। संजय जब उसे पहली बार हास्टल में मिला तो वह बड़ी उदास सी थी। और कहीं जा रही थी। वह हास्टल के बूढ़े चौकीदार को बड़ी आत्मीयता से अपने कमरे की देख-रेख की जिम्मेदारी डाल रही थी। हालां कि कमरे में उस की रूम मेट सोई हुई थी। फिर भी विभा चौकीदार से कह रही थी, ‘‘आप तो इस की लापरवाही जानते ही हैं।’’
‘‘हां बिटिया। पर तुम निश्चिंत रहो।’’ कहते हुए चौकीदार ने तसल्ली दी।
विभा लखनऊ की थी मतलब यू॰ पी॰ की। और संजय को तब दिल्ली में यू॰ पी॰ के नाम पर मेरठ, हापुड़ का भी कोई मिल जाता था तो उस से अनायास आत्मीयता सी हो जाती थी। इस आत्मीयता में कई बार उसे दिक्कतें भी पेश आईं पर वह इस से कभी उबर नहीं पाया। हालां कि कई बार ऐसा भी होता था कि अगला आदमी उसे वही आत्मीयता नहीं भी परोसता तो भी संजय से वह आत्मीयता का राग नहीं छूटता। वह आलापता ही रहता। चाहे वह ब्यूरोक्रेट हो, पॉलिटिशियन, रिक्शेवाला, मजदूर या किसी भी तबके का। एक बार उस ने अपनी इस कमजोरी का हवाला अपने एक जरमनी पलट पत्रकार मित्रा को दिया जो मध्य प्रदेश के थे तो वह बोले, ‘‘आप यह कह रहे हैं। अभी आप हिंदुस्तान से कहीं बाहर चले जाइए तो जो दिल्ली में जिस बदकती पंजाबियत या खदबदाती हरियाणवी से आप चिढ़ते रहते हैं, वही वहां भली लगेगी। और जो यह लुंगी उठाए मद्रासी यहां कार्टून जान पड़ते हैं वहां बिलकुल अपने हो जाते हैं। यहां तक कि पाकिस्तानी भी वहां सगे हो जाते हैं। बल्कि कहूं कि समूचे एशियाई अपने हो जाते हैं।
फिर संजय जब इस के संक्षिप्त ब्योरे में उतर गया कि कैसे जब वह गांव से शहर में आया और उसे अपनी तहसील का जो कोई मिल जाता था तो अपना सा लगता था। और जो गांव जवार का जो कोई मिल जाए तो क्या कहने। और ऐसे ही जब वह अपने शहर से दिल्ली आया तो जिस मेरठ की बोली से वह यू॰ पी॰ में चिढ़ता था, दिल्ली में यू॰ पी॰ के नाम पर वह भी अच्छे लगने लगे। और जो कोई पूर्वांचल मतलब पूर्वी उत्तर प्रदेश का हो तो फिर तो वह उस के गले ही पड़ जाता। पूछने लग जाता कि, ‘‘भोजपुरी बोलते हैं कि नहीं ?’’ और फिर, ‘‘कहां घर है ? का करीले ? कब से बाड़ीं इहां ?’’ जैसे सवालों का सिलसिला थमता ही नहीं था। पर ज्यादातर लोग भोजपुरी न बोल पाने का स्वांग करते तो संजय उन्हें धिक्कारता। ख़ूब धिक्कारता। तो उन में से कुछ तो भोजपुरी पर उतर आते पर जो फिर भी ढिठाई करते, ‘‘का बताएं प्रैक्टिस नहीं रहा। समझ लेते हैं बोल नहीं पाते।’’ जैसे जुमले उछालते, संजय उन्हें ‘‘शर्म शर्म,’’ सरीखी कुछ और खुराकें खिलाता और कहता, ‘‘सिंधियों को देखो, सिंध छोड़ दिया पर सिंधी नहीं छोड़ी। और ये दो दिन से दिल्ली क्या आ गए अपनी बोली भूल गए। कल थोड़ी और तरक्की कर लेंगे तो अपनी मां को भी भूल जाएंगे। क्या तो वह अनपढ़ गंवार है, फिगर ठीक नहीं है। और परसों जो विदेश चले गए तो अपना देश भूल जाएंगे। क्या तो पिछड़ा है।’’ वगैरह-वगैरह जब संजय सुनाता तो ज्यादातर भोजपुरी क्षेत्र से आए लोग और बिदक जाते और उस से कतराते रहते। पर संजय को कोई फर्क नहीं पड़ता था।
वह तो चालू रहता।
पर विभा के साथ संजय भोजपुरी पर चालू नहीं हुआ। हां, इतना एहतियात के तौर पर जरूर कर लिया कि विभा से उस का जिला पूछ लिया। और जब उस ने लखनऊ और लखनऊ बता कर पिंड छुड़ाना चाहा तो संजय उस के पीछे पड़ा भी नहीं। उसे जाने दिया। और तभी हेमा अशोक के साथ आती दिखी। कंधे पर झोला लटकाए। संजय ने यहां और समय ख़राब करने के बजाय हेमा से औपचारिकतावश हालचाल पूछ चलता बना। बाहर आ कर उस ने देखा, विभा आटो रोकने के चक्कर में पड़ी थी। पर उस ने उधर ध्यान देने के बजाय सोचा कि क्यों न बंगाली मार्केट चल कर मिठाई खाए। फिर उस ने सोचा कि उधर से ही अजय-अलका के घर भी हो लेगा। फिर जाने क्या हुआ कि वह अचानक बस स्टॉप की ओर मुड़ गया। पर यह सोचना अभी बाकी था कि वह कहां जाए। आई॰ टी॰ ओ॰, कनॉट प्लेस कि प्रेस क्लब ? पर तब तक उसे शास्त्री भवन की ओर जाने वाली बस दिख गई और वह दौड़ा, फिर लटक कर चढ़ गया। और सोचा कि प्रेस क्लब चल कर पहले बियर पिएगा फिर कुछ खा कर थोड़ा उठंगेगा। फिर जो टाइम मिलेगा तो वापसी में अजय-अलका के घर। इस तरह मिठाई मुल्तवी होते हुए भी मुल्तवी नहीं हुई थी।
तो क्या यह विभा का नशा था ? कि बीयर पीने का सुरूर ? वह कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। पर वह यह अब तक जान गया था कि आज अजय-अलका के यहां जाना जरूर पड़ेगा।
बेचारा अजय !
एन॰ एस॰ डी॰ में जब उस ने दाखि़ला लिया तो घर में चौतरफा विरोध हुआ। वह नाटकों में एक्टिंग पहले भी करता था और तब घर वालों को ऐतराज तो था पर विरोध जैसा विरोध नहीं। लेकिन जब एन॰ एस॰ डी॰ में दाखि़ला लेने चला तो घर में जैसे कुहराम मच गया। पर अजय तो जैसे लंगोट बांध कर तैयार था। एक अजीब सा रोमेंटिसिज्म उस के सिर पर सवार था। और उस ने एन॰ एस॰ डी॰ में दाखि़ला आखि़रकार ले लिया। यह वह दिन थे जब एनएसडियनों के पंख जहां तहां उड़ और पसर रहे थे। तब यह ढेर सारे टी॰ वी॰ चैनल नहीं थे। फिर दूरदर्शन के डैने भी बड़े छोटे थे और फिल्मों में ओम शिवपुरी तक झण्डा गाड़ रहे थे। यह समानांतर फिल्मों के दिन थे। नसीर, राजबब्बर, कुलभूषण, रंजीत, रैना को एनएसडियन अजीब उत्साह से उच्चारते हुए अपने को भी उन्हीं के साथ पाते थे। पर सचमुच सभी के भाग्य में तो वह रूपहला परदा पैबंद बन कर ही सही नहीं लिखा था।
अजय के भाग्य में भी नहीं लिखा था।
अजय जब एन॰ एस॰ डी॰ आया था तो यह सोच कर कि वह अभिनय के नए प्रतिमान गढ़ेगा, तहलका मचा देगा। पर जब दूसरे साल उसे क्राफ्ट में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए चुना गया तो वह अवाक रह गया। बहुत हाथ पांव मारने पर उसे निर्देशन में डाला गया। पर वह हार मानने वाला नहीं था, निदेशक को उस ने कनविंस किया। वह मान गए और वह अनिभय में फिर आ गया। पर बाद में उसे क्या लगा, उस के बैच मेट से ले कर लेक्चरर्स तक यह एहसास कराने लगे कि एक्टिंग के जर्म्स उस में हैं ही नहीं। वह बेकार ही वक्त जाया कर रहा है।
अजय का पहला सपना यहीं टूटा।
अजय ने उन दिनों पहली बार दाढ़ी बढ़ानी शुरू की। दाढ़ी बढ़ा लेने से एक बात यह हुई कि लोग कहने लगे कि अजय के मुखाभिनय में भारी फर्क आ गया है। अब वही लोग जो कहते थे कि अभिनय अजय के बूते की बात नहीं वही लोग अब कहने लग गए कि अजय नसीर की नकल करता है। पर बकौल अजय वह नसीर की नकल नहीं करता था। उस के मुखाभिनय में कोई फर्क भी नहीं आया था। अभिनय की वही रेखाएं वह अब भी गढ़ता था। फर्क बस यही था कि उस के चेहरे पर दाढ़ी जम गई थी। दाढ़ी शायद उस का नया सपना था। उन्हीं दिनों मोहन राकेश के आषाढ़ का एक दिन में जब अजय ने क्राफ्ट और अभिनय दोनों ही जिम्मेदारी एक साथ निभाई तो निर्देशक फ्रिट्ज वेनविट्ज ने उसे गले लगा लिया। फिर तो वह उन का प्रिय हो गया। इतना कि उसे लगने लगा कि उस को अभिनेता नहीं निर्देशक ही होना चाहिए। अजय की उधेड़बुन बढ़ती जा रही थी। वह ठीक-ठीक तय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या बने अभिनेता कि निर्देशक ? कि क्राफ्ट्स में ही वापस हो ले। हालां कि अब कुछ भी संभव नहीं था। यही वह दिन थे जब वह चरस भी पीने लगा था।
क्या उधेड़बुन से बचने के लिए ?
एक रोज एन॰ एस॰ डी॰ के सामने वाले लॉन में बैठा वह सुट्टा लगा रहा था कि अचानक कथक केंद्र के भीतर से एक लड़की के जोर-जोर से बोलने की आवाज सुनाई दी। पर यह आवाज रह-रह कर रुक जाती थी या कि आते-आते ठहर जाती थी। चरस अभी उस पर असर नहीं कर पाई थी या कि शायद असर अभी आधा अधूरा था चरस का, उसे ठीक-ठीक याद नहीं। पर वह एकाएक उठ पड़ा और लगभग दौड़ते हुए कथक केंद्र में घुस गया। उस लड़की की आवाज में अजीब-सी कातरता और विवशता समाई हुई थी कि अजय अचानक हिंसक हो उठा। कथक केंद्र के महाराज जी को उस ने मारा तो नहीं पर जोर से धक्का दिया और वह फर्श पर गिर पड़े। जांघिया पहने महाराज मुंह के बल फर्श पर ऐसे गिरे थे कि मुंह से खून गिरने लगा। इस तरह महाराज जी के भुजपाश से वह लड़की छिटक कर दीवार से ऐसे जा भिंड़ी कि उस की रूलाई उसके घुंघरुओं की झंकार में झनझना कर रह गई। उस की आंख से आंसू ऐसे लुढ़के कि अजय को बेगम अख़्तर की गायकी याद आ गई, ‘‘रस की बूंदें पड़ें।’’ हालां कि यह गायकी यहां मौजू नहीं थी। पर उसे सूझा यही।
यह अलका थी।
हुआ यह था कि अलका का कथक केंद्र में पहला साल था सो महाराज जी उस पर कुछ ज्यादा कृपालु हो गए। उन को उस में अप्रतिम प्रतिभा दिखाई देने लगी। सो उसे उन्हों ने अपने शिष्यत्व में रख लिया। शिष्या तो अलका बन गई पर महाराज जी की ‘‘सेवा’’ करने में वह आनाकानी करने लगी। और महाराज की अदा यह थी कि बिना ‘‘सेवा’’ कराए वह सिखाते नहीं थे। ‘‘सेवा’ और ‘‘सीखने’’ में जो अंतर्द्वंद्व चला तो वह खिंचता ही गया। अक्सर महाराज जी उसे शाम को अकेले बुलाते कुछ ख़ास सिखाने के लिए। पर छोटे शहर की अलका पहुंचती तो किसी न किसी सहेली को ले कर। महाराज जी जो कथक नृत्य के पुरोधा थे, कई-कई पुरस्कारों, प्रशस्तियों से विभूषित थे, उन के ‘‘आशीर्वाद’’ के बिना कथक में किसी को ‘‘एंट्री’’ नहीं मिलती थी, कोई कलाकार नहीं बन सकता था और कम से कम उन के कथक केंद्र की डिग्री तो नहीं पा सकता था। उन्हीं महाराज जी की आंखों में कौंध गई थी वह अलका नाम की कन्या। और ऐसा कभी हुआ नहीं कि कथक केंद्र की कन्या उन की आंखों में समाए तो उन की बांहों में समाए बिना, जांघों पर बैठे बिना रह जाए। तो जो कन्या उन की आंखों को कौंधती थी, उन की नसों में उमंग भरती थी, उन की आहों में रमती थी उसे वह ‘‘शिष्या’’ बनाने की जिज्ञासा बड़े ही शाकाहारी ढंग से प्रगट करते थे। और भला किस कन्या में यह हसरत न हो, इतने बड़े गुरु महाराज की शिष्या बनने की उस में चाह न हो ? तो वह उसे अकेले बुलाते। पहले पैर दबवाते, पैर दबवाते-दबवाते कन्या का हाथ दबाते। यह दूसरा चरण था। तीसरे चरण में वह कन्या का हाथ अपनी जंघाओं के बीच धीरे से खींचते। और कन्या जो कुछ संकोच खाती तो उसे बड़े मनुहार से नृत्य की चकमक और जगमग दुनिया से नहलाते। ज्यादातर कन्याएं नहा जातीं और जो नहाने में अफनातीं तो उन्हें वह गंडा बांधने की तजबीज देते तो कुछ गंडे की गंध में आ जातीं और बिछ जातीं गुरु महाराज की ‘‘सेवा’’ में। कुछ फिर भी महाराज जी को अपने को अर्पित करने के बजाय अपना चप्पल या थप्पड़ अर्पित कर देती थीं।
अलका उन थोड़ी-सी कुछ कन्याओं में से ही एक थी।
अलका को जब महाराज जी ने शुरू में अकेले आने का आमंत्रण दिया तो पहले तो वह टाल गई। पर आमंत्रण का दबाव जब ज्यादा बढ़ गया तो उसे जाना ही पड़ा। पर गई वह सहेली के साथ। और जब भी कभी गई तो सहेली के साथ। सहेली के सामने ही उस ने महाराज जी के पैर दबाए पर थोड़ी झिझक के साथ। हफ्ते भर उस की झिझक और अपनी हिचक के साथ लड़ते रहे महाराज जी। अलका की सहेली उन को खटकती रही। तो एक दिन उन्हों ने उस की सहेली को बड़ी बेरूखी कहिए, बदतमीजी कहिए के साथ उसे लगभग अपमानित करते हुए टरका दिया। अलका तब बाथरूम गई हुई थी। और जाहिर है कि नहाने नहीं गई थी। क्यों कि उसे तो महाराज जी नहलाने वाले थे।
दूसरे दिन अलका के साथ उस की सहेली नहीं आई। अलका को अकेली आना पड़ा। महाराज जी को राहत मिली। और पैर दबवाते-दबवाते उन्हों ने अलका का हाथ दबा दिया। हौले से। अलका इसे अनायास ही मान कर महाराज जी के पैर दबाते हुए शिष्या धर्म निभा ही रही थी कि उन्हों ने फिर उस का हाथ दबाया। और भरपूर दबाया। अलका कुछ झिझकी। पर पैर दबाती रही। महाराज जी सोफे पर बड़ी-सी जांघिया पहने बैठे थे। उस ने गौर किया कि महाराज की जांघिया आज कुछ ज्यादा ही ऊपर खिसकी हुई है। वह थोड़ा-सा घबराई। और इसी घबराहट में उस ने महाराज जी की उंगलियां पुटकानी शुरू कर दी। पर महाराज जी ने ‘‘ऊं-हूं’’ कहते हुए उस का हाथ ऊपर खींच लिया। बिलकुल निर्विकार भाव से। वह फिर से पांव दबाने लगी। बाहर शाम का अंधेरा गहरा हो चला था। अलका का मन थरथराने लगा था। कि तभी महाराज जी ने फिर उस का हाथ हौले से ऊपर खींचा। पर बिलकुल अनमनस्क ढंग से। वह महाराज जी का अर्थ अब समझ गई। क्यों कि महाराज जी उस का हाथ अपने पुरुष अंग की ओर खींचने की अनायास नहीं सायास कोशिश कर रहे थे। पर चेहरे की मुद्रा अनायास वाली ही थी। और अलका गुरु जी के भारी व्यक्तित्व के वशीभूत विरोध के बजाय संकोच बरत रही थी। और फिर वह सोच रही थी कि अगर उस ने विरोध किया तो बदनामी उसी की होगी। वह लड़की जात ठहरी। महाराज जी का क्या ? फिर उसे अचानक एक जासूसी किताब की याद आ गई। मोहनलाल भास्कर की संस्मरणात्मक जासूसी किताब ‘‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था।’’ इस किताब में अलका ने यों तो कई रोचक किस्से पढ़े थे। पर इस समय उसे एक किस्सा तुरंत याद आ रहा था। पाकिस्तान के उस शहर का तो नाम याद नहीं आ रहा था अलका को। पर वह किस्सा मुख़्तसर यह था कि पाकिस्तान के किसी शहर में एक मौलवी साहब थे। झाड़ फूंक करते थे औरतों की अकेले में। किसिम-किसिम की औरतें उन की शरण में पहुंचती थीं। मौलाना का जब किसी सुंदर स्त्री पर दिल आ जाता था तो झाड़ फूंक करते वह लगभग डांटते हुए बोलते थे, ‘‘नाड़ा खोल !’’ ज्यादातर औरतें मौलवी की डपट में आ कर अपना नाड़ा खोल बैठती थीं। और मौलवी साहब का काम आसान हो जाता था। औरतें बदनामी के डर से मौलवी के खि़लाफ जबान नहीं खोलती थीं। पर जब एकाध औरतें मौलवी की डपट ‘‘नाड़ा खोल !’’ पर ऐतराज करती हुई उन्हें भला-बुरा कहने पर आतीं तो मौलवी फौरन अपना पैतरा बदल लेते। कहते ‘‘कमबख़्त औरत ! नीयत तेरी ख़राब और इल्जाम हम पर लगाती है।’’ और वह वहीं दीवार पर लगी एक खूंटी दिखाते जिस में एक नाड़ा बंधा रहता तो मौलवी साहब गरजते, ‘‘मैं तो उस खूंटी पर बंधे नाड़े को खोलने को कह रहा था। और तू कमबख़्त बदजात औरत मुझ पर तोहमत लगाने लग पड़ी। भाग कमबख़्त तेरा इलाज अब अल्ला पाक के कर्म से हम नहीं कर सकते।’’ बेचारी मौलवी की मारी औरत पलट कर मौलवी के पैरों में गिर-गिर कर गिड़गिड़ाने लगती।
‘‘उफ् !’’ अलका महाराज जी द्वारा बार-बार हाथ दबाने और रह-रह कर खींचते रहने से बुदबुदाई। उसे लगा बाहर से भी कहीं ज्यादा अंधेरा उस कमरे में घिर आया है। और उस के मन में तो पूरी तरह घुप्प अंधेरा पसर गया। वह सोचती जा रही थी कि कैसे महाराज जी से पिंड छुड़ाए। कि तब तक महाराज जी ने उस का हाथ पूरी शक्ति से खींच कर जहां चाहते थे जांघों के बीच रख दिया। और पैरों से उस के नितबों को कुरेदा। अलका पूरी तरह अफनाई हुई खड़ी हुई कि पास के स्विच से लाइट जला दे। वह उठी। उठी ही थी कि महाराज जी जैसे किसी शिकारी की तरह उसे खींच कर बांहों में भींचने लगे। उन की गोद में बैठे-बैठे ही उन की सारी आन-मान भुला कर अलका ने खींच कर उन्हें एक थप्पड़ मारा और उन से छिटक कर अलग होती हुई लपक कर लाइट जला दी।
महाराज जी की कनपटी लाल हो गई थी। पर वह जैसे हार मानने वाले नहीं थे। लगभग नृत्य मुद्रा में उन्हों ने फिर से अलका को पीछे से दबोच लिया। लाइट की परवाह नहीं की। यह भी नहीं सोचा कि खिड़कियां, दरवाजे सब खुले हैं। अपनी आन-मान और उम्र का भी ख़याल वह भूल बैठे। जैसे सुध-बुध खो गई थी उन की।
पर अलका गरजी। उन को धिक्कारा। चीख़-चीख़ कर धिक्कारा। शर्म-हया और उम्र का पाठ पढ़ाते हुए अलका ने उन्हें फिर धकियाया। पर महाराज जी जैसे शिष्या से कुछ सीखने सुनने को तैयार नहीं थे। वह तो बस अपना ही पाठ पढ़ाने की उतावली में अलका नामधारी कन्या को काबू करते हुए नृत्य की दूसरी मुद्रा धारण कर उसे फिर दबोच बैठे। अलका फिर चीख़ी। वह चिल्लाई, ‘‘दुष्ट पापी, अधम कुत्ते, हरामी !’’ आदि जितने भी तरह के शब्द उस की जबान की डिक्शनरी में समा पाए वह उच्चारती रही और चिल्लाती रही। पर महाराज जी हर ‘‘अलंकार’’ सहज भाव से स्वीकार-स्वीकार, बार-बार नृत्य मुद्राएं बदल लेते थे। अद्भुत था उन का यह नर्तन जो अलका के अशिष्ट वाचन के बावजूद सहज रूप से जारी था। जब उन्हें अचानक अजय ने ढकेला तो भी वह अलका को लगभग दबोचे, बाहुपाश में लिए किसी नृत्य मुद्रा में ही थे।
खै़र, अजय अलका को ले कर बाहर आया। बाहर आ कर अलका ने अपने घुंघरू उतारे। और दूसरे दिन उस ने कथक नृत्य को तो नहीं पर कथक केंद्र को अलविदा कहने की सोची। अजय को उस ने रोते-रोते यह बात बताई। जो अजय को भी नहीं भाई।
अजय ने उसे ढांढस बंधाया और कहा कि महाराज कोई ठेकेदार तो नहीं है कथक नृत्य का। और यह कथक केंद्र उस के बाप का नहीं है। फिर भी अलका तीन दिन तक नहीं गई कथक पढ़ने-सीखने। कमरे ही में गुमसुम पड़ी लेटी रहती। चौथे दिन सुबह-सुबह अजय उस से हास्टल में मिलने आया। उस ने फिर हौंसला बंधाया। अलका कथक केंद्र जाने लगी। कथक केंद्र क्या जाने लगी, अजय से भेंट बढ़ने-बढ़ाने लगी।
यह एन॰ एस॰ डी॰ में शायद पहली बार हो रहा था कि कोई लड़का एन॰ एस॰ डी॰ में इतर लड़की के साथ जोड़ा बनाकर घूम रहा था। नहीं ऐसे तो कुछ मामले जरूर थे जिन में एन॰ एस॰ डी॰ के बाहर के नाम पर एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री के साथ ख़ास कर किसी लड़की ने जोड़ा एडाप्ट किया हो। पर इस से इतर कहीं और नहीं।
अजय को इधर एन॰ एस॰ डी॰ में और उधर अलका को कथक केंद्र में यह आपत्ति एक नहीं कई बार मजाक-मजाक में झेलनी पड़ी। पर शायद लोकेंद्र, हां लोकेंद्र त्रिवेदी ही नाम था उस लड़के का। उस ने एक दिन अचानक ही यह आपत्ति ख़ारिज कर दी कि, ‘‘एन॰ एस॰ डी॰ से बाहर अजय ने पेंग जरूर मारी है पर है कैम्पस के भीतर ही। यानी बहावलपुर हाउस के भीतर सो अबजेश्क्शन ओवर रूल।’’ कहते हुए उस ने दियासलाई की डब्बी कैरम की गौटी की तरह ऐसे उछाली कि वह गिलास में घुस गई। यह खेल उन दिनों एनएसडियनों के बीच आम था।
अलका-अजय अब दो जिस्म और एक जान थे। इत्तफाक से दोनों यू॰ पी॰ के थे। तो यह लगाव भी काम आया। पर दोनों विजातीय थे। सो दोनों ने अचानक जब शादी की ठान ली तो जाहिर है कि दोनों के परिवार वालों ने विरोध किया। पर विरोध को भाड़ में डाल कर शादी कर डाली उन्हों ने। अलका-अजय से अब वह अजय-अलका हो गए थे। अब तक अजय एन॰ एस॰ डी॰ से एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री आ गया था। अलका ने कथक केंद्र बीच में ही छोड़ दिया। जाहिर है कि महाराज जी ही अंततः कारण बने। पर अलका को कभी इस का पछतावा नहीं हुआ। बल्कि कभी-कभी तो वह इस घटना को अपने लिए शुभ भी मानती। कहती, ‘‘नहीं अजय कैसे मिलते !’’
संजय जब अजय-अलका से मिला तब तक अजय एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री भी छोड़-छाड़ बिजनेस के जुगाड़ में लग गया था। एक लैंब्रेटा स्कूटर सेकेंड हैंड ले कर उसी पर दौड़ता रहता था। नाटक-वाटक उस के लिए अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। एन॰ एस॰ डी॰ की डिग्री उसे बेमानी जान पड़ती। और अंततः अलका ही की तरह वह भी एन॰ एस॰ डी॰ और नाटक को ‘‘यों ही’’ मानने के बावजूद महत्वपूर्ण इस लिए मानता था कि इसी वजह से उसे अलका मिली थी।
अलका-अजय ने, ओह सारी, अजय-अलका ने शादी भले ही पारिवारिक विरोध के बावजूद की थी। पर अब दोनों परिवारों की स्वीकृति की मुहर भी लग गई थी और दोनों पक्षों का बाकायदा आना-जाना शुरू हो गया था। अजय को बिजनेस के लिए उस के पिता ने ही उकसाया था और कुछ रुपए भी इस ख़ातिर उसे दिए थे।
एक रोज संजय अचानक ही अजय-अलका के घर पहुंचा तो दोनों कहीं गए हुए थे । पर उसी समय अजय के पिता भी पहुंचे हुए थे। छूटते ही संजय से बोले, ‘‘तुम भी नाटक करते हो ?’’ उन के पूछने का ढंग कुछ अजीब-सा था। ऐसे जैसे वह पूछ रहे हों, ‘‘तुम भी चोरी करते हो ?’’
पर जब संजय ने लगभग उसी अंदाज में कि, ‘‘क्या तुम भी चोर हो ?’’ कहा कि, ‘‘नहीं।’’ और बड़ी कठोरता से दुहराया, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं।’’ तो उस के पिता थोड़ा सहज हुए और बताया कि वह अजय के पिता हैं। तो संजय ने उन्हें आदर और विनयपूर्वक नमस्कार किया।
वह बहुत खुश हुए।
फिर बात ही बात में जब उन्हों ने जाना कि संजय पत्रकार है तो वह कुछ अनमने से हुए और जब यह जाना कि वह नाटकों आदि की समीक्षाएं भी लिखता है तो फिर से संजय से उखड़ गए। जिस संजय के लिहाज और संस्कार की वह थोड़ी देर पहले तारीफ करते नहीं अघा रहे थे उसी संजय में उन्हें अब अवगुण ही अवगुण दिखने लगे थे। वह धारा प्रवाह चालू हो गए थे, ‘‘आजकल के छोकरों का दिमाग ही ख़राब है। काम-धंधा छोड़ कर नौटंकी में चले जाते हैं।’’ वह हांफने लगे थे, ‘‘और तुम पेपर वाले इन छोकरों का छोकरियों के साथ फोटू छाप-छाप, तारीफ छाप छूप कर और दिमाग ख़राब कर देते हो। जानते हो इस नौटंकी और अख़बार में छपी फोटू से कहीं जिंदगी की गाड़ी चलती है ?’’ वगैरह-वगैरह वह गालियों के संपुट के साथ बड़ी देर तक उच्चारते रहे थे। फिर जब वह थक कर चुप हो गए तो संजय उन से लगभग विनयपूर्वक आज्ञा मांगते हुए चला तो वह फिर फूट पड़े, ‘‘नौटंकी वालों के साथ रहते-रहते तुम को भी ऐक्टिंग आ गई है! मैं इतना भला बुरा तब से बके जा रहा हूं और तुम फिर भी चरण चांपू अंदाज में इजाजत मांग रहे हो।’’
‘‘नहीं मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा। और फिर आप बुजुर्ग हैं। अजय के पिता हैं। मैं ऐक्टिंग क्यों करूंगा। आती भी नहीं मुझे।’’ संजय बोला तो वह फिर सामान्य हो गए। बोले, ‘‘ऐक्टिंग नहीं आती तो ऐक्टरों के बारे में लिखना छोड़ दो। बहुतों का भला होगा।’’ संजय हंसते हुए चल पड़ा। फिर उस ने सोचा अजय रंगकर्म कैसे निबाहता है ?
और आज प्रेस क्लब जाते हुए अजय के पिता की यह बात सोच कर फिर हंसी आ रही थी कि ऐक्टिंग से छोकरे बरबाद होते हैं। फिर उस ने खुद सोचा क्या ऐक्टिंग से भी छोकरे बरबाद होते हैं ? बिलकुल पाकीजा फिल्म के उस संवाद की तर्ज पर कि ‘‘अफसोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं।’’ फिर अचानक उस ने सोचा कि ऐक्टिंग करने वाले छोकरे बरबाद होते हैं कि नहीं इस पर वह बाद में सोचेगा। फिलहाल तो उसे यह सोचना है कि ऐक्टिंग सीखने वाले छोकरे आत्महत्या क्यों करते हैं ? वह भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में। कभी पेड़ पर फांसी लगा कर, कभी छत के पंखे से फांसी लगा कर। तो कुछ नाखून ही उंगली से निकाल कर काम चला लेते हैं। और आत्महत्या पर विराम लगा देते हैं।
तो क्या यह एन॰ एस॰ डी॰ के डायरेक्टर पद से इब्राहिम अल्काजी के चले जाने का गैप था, या कारंत की निदेशकीय क्षमता का ह्रास था। या कि कारंत और अल्काजी के बारी-बारी चले जाने की छटपटाहट की आंच थी, अनुशासन की, प्रशासन की नपुंसकता की थाह लेते समय की चाल थी, या एनएसडियनों की टूटती महत्वाकांक्षाओं का विराम थीं ये आत्महत्याएं ? या नये निदेशकों की अक्षमताओं और अनुभवहीनता का नतीजा ?
कुछ ऐसा वैसा ही सोचते, सिगरेट फूंकते जब दूसरे दिन वह एन॰ एस॰ डी॰ की कैंटीन में पहुंचा तो विभा वह दियासलाई की डब्बी कैरम की गोटी की तरह उछाल कर गिलास में गोल करने वाला खेल खेलती हुई चाय पीती जा रही थी। आज वह खुश भी थी। उस ने संजय को विश भी किया और नमस्कार भी। बोली, ‘‘चाय पिएंगे ?’’
‘‘नहीं, मैं चाय नहीं पीता।’’
‘‘अजीब बात है सिगरेट पीते हैं और चाय नहीं !’’ और कंधे उचकाती हुई बोली, ‘‘कुछ और मंगाऊं क्या ?’’
‘‘नो थैंक्यू। शाम को कभी।’’
‘‘तो वह शाम कभी नहीं आने वाली।’’ कहती हुई वह इतराई और उठ खड़ी हुई। संजय ने टोका तो वह बोली, ‘‘डायलाग्स याद करने हैं और रूम रिहर्सल भी।’’
संजय आज विभा का खुश मूड देखते हुए कल की तरह फिर से उसे मिस नहीं करना चाहता था। सिगरेट जो वह कैजुअली पीता था फूंकते-झाड़ते उस के साथ-साथ हो लिया।
चलते-चलते विभा बोली, ‘‘सुना है आप एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर लिख रहे हैं ?’’
‘‘हां।’’
‘‘क्या-क्या फोकस कर रहे हैं ?’’
‘‘फोकस क्या प्राब्लम फीचर है। मेनली सुसाइड।’’
‘‘क्या मतलब ?’’ कहते हुए विभा लगभग बिदकी।
‘‘कुछ मदद करेंगी ?’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘कुछ जानकारी….।’’
‘‘सॉरी। मुझे माफ करिए। इस बारे में मैं कुछ मदद नहीं कर सकती आप की।’’
‘‘देखिए आप लखनऊ की हैं….।’’
‘‘तो ?’’ उस ने अजीब-सी नजरों से घूरा और बोली, ‘‘आप को ऐक्टिंग, नाटक, स्क्रिप्ट वगैरह के बारे में, यहां की पढ़ाई-लिखाई, रिहर्सल एटसेक्ट्रा आई मीन एकेडमिक प्वाइंट्स, डिटेल्स जानना हो तो जरूर बताऊंगी। फालतू बातें नहीं बताऊंगी।’’
‘‘आप के साथी मर रहे हैं। और आप इसे फालतू बता रहीं हैं।’’
‘‘हां।’’ कह कर वह चलते-चलते रुक गई। बोली, ‘‘मेरे लिए यह फिर भी फालतू है। मैं यहां पढ़ने आई हूं। एन॰ एस॰ डी॰ की पॉलिटिक्स डील करने नहीं।’’
‘‘पर मुश्किल क्या है ?’’
‘‘मुश्किल यह है कि मैं ने आप को गंभीर किस्म का पत्रकार मानने की भूल की। आप की कुछ रिपोर्टें और समीक्षाएं पढ़ी हैं मैं ने। पर आप मनोहर कहानियां ब्रांड रिपोर्टिंग भी करते हैं, यह नहीं जानती थीं। कहते-कहते वह चलने को हुई और बोली, ‘‘गुडबाई कहें ?’’
संजय के साथ एक दिक्कत यह भी हमेशा से रही कि अगर उस से कोई जरा भी तिरछा हो कर बोलता था उस से वह और तिरछा हो कर कट जाता था। चाहे वह लड़की ही क्यों न हो, चाहे वह संपादक ही क्यों न हो। उस का बाप ही क्यों न हो। सो जब विभा ने उस से कहा कि, ‘‘गुडबाई कहें ?’’ तो हालां कि उस के इस कहने में भी मिठास तिर रही थी पर संजय फिर भी फैल गया और ‘‘यस, गुड बाई’’ कहने की जगह, ‘‘हां, गुडबाई !’’ कह कर फौरन पलटा और सिगरेट फेंकते हुए ऐसे चल दिया गोया उस ने सिगरेट नहीं विभा को फेंका हो और उसे रौंदता हुआ चला जा रहा हो। जाहिर है विभा को ऐसी उम्मीद नहीं थी।
‘‘सुनिए।’’ वह जैसे बुदबुदाई।
पर संजय-चिल्लाया, ‘‘फिर कभी !’’ लगभग कैंटीन वाले अंदाज में। पर उस की बोली इतनी कर्कश थी कि दो तीन एनएसडियन जो उधर से गुजर रहे थे अचकचा कर ठिठके और उसे घूरने लगे।
विभा सकपका गई। और कमरे में भाग गई। संजय ने ऐसा रास्ता मुड़ते हुए कनखियों से देखा।
संजय फिर एन॰ एस॰ डी॰ नहीं गया। चार-पांच दिन हो गए तो उस पत्रिका के संपादक ने उसे फोन पर टोका कि, ‘‘एन॰ एस॰ डी॰ वाली रिपोर्ट तुम ने अभी तक नहीं दी ?’’
संजय को बड़ा बुरा लगा।
दूसरे ही क्षण वह खुद फोन घुमाने लगा। उस ने सोचा अब वह टेलीफोनिक रिपोर्टिंग क्यों न कर डाले। उस ने फटाफट एन॰ एस॰ डी॰ के चेयरमैन, डायरेक्टर समेत दो तीन लेक्चरर्स को फोन मिलाए। पर कोई भी फोन पर तुरंत नहीं मिला। लेकिन वह फोन पर जूझता रहा। आखि़र थोड़ी देर बाद डायरेक्टर मिले और एक दिन बाद का समय देते हुए कहा कि, ‘‘आप समझ सकते हैं फोन पर डिसकसन ठीक नहीं है। इत्मीनान से मिलिए।’’
संजय को निदेशक का इस तरह बतियाना अच्छा लगा। निदेशक शाह जो खुद भी एक अच्छे अभिनेता, निर्देशक तो थे ही कुछ नाटक भी लिखे थे उन्होंने। मिले भी वह बड़े प्यार और अपनेपन से। आधे घंटे की तय मुलाकात बतियाते-बतियाते कब दो घंटे से भी ज्यादा में तब्दील हो गई। दोनों ही को पता नहीं चला।
बिलकुल नहीं।
शाह बड़ी देर तक स्कूल की योजनाओं, परियोजनाओं, सिस्टम, इतिहास, तकनीक, रंगकर्मियों की विवशता, बेरोजगारी, दर्शकों की घटती समस्या, अल्काजी, शंभु मित्रा और कभी-कभार निवर्तमान निदेशक कारंत के बारे में बड़े मन और पन से बतियाते रहे। संजय उन की बातों में इतना उलझ गया कि मेन प्वाइंट छात्रों की आत्महत्या का सवाल बावजूद बड़ी कोशिश के वह बातचीत में शुमार नहीं कर पा रहा था।
तो क्या विभा का मनोहर कहानियां वाला तंज उसे तबाह किए हुए था ? या कुछ और था ? या कि शाह के वाचन से वशीभूत वह आत्महत्या वाले सवाल को बाहर लाने के बजाय भीतर ढकेलता जा रहा था ? आखि़र क्या था ? शायद यह सब कुछ था, गड्डमड्ड। पर तभी अनायास ही सवाल छात्रों की समस्याओं पर आ गया था तो शाह तौल-तौल कर कहने लगे कि, ‘‘मैं खुद चूंकि इस स्कूल का कभी छात्र रह चुका हूं। पढ़ाया भी यहां। चिल्ड्रन एकेडमी के बावजूद जिन्दगी यहां गुजारी है सो छात्रों की समस्याओं से भी ख़ूब वाकिफ हूं। और आप देखिएगा जल्दी ही कोई समस्या नहीं रह जाएगी। बिलकुल नहीं। बस बजट इतना कम है कि क्या बताऊं ?’’ वह कह ही रहे थे कि संजय पूछ ही बैठा, ‘‘पर आप के छात्र आत्महत्या क्यों करते जा रहे हैं ?’’
शाह बिलकुल अचकचा गए। उन्हों ने जैसे इस सवाल की उम्मीद नहीं की थी। शायद इसी लिए अकादमिक बातों को ही वह अनवरत फैलाते जा रहे थे। लेकिन आत्महत्या के सवाल पर वह सचमुच जैसे हिल से गए थे, ‘‘हमारे तो बच्चे हैं ये !’’ शाह जैसे छटपटा रहे थे। और संजय ने नोट किया कि उन की इस छटपटाहट में अभिनय नहीं कातरता थी, असहायता थी, आह थी और वह कठुआ से गए थे। साथ ही विह्नल भी। वह भावावेश में संजय के और करीब आ गए। और, ‘‘ये मेरे ही बच्चे हैं। मैं इन के बीच बैठ रहा हूं उन्हें सुन रहा हूं, समझ रहा हूं वन बाई वन।’’ जैसी भावुकता भरी बातें करते-करते अचानक जैसे उन का निदेशक पद जाग बैठा, ‘‘देखिए मुझे अभी दो महीने ही हुए हैं यह जिम्मेदारी संभाले। और यह आत्महत्याएं हमारे कार्यकाल में नहीं हुईं।’’ वह जरा रुके और संजय के करीब से हटते हुए कुर्सी पीछे की ओर खींच ली और बोले, ‘‘फिर भी मैं देखता हूं। आई विल डू माई बेस्ट।’’ कह कर उन्हों ने ऐसे सांस भरी कि संजय समझ गया कि अब और वह बातचीत के मूड में नहीं हैं। वह चलना चाहता था और निदेशक महोदय भी चाहते थे कि अब वह फूट ले। पर इसी बीच दुबारा काफी आ गई थी। और ‘‘नहीं-नहीं’’ कहते हुए भी उसे काफी पीने के लिए रुकना पड़ा। इस काफी का फायदा यह हुआ कि आत्महत्या प्रकरण से गंभीर और कसैले हुए माहौल को औपचारिक बातचीत ने कुछ सहज किया। इतना कि निदेशक महोदय उसे बाहर तक छोड़ने आए। हां, जो व्यक्ति उसे बाहर तक छोड़ने आया था वह शाह नहीं निदेशक ही आया था।
यह आत्महत्या प्रसंग की त्रासदी थी।
बाहर आया तो उस ने देखा कि कुछ एनएसडियन निदेशक के कमरे के बाहर जमघट लगाए पड़े थे और संजय को देखते ही वह सब के सब खिन्नता से भर उठे। पता लगा कि वह सभी कोई एक घंटे से वहां खड़े थे। और निदेशक से मिलने का उन का एप्वाइंटमेंट था। सो उन की खिन्नता संजय की समझ में आई। उस ने उन सब से माफी मांगी तो वह सब बड़ी हिकारत से बोले, ‘‘जाइए-जाइए।’’ और इस भीड़ में वानी और उपेंद्र भी थे। सो संजय को थोड़ी तकलीफ हुई। उस ने दुबारा, ‘‘सॉरी, वेरी सॉरी’’ कहा और बहावलपुर हाऊस से बाहर आ गया। बाहर निकलते-निकलते उस ने फिर पलट कर रिपोर्ट का मरा सा शीर्षक भी सोचा ‘‘बहावलपुर हाऊस के भीतर का सच’’ साथ ही उस ने सोचा कि शीर्षक तय करने वाला वह साला कौन होता है ? सोचते-सोचते उस का मन इतना कसैला हुआ कि बस स्टाप जाने के बजाय बगल से गुजर रहे आटो को रोक कर बैठ गया। पहले तो उस ने आटो वाले से आई॰ टी॰ ओ॰ चलने को कहा पर गोल चक्कर तक आते-आते बोला, ‘‘नहीं, यहीं बंगाली मार्केट।’’ आटो का ड्राइवर जो सरदार था भुनभुनाया। और एक भद्दी-सी गाली बकी। तो संजय ने उसे डपटा, ‘‘गाली क्यों बक रहे हो ?’’ तो वह ख़ालिस पंजाबी लहजे में बोला, ‘‘तेरे को थोड़े दे रहा, अपने नसीब को दे रहा। नसीब ही खोट्टा है जी अपना।’’ भुनभुनाया संजय भी अपने आप पर कि दो कदम की दूरी के लिए आटो लेने की क्या जरूरत थी। ख़ामख़ा पैसा बरबाद करने के लिए।
अलका-अजय के यहां जब वह पहुंचा तो अजय नहीं था। पर अलका थी। गजरा बांधे, इत्रा लगाए चहकी, ‘‘भीतर आ जाइए। अजय अभी आते ही होंगे।’’ वह भीतर जा कर सोफे के बजाय मोढ़े पर बैठ गया। अलका ने काफी के लिए पूछा तो संजय ने मना कर दिया। जब दुबारा उस ने काफी की रट लगाई तो बोला, ‘‘नहीं अभी पी कर आ रहा हूं।’’ तो भी अलका नहीं मानी शिकंजी बना लाई। शिकंजी पीते हुए संजय चहकती अलका से पूछ ही बैठा, ‘‘आज कोई ख़ास बात है क्या ?’’
‘‘नहीं तो !’’ कहते हुए उस ने चोटी से लटकता गजरा हाथों में ले लिया।
‘‘नहीं, कुछ तो बात है।’’
‘‘नहीं, कुछ ख़ास नहीं।’’ कहते हुए वह तनिक सकुचाई।
‘‘ख़ास न सही। यूं ही सही ?’’
‘‘आप तो बस पीछे ही पड़ जाते हैं।’’ कहते हुए वह उठी तो कलफ लगी उस की साड़ी फड़फड़ा उठी। अलका की साड़ी का रंग, उस पर कलफ, गजरा, फिर इत्रा और इस सब से ऊपर उस की मोहकता सब मिलजुल कर ऐसा कोलाज रच रहे थे कि सब कुछ सामान्य नहीं लगा रहा था। हालां कि अलका की मोहकता में हरदम सौम्यता झलकती थी, उस की सुंदरता में सादगी समाई रहती और चाल में सलीका, आज भी यह सब कुछ था पर इस सब के साथ हाशिए पर ही सही भावुक सी, कामुक सी शोखी भी आज अलका के अंगों से ऐसे फूट रही थी कि नीरज का लिखा वह फिल्मी गीत संजय की जबान पर आ गया तो उस ने अपनी आंखों में इसरार भरा और अलका से कहा, ‘‘आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन ! गीत तो आपने सुना ही होगा ?’’
अलका को संजय से ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी तो चिहुंकते हुए बोली, ‘‘क्या?’’ और लजा गई। बोली, ‘‘असल में हम और अजय आज ही के दिन मिले थे।’’
‘‘तो आज मैरिज एनिवर्सरी है ?’’
‘‘नहीं, नहीं।’’ वह इठलाई, ‘‘मतलब पहली बार मिले थे।’’
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कहते हुए संजय ने आंखें चौड़ी की और होंठ गोल।
‘‘पर आप प्लीज अजय से इस का जिक्र मत करिएगा।’’
‘‘क्यों ? आज तो बीयर क्या काकटेल उस की ओर से।’’
‘‘नहीं, आज यह सब नहीं। और देखिए फिर कह रही हूं कि अजय से इस का जिक्र नहीं करेंगे आप।’’ अलका आदेशात्मक लहजे में बोली।
‘‘पर क्यों ?’’ संजय उदासी का रंग जमाते हुए बुदबुदाया।
‘‘वो इस लिए कि देखना चाहती हूं कि अजय को भी यह दिन याद है कि नहीं।’’
‘‘ओह ! तो मुझे फूटना चाहिए।’’
‘‘क्यों ?’’ वह अचकचाई।
‘‘अरे भाई महाराज जी वाला हश्र मुझे याद है।’’
‘‘धत्, आप भी क्या बात ले बैठे। और आप वैसे थोड़े ही हैं।’’ कहते हुए जैसे वह अपने आप को निश्चिंत कर रही थी।
‘‘हूं तो नहीं। क्योंकि मुझे नृत्य नहीं आता। और कथक की मुद्राएं तो बिलकुल नहीं। पर यह मत भूलिए अलका जी कि मैं भी पुरुष हूं। और पुरुष की मानसिकता कोई बदल नहीं सकता।’’ कहते हुए संजय गंभीर होने लगा। वह आगे अभी और पुरुष मानसिकता पर अलका को ज्ञान देना चाहता था। पर अलका ने ही ब्रेक लगा दिया, ‘‘बस-बस ! अजय नहीं हैं सो आप अपनी रजनीशी फिलासफी पर विराम लगाइए। क्यों कि मैं इस पुरुष मानसिकता वाली बहस में उलझ कर मूड नहीं आफ करना चाहती।’’
‘‘आखि़र महिला मनोविज्ञान काम कर गया न ! और कर गई पलाबो।’’
‘‘ये पलाबो क्या है ?’’ वह जरा खीझी।
‘‘पलाबो !’’ वह बोला, ‘‘क्या है कि एक चुटकुला है।’’
‘‘तो इसे सुनाइए। कि मूड साफ हो। सारा मूड आफ कर दिया।’’
‘‘हद हो गई। मैं आप की सुंदरता की तारीफ कर रहा हूं। और आप का मूड फिर भी आफ हो रहा है। तो मैं तो चलूंगा।’’ कहते हुए संजय उठने लगा तो अलका लगभग नृत्य मुद्रा में आ गई। जैसे शिव का तांडव करने जा रही हो। पर दूसरे क्षण जाने क्या हुआ कि उस ने बड़ी नरमी से संजय का हाथ पकड़ कर उसे बिठा दिया और बोली, ‘‘यस पलाबो !’’
उस के स्पर्श में इतनी मादकता थी कि संजय का मन हुआ कि वह अलका को पकड़ कर चूम ले। पर उसे अजय का ख़याल आ गया। नैतिकता का ख़याल आ गया। एक पुरानी कहावत याद आ गई कि ‘‘डायन भी सात घर छोड़ देती है।’’ हालां कि अलका भी उस की दोस्त थी। पर अजय भी दोस्त था। और संजय इतनी नैतिकता तो निभाना जानता था। हालां कि वह देह संबंधों के मामले में ऊपरी तौर पर इस तरह की नैतिकता का मापदंड नहीं स्वीकारता था और रजनीश दर्शन का कायल था पर भीतरी और पारिवारिक संस्कार फिर भी आड़े आ जाते थे। यहां भी आ गया। फिर उस ने सोचा कि अलका आज उसे सुंदर लग रही है और अगर उसे चूमने की उस की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो अभी जब अजय आ जाएगा तो वह अजय से कह देगा कि भई आज अलका बहुत ही सुंदर लग रही है और मैं उसे चूमना चाहता हूं। बिलकुल नैसर्गिक सौंदर्य की तरह। और वह यह जानता था कि अजय सहर्ष उसे चूमने देगा, मना नहीं करेगा। सपने में भी नहीं।
पर क्या अलका भी इस तरह उसे चूमने देगी ?
संजय ने सोचा। उस ने इस पर भी सोचा कि क्या जैसा कि वह अभी जैसे सोच रहा है वैसे ही निश्छल हो कर अजय से सचमुच यह कह सकेगा, कि ‘‘मैं अलका को चूमना चाहता हूं।’’ और कि क्या सब कुछ वैसे ही हो जाए जैसा कि वह सोच रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि कल को उस की इच्छा अलका के साथ सोने की न हो जाए ? परसों कहे कि, ‘‘चलो तुम हटो, कहीं और जा कर रहो। अब यहां मैं अलका के साथ रहना चाहता हूं।’’
क्या पता ?
कुछ भी हो सकता है। और सहसा संजय को अपने पर, अपनी इस सोच पर इतनी शर्म आई कि उसे लगा कि फिलहाल तो उसे कहीं चिल्लू भर पानी ढूंढ़ना चाहिए और उस में डूब मरना चाहिए। वह यह सब सोच ही रहा था कि अलका पहले उदास हो कर फिर बिंदास हो कर बोली, ‘‘यस-यस पलाबो।’’ और सोफे से उठ कर दूसरा मोढ़ा ले कर संजय के एकदम सामने आ कर बैठ गई। व्यंग्य के लहजे में बोली ‘‘लेबिल बराबर कर दिया है। अब तो कोई दिक्कत नहीं है।’’ वह बेफिक्र-सी हंसती हुई फिर उच्चारने लगी ‘‘यस-यस पलाबो।’’ उस ने दुहराया, और जरा जोर से ‘‘ओह यस !’’ बिलकुल ठसके के साथ। उस के हाथों में उस के बालों में गुंथा गजरा फिर खेलने लगा था। और वह रह-रह कर, ‘‘यस-यस पलाबो’’, ‘‘ओह यस’’ जैसे शब्द उच्चारती हुई कहती जा रही थी, ‘‘अब तो लेबिल में आ गए हैं भई।’’
‘‘लेबिल’’ और ‘‘ओह यस’’, ‘‘ओह यस’’ कह-कह वह जैसे संजय का मन सुलगाए दे रही थी। मन के भीतर ही भीतर उस की नैतिकता की दीवार रह-रह ढह रही थी, रह-रह गिर रही थी बतर्ज दुष्यंत कुमार, ‘‘मैं इधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।’’
‘‘लेबिल’’ में तो ऐसी कोई बात नहीं थी। अक्सर संजय और अजय पीते-पीते चौथे-पांचवें पेग के बाद इस ‘‘लेबिल’’ पर आ जाते थे। संजय कभी अजय से कहता कि, ‘‘तुम्हारी कम है,’’ तो कभी अजय संजय से कहता, ‘‘तुम्हारी कम है।’’ तो ‘‘लेबिल’’ में लाने की बात चल पड़ती। और अंततः ‘‘लेबिल’’ दोनों गिलासों को मिला कर अलका तय करती। क्यों कि दोनों एक-दूसरे से कहते, ‘‘तुम्हें चढ़ गई है,’’ ‘‘तुम साले बदमाशी कर रहे हो।’’ और एक बार तो अजय ने हद ही कर दी। उस ने चीख़ कर कहा, ‘‘अलका ! तू संजय का फेवर कर रही है।’’ सुन कर संजय तो चौंका ही आम तौर पर बात चीत में अंगरेजी नहीं बोलने वाली अलका भी चीख़ पड़ी, ‘‘ह्वाट यू मीन?’’ तो अजय आधे सुर पर आ गया, ‘‘जरा तुम भी आधा सुर कम कर लो और लेबिल में आ जाओ।’’ कह कर वह हंसा, ‘‘संजय के गिलास में कम है और तुम लेबिल में बता रही हो।’’
अलका फिर भी नहीं मानी और कहती रही कि ‘लेबिल में है !’ लेकिन अजय भी नहीं मानने वाला था। उस ने चम्मच मंगवाई और चम्मच-चम्मच ह्निस्की नपवाई। सचमुच संजय के गिलास में चार कि पांच चम्मच ह्निस्की कम निकली। और अजय ने घूरते हुए अलका की ओर देखा और बोला, ‘‘यस मैडम ?’’
अलका जैसे सफाई देने पर उतर आई। कहने लगी, ‘‘वो तो इस लिए कि मैं जानती हूं इन को दूर जाना है। सही सलामत घर पहुंच जाएं और क्या ?’’ वह बिफरी, ‘‘तो इसमें फेवर क्या हो गया ?’’
संजय ने देखा जरा सी बात चीत दोनों में झगड़े के बदल रही थी। उस ने पहले सोचा कि अब फूट ले। लेकिन जाने क्या हुआ कि बोल पड़ा, ‘‘तुम लोगों की चिक-चिक से मेरा सारा नशा काफूर हो गया। अब एक पटियाला और बनाते हैं।’’ फिर तो उस दिन जो पटियाला पैग चला तो रात के दो बज गए। और वह दोनों तभी उठे जब बोतल ने दगा दे दिया। मतलब पूरी डेढ़ बोतल दोनों ने डकार ली थी।
‘‘तो चलते हैं भई।’’ कह कर संजय उठा और दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते लुढ़क कर गिर गया। अलका ने उसे दौड़ कर उठाया और बुदबुदाई, ‘‘इतनी पीने की क्या जरूरत थी ?’’ वह जैसे नाराज थी। संजय लाख नशे के बावजूद बड़ा शर्मिंदा हुआ अपने इस लुढ़कने पर। वह जल्दी से जल्दी भाग लेना चाहता था वहां से। पर पैर थे कि भागना हीं नहीं चाहते थे। या कि शायद चाह कर भी भाग नहीं पा रहे थे। जो भी हो वह थोड़ी दूर ही चला कि पीछे से अजय, ‘‘संजय-संजय’’ पुकारता मिला। संजय रुक कर वहीं सड़क पर बैठ गया। पालथी मार कर। अजय हांफता हुआ आया और वह भी वहीं पालथी मार कर बैठ गया। संजय कुछ नशे में, कुछ भावुकता में बोला, ‘‘क्या बात है डियर ?’’
‘‘तुझे अकेले नहीं जाने दूंगा। तुम्हारी हालत ठीक नहीं है। मैं पहुंचा आता हूं। उठ!’’ अजय बांह पकड़ कर संजय को उठाने लगा।
‘‘नहीं मैं चला जाऊंगा।’’
‘‘मैं छोड़ आता हूं। तू एक मिनट घर चल।’’
‘‘एक पेग और नहीं मिल सकती कहीं से ?’’ वह वापस अजय के घर जा कर बोला, ‘‘बस एक पेग !’’ कहते हुए वह फिर ढप से फर्श पर ही बैठ गया। अब तक अलका पूरी तरह बोर हो गई थी। और अजय उस से लैंब्रेटा की चाभी पूछ रहा था, ‘‘कहां है, बता तो सही।’’ और अलका का कहना था कि एक तो छोड़ने मत जाओ। दूसरे जो जाओ तो स्कूटर से कतई नहीं। नहीं दोनों मर जाओगे। पर अजय मान नहीं रहा था। अचानक अलका धम-धम करती संजय के पास आई और जाहिर है धम-धम करती हुई किसी नृत्य मुद्रा में नहीं आई और धम-धम स्टाइल में ही बुदबुदाई और बौराई हुई, ‘‘तुम तो कुंवारे हो पर मुझे क्यों विधवा बनाने पर तुले हो ?’’ सुनते ही जैसे सांप सूंघ गया संजय को। और उस ने मुगले आजम के पृथ्वीराज कपूर स्टाईल में ऐलान कर दिया कि ‘‘वह अजय के साथ नहीं जाएगा। और जाएगा भी तो स्कूटर से कतई नहीं।’’ अजय पर इस ऐलान का असर पड़ा। और उस ने पायज़ामा उतार कर जींस पहनते हुए हवाई चप्पल उतार कर कोल्हापुरी पहनी और बाहर आ गया। दरवाजा बंद करते हुए अलका ने कहा, ‘‘संजय तुम यहीं क्यों नहीं सो जाते ? इस तरह जाने से तो अच्छा ही था !’’ पर संजय अलका की बात अनसुनी करते हुए अजय से पूछ रहा था, ‘‘एक पेग कहीं से और नहीं मिल सकती।’’ कहते हुए वह लगभग लहरा रहा था और बोल रहा था, ‘‘प्लीज ! एक पेग !’’ उस के एक-एक शब्द में नशा था। और अजय बोले जा रहा था, ‘‘मिलेगा डियर, मिलेगा एक नहीं दो पेग।’’
‘‘जाओ, अब तुम दोनों लेबिल में हो।’’ कहते हुए अलका ने भड़भड़ा कर दरवाज़ा बंद कर लिया। हालां कि उस रात तुरंत वहां कोई सवारी नहीं मिलने के कारण वह दोनों कहीं गए नहीं। पास ही सड़क पर एक बिजली के खंभे से पीठ टिका-टिका कर दोनों बैठे सिगरेट फूंकते रहे और नाटक, शायरी, सेक्स, बचपन और अंततः अपनी-अपनी बेचारगी बतियाते-बतियाते दोनों ने वहीं सुबह कर दी थी।
उस रात अजय बड़ी देर तक मैकबेथ के डायलाग्स सुनाता रहा कई-कई अंदाज में। डायलाग्स सुनते-सुनते संजय दुष्यंत कुमार के शेर सुनाने लग गया। फिर जाने कब फिल्मी गानों पर बात आ गई और दोनों गाने क्या गुनगुनाने लगे। एक बार हेमंत के गाए किसी गीत पर झगड़ा हो गया कि साहिर ने लिखा है कि शैलेंद्र ने। झगड़ा निपट नहीं रहा था कि संजय ने फिर एक गीत छेड़ दिया, ‘‘न हम तुम्हें जाने न तुम हमें जानो मगर लगता है कुछ ऐसा, मेरा हमदम मिल गया।’’ लेकिन इस गाने पर भी झगड़ा बना रहा कि फिमेल वायस सुमन कल्याणपुर की है कि लता मंगेशकर की ? और बात सेक्स पर आ गई। दोनों अपने-अपने किस्से बताने लगे। जाहिर है अजय के पास सेक्स का अनुभव ज्यादा था। वह एक अफसर की बीवी के बारे में बताने लगा जिसे ऐक्टिंग का शौक था। कि कैसे जब उस का हसबैंड बाहर टूर पर जाता था तो वह उसे बुलवा भेजती। और उस तीन चार घंटे में ही जब तक तीन चार बार सवार नहीं होता वह नहीं छोड़ती थी। चूस लेती थी साली पूरी तरह। संजय इस पर बिदका, ‘‘ बड़े चूतिया हो। तुम तीन चार घंटे में तीन चार बार उस पर क्या चढ़ते थे लगता है जैसे एहसान करते थे। अरे, मुझसे कहते मैं एक घंटे में ही तीन चार बार चढ़ जाता।’’ सुन कर अजय बोला, ‘‘बेटा जब शादी हो जाएगी तब समझेगा। अभी जबानी-जबानी एक घंटे में तीन चार बार जो करता है वह तीन चार दिन में एक बार हो जाएगा।’’
पर संजय यह मानने को तैयार नहीं था। उस ने अपना अनुभव बखाना कि, ‘‘आधे घंटे में ही वह तीन अटेंप्ट ले चुका है। और कम से कम ऐसा छ-सात चांस।’’
अजय हंसा, ‘‘तो बस कबड्डी-कबड्डी। गया और आया। आया और गया।’’ वह थोड़ा रुका और बोला, ‘‘यह कब की बात कर रहा है तू ? पंद्रह-सोलह साल की उम्र की तो नहीं ?’’
‘‘एक्जेक्टली।’’
‘‘हां, वही कहूं। तो अब कर के दिखा।’’
‘‘कोई मिले तब न।’’
‘‘अच्छा तो इसी लिए एन॰ एस॰ डी॰ के फेरे मार रहा है ?’’ घूरते हुए अजय हंसा।
‘‘नहीं, नहीं वहां तो बस प्रोफेशनली।’’
‘‘तो ठीक है। नहीं मर जाएगा साले।’’ फिर जाने क्या उसे सूझी कि वह ब्लू फिल्मों के फ्रेमों के बारे में बतियाते-बतियाते बताने लगा कि वह दो तीन बार अलका को भी ब्लू फिल्में दिखा चुका है। घर पर ही वी॰ सी॰ आर॰ किराए पर लाकर। और वह बड़े डिटेल्ड ब्यौरे में चला गया कि शुरू में अलका कैसे सुकुचाई। शुरू में तो उस ने चद्दर से मुंह ढक लिया। फिर धीरे-धीरे देखने लगी। देखते-देखते अमल भी करने लगी। पहले ‘‘सक’’ नहीं करती थी अब ‘‘सकिंग’’ में मुझ से ज्यादा उसे मजा आता है। और तो और क्लाइमेक्स के क्षणों में ब्लू फिल्मों की औरतों की तरह वह बाकायदा ‘‘ओह यस, ओह यस,’’ भी करती रहती है। बताते-बताते अजय कहने लगा, ‘‘सच डियर सेक्स लाइफ का मजा ही बढ़ गया है।’’
‘‘अच्छा !’’ संजय ने ठेका लगाया।
‘‘पर यार, एक झंझट हो गई एक बार।’’
‘‘क्या ?’’ संजय ने चकित होकर पूछा।
‘‘एक दिन अलका पूछने लगी तुम्हारा छोटा क्यों है ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘पेनिस।’’
‘‘अच्छा-अच्छा। तो सचमुच छोटा है तुम्हारा ?’’
‘‘नहीं भाई।’’ वह जरा रुक कर पीठ खुजलाने लगा और बोलता रहा ‘‘पहले तो उस का सवाल सुन कर मैं भी चौंका। पर दूसरे ही क्षण ठिठोली सूझी और पूछ लिया कि कितना बड़ा-बड़ा झेल चुकी हो। तो वह लजा कर मुझ से लिपट गई और बोली, ‘‘धत्।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ संजय ने उत्सुकतावश पूछा।
‘‘होना क्या था। बहुत कुरेदने पर वह कसमें खाने लगी कि किसी का नहीं देखा, न ही ऐसा कोई अनुभव उसे है।’’ अजय अब जांघें ख़ुजलाने लगा था, ‘‘तो मैंने डपट कर पूछा कि फिर तुम्हें कैसे पता चला कि मेरा छोटा है ?’’ वह रुका और संजय की निंदियाई, अलसाई और नशाई आंखों में झांक कर कहा, ‘‘जानते हो उस ने क्या जवाब दिया।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘वह एकदम मासूम हो गई और शरमाती सकुचाती हुई बोली, ब्लू फिल्मों से। उस ने किसी हब्शी का देखा था।’’
‘‘ओह यस !’’ जोर से बोलते हुए संजय ने तब ठहाका लगाया था।
संजय के ठहाके के साथ ही पौ फट गई थी।
‘‘बहुत दिनों बाद ऐसी सुबह देख रहा हूं।’’ संजय बोला तो अजय ने भी हामी भरी, ‘‘मैं ने भी।’’ चलते-चलते संजय ने अजय से ठिठोली की, ‘‘घबराओ नहीं। ऐसा होता है और इत्तफाक से मेरा बड़ा है।’’ कहते हुए वह मजाकिया हुआ, ‘‘जरूरत पड़े तो बोल देना। बंदा तैयार मिलेगा।’’ अजय ने भी संजय की बात को मजाक में ही लिया, ‘‘भाग साले कबड्डी-कबड्डी। तेरी तो….।’’ संजय ने मजाक जारी रखा और अजय से कहा ‘‘ज्यादा मायूस मत हो। ऐसा बहुतों के साथ होता है। ले इसी बात पर एक सरदार वाला चुटकुला सुन।’’
‘‘सुना क्या है ?’’
‘‘सच।’’
‘‘हां, सुना डाल।’’ कहते हुए अजय ने बड़ी जोर से हवा ख़ारिज की। गोया कोई कपड़े का थान फाड़ रहा हो।
संजय का मूड आफ हो गया। क्योंकि रात भर तो रह-रह कर अजय थान फाड़ ही रहा था, अब चलते-चलते भी उस ने सुबह ख़राब कर दी थी। हालां कि रात भर रह-रह कर या तो अजय हवा ख़ारिज कर मूड ऑफ करता था तो कभी आती-जाती रेलगाड़ियां। अजय तो ख़ैर यहीं घर होने के नाते इन रेलगाड़ियों के आने-जाने का आदी था पर संजय को रह-रह कर यह आती जाती रेलगाड़ियां बहुत डिस्टर्ब करती रहीं। इतना कि उसे अनायास ही एम॰ के॰ रैना के उस करेक्टर की याद आ गई जो उन्हों ने रमेश बक्षी की कहानी वाली 27 डाऊन फिल्म में किया था। जिस में वह करेक्टर अपनी भैंस जैसी पगुराती बीवी से पिंड छुड़ाने की गरज से लगातार भागता रहा है और उस का सारा तनाव चलती रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट में गूंजता रहा है। फिल्म का यह पूरा फ्रेम इतना बढ़िया बन पड़ा था कि सचमुच दर्शक भी उस तनाव की आंच उसी शिद्दत से महसूस कर सकता था। पर बंगाली मार्केट में रेल पटरी के पास की इस सुनसान सड़क पर आती-जाती रेलगाड़ियां तनाव नहीं मन में खीझ भर रही थीं। तिस पर अजय की रह-रह यह हवा ख़ारिज करने की आदत ! संजय सोचने लगा कि लोग इस बेशरमी से सब के सामने कैसे पाद लेते हैं ? और अजय की यह आदत बेचारी अलका कैसे बर्दाश्त करती होगी? उसे अपने से ज्यादा अलका की परेशानी की चिंता हुई। कि उसे इस कमबख़्त के साथ रात-दिन गुजारना रहता है। दाढ़ी तो बेचारी झेल लेती होगी पर यह पादना ? अभी संजय इस चिंता में दुबला हुआ ही जा रहा था कि अजय ने उसे टिपियाया, ‘‘अबे सरदार वाला किस्सा सुना न ?’’
‘‘किस्सा नहीं चुटकुला ! पर है नानवेज।’’
‘‘वही। वही।’’ उस ने जोड़ा, ‘‘तो प्रोसीड !’’
‘‘तो सुन’’ कह कर उसे मन हुआ कि वह भी जोर से पाद दे। पर ऐसा वह नहीं कर सका। कर भी नहीं सकता था। सो बोला, ‘‘एक सरदार जी की शादी हुई। विदाई के बाद सुबह दुलहन ले कर घर आए। घर में भीड़ बहुत थी पर बीवी से मिलने को बेताब सरदार जी ने युक्ति यह निकाली की बीवी को बाजार घुमा लाएं। सो बाजार में बीवी के हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। एक जगह जरा उन्हें मजाक सूझा। पैंट की दोनों जेबें ब्लेड से काट डालीं। और सरदारनी से जेब में हाथ डालने को कहा। सरदारनी ने जेब में हाथ डाला तो जेब फटी थी तो सीधे ‘‘वही’’ हाथ में आ गया। सरदार जी को मजा आ गया। फिर सरदार जी को सरदारनी पर रौब गालिब करने की सूझी। उन्हों ने शरमाते हुए दूसरी जेब में भी हाथ डलवा दिया। और फिर वही ‘‘घटना’’ घटी। सरदार जी ने सरदारनी पर रौब जमाते हुए कहा, ‘‘देखा, दो-दो है।’’ सरदारनी ने शरमा कर चुन्नी होंठों में दाब ली। इस तरह सरदार जी ने सरदारनी पर रौब तो गालिब कर लिया। पर दूसरे ही क्षण उन्हें रात की चिंता सताने लगी। कि रात को वह सरदारनी को कहां से दो-दो दिखाएंगे ?’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ अजय ने जम्हाई लेते हुए पूछा।
‘‘साले, सुन तो सही। अब तेरा वाला मामला आ रहा है।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘पूरा चुटकुला सुनना हो तो सुन नहीं मैं चलूं।’’ संजय ने अजय पर धौंस जमाई।
‘‘नहीं-नहीं सुना। अब नहीं बोलूंगा।’’
‘‘तो सरदार जी परेशान थे ही कि रात को कहां से दो-दो दिखाएंगे सरदारनी को। कि तब तक उन का दोस्त एक दूसरा सरदार बाजार में दिख गया। उसे उन्होंने बुलाया। उस ने कुछ पैसा पहले ही से सरदार जी से उधार ले रखा था। सो सरदार जी के रौब में भागा-भागा आया। सरदार जी उस दूसरे सरदार को सरदारनी से थोड़ी दूर एक कोने में ले गए। और उसे लगे हड़काने। वह हाथ पैर जोड़ने लगा। सरदार जी का काम हो गया था। सो वह उसे बख़्श कर सरदारनी के पास आ गए। सरदारनी ने पूछा, ‘‘कि गल है?’’ सरदार जी ने बड़ी मासूमियत से सरदारनी को बताया, ‘‘अपना यार है। हमारे पास जो ‘‘दो’’ हैं उस के पास ‘‘एक’’ भी नहीं है। सो एक मांग रहा था।’’ तो सरदारनी ने पूछा, ‘‘तुम ने क्या किया ?’’ सरदार जी बोले, ‘‘करना क्या था, यार है मदद कर दी उस की। एक उस को दे दिया।’’ सरदारनी बोली, ‘‘बड़े रहमदिल हो जी आप।’’ और मुसकुरा कर चुन्नी फिर होंठों से दबा ली।’’ कह कर संजय जरा रुका तो अजय कहने लगा, ‘‘इस में चुटकुला क्या हुआ?’’
‘‘अबे अभी ख़त्म कहां हुआ ?’’ संजय बोला।
‘‘बड़ा लंबा है ?’’
‘‘हां। और चुपचाप सुन अब ख़त्म होने वाला है। बोलना नहीं।’’
‘‘हां, सुना भई।’’
‘‘तो सरदार जी का बिजनेस था।’’ वह रुका और बोला, ‘‘तेरी तरह।’’ और दोनों हंसे। फिर संजय बोला, ‘‘सरदार जी एक बार बिजनेस टूर पर गए। काफी दिन हो गए लौटे नहीं। ऊपर से फोन कर-कर के सरदारनी को सताते रहते। सरदारनी को सरदार जी की तलब लगने लगी। इसी बीच एक दिन वह दूसरे सरदार जी जो पहले बाजार में मिल गए थे इन के घर आए। सरदारनी को लगा मौका अच्छा है। और इन के पास भी जो है वो भी अपने सरदार जी का ही है। कोई हर्ज नहीं। सो वह दूसरे सरदार के साथ स्टार्ट हो गईं। अब यह दूसरे सरदार जी सरदारनी की सेवा में रोज आने लगे। कुछ दिन बाद सरदारनी के असली सरदार बिजनेस टूर से वापस आ गए। रात में सरदारनी से इधर-उधर की जब हांकने लगे तो सरदारनी से रहा नहीं गया। वह सरदार से बोली, ‘‘जी तुम निरे बेवकूफ हो। बिजनेस क्या करोगे ?’’ सरदार जी भौंचक्के रह गए। बोले, ‘‘हुआ क्या ?’’ सरदारनी बोली, ‘‘तुम से बड़ा बेवकूफ कौन होगा जी। तुम अपना बड़ा सामान तो दोस्त को दे देते हो और छोटे से अपना काम चलाते हो।’’
‘‘ओह यस।’’ सुन कर अजय झूम गया। बोला, ‘‘मजा आ गया।’’
‘‘तो चलूं ? कि अभी एकाध बम बाकी है तुम्हारा ?’’
‘‘नहीं-नहीं जाओ।’’ अजय झेंपते हुए बोला, ‘‘अब सुबह भी हो गई है।’’ सुबह सचमुच हो गई थी।
‘‘ओह यस !’’ जब अलका फिर बोली तो संजय के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘ह्वाट ?’’
‘‘यस पलाबो।’’ वह चहकी।
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कह कर उस ने कहा, ‘‘पहले एक शिकंजी और हो जाए ?’’
‘‘हां, हां बिलकुल।’’ और अलका शिकंजी बनाने में लग गई।
संजय सोचने लगा कि अलका को हो क्या गया है। जो बार-बार ‘‘ओह यस, ओह यस,’’ उच्चार रही है बेझिझक और उसी ब्लू फिल्म वाले अंदाज में। क्या वह उसे आमंत्राण दे रही है ? उस ने सोचा। लेकिन उस को अपनी सोच पर एक बार फिर शर्म आई और घिन भी। उस ने मन ही मन में कहा, नहीं अलका ऐसी नहीं है। चीप और चालू नहीं है। उस ने सोचा। फिर यह भी सोचा कि क्या पता अजय का सचमुच ‘‘छोटा’’ हो। बहुत छोटा। हो सकता है। कुछ भी हो सकता है। पर अलका फिर भी ऐसी नहीं हो सकती।

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