Home विषयसाहित्य लेख साहित्यकार अपना रचकर चला जाता है

साहित्यकार अपना रचकर चला जाता है

by Ashish Kumar Anshu
477 views
साहित्यकार अपना रचकर चला जाता है लेकिन समय, उसके करीबी और उसके पाठक लेखक का मूल्यांकन अपने तरह से करते हैं। पुरानी फाइलों से गुजरते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कमलेश जैन का यह आलेख हाथ लगा। राजेन्द्र यादव पर केन्द्रित यह आलेख उन्होंने ‘पाखी’ के मार्च 2013 अंक में लिखा था। राजेन्द्र यादव को समझने और जानने की एक नई दृष्टि देता है यह आलेख। कमलेशजी ने अपने लेख में यादवजी को ‘कंपल्सिव पैरासाइट’ कहा है।
सच ही लिख गए निदा फाजली :
”हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।”
**** **** **** **** **** **** **** **** **** *****
”मैंने पूरी किताब पढ़ी। बहुत कुछ छिपाने और झूठ लिखने के बावजूद जो कुछ कुंठा से भरे घड़े से छलक गया है, उसके मुताबिक राजेन्द्र यादव एक आपराधिक पृष्ठभूमि के यौन मनोरोगी हैं, जिनके जीवन की धुरी सिर्फ सेक्स और उससे जनित अपराध है। वे अपने घर में हुई हत्या, आत्महत्या में बराबर के भागीदार रहे हैं।
आपराधिक न्याय का एक मशहूर सिद्धांत है- ‘दोज आर ओल्सो रेस्पॉन्सिबल हू वेट एंड वॉच’। यानी, अपराध होने में सहयोग करने वाले और अपराध के दौरान मौन सहयोग और स्वीकृति देने वाले लोग भी अपराध में बराबर के जिम्मेदार माने जाते हैं। इस तरह अपनी बहनों की हत्या और आत्महत्या में राजेन्द्र यादव भी बराबर के अपराधी हैं और उसी सजा के भागीदार हैं जो एक हत्यारे या आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले शख्स को मिलती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उनकी यह पुस्तक ही मददगार साबित होती है।
राजेन्द्र यादव के मुताबिक उनकी चचेरी बहन रेवा अपने ही चचेरे भाई से गर्भवती हो गई थी और इसी वजह से उसे जहर दे दिया गया था। उसे राजेन्द्र यादव से शिकायत रही कि उन्होंने उसे नहीं बचाया। रूमानी अंदाज में अब वे खुद को उस हत्या का अपराधी मानते हैं। अपराधी तो उनका परिवार और वे हैं ही। वे गुनाह होने देने और गुनाह छिपाने के अपराधी हैं। आखिर क्या हुआ कि मामला पुलिस तक नहीं पहुंचा और सभी साफ-साफ बच गए। सभी जहर देकर हत्या करने और लाश को ठिकाने लगाने के अपराधी हैं। उनकी किताब ये भी बताती है कि उनकी बहन कुसुम ने भी जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर पिता और पढ़े-लिखे सक्षम भाइयों के रहते विवाह न होने की वजह से उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।
राजेन्द्र यादव की ही स्वीकारोक्ति है, “चूंकि घर में ऐसा कोई नहीं था, जो बहनों की शादियों के लिए भागदौड़ करता, लड़के देखता या संबंध बनाने के लिए दुनिया भर की खाक छानता।” ये लोग खुद अपने अनगिनत संबंधों की तलाश में रेड लाइट इलाके से लेकर रानीखेत, अस्पताल और दुनिया-जहान का सफर करते हैं, पर बहनों और बेटियों के विवाह के लिए समय नहीं निकाल पाते। राजेन्द्र यादव के ताऊजी मशहूर कबूतरबाज रहे, ”उन्होंने कबूतरबाजी के सिवा जिंदगी भर कोई काम नहीं किया। ताइजी ने अकेलेपन में अपना दम तोड़ा।” तभी राजेन्द्र यादव किताब में खुद स्वीकारते हैं कि उन्हें मरते हुए सबसे बड़े ताऊजी की चित्कारें अक्सर एकांत में परेशान करती हैं।
राजेन्द्र यादव के पिता ने उनके सामने कोई अनुकरणीय उदाहरण पेश नहीं किया, वे खुद लिखते हैं, “वे अच्छे आदमी नहीं थे। अस्पताल में काम करने वाली नर्स या दाई जिसका नाम बामन बाई था, को बाइ(मां) की अनुपस्थिति में पिताजी ने अपने घर ही रख लिया…छह महीने तक मां की कोई सुध नहीं ली। अशोकनगर के घर में छोड़ दिया और खर्चा पानी भी नहीं भेजा।” ये तब की बात है, जब वे दस-बारह वर्ष के थे।
वे कहते हैं,”सोचने पर भी ध्यान नहीं आता कि मैं कभी पिताजी और बाई को लेकर भावनात्मक रूप से अभिभूत रहा हूं या नहीं। मैं शायद उनमें से किसी को भी प्यार नहीं करता था। कम से कम उस तरह नहीं जिस तरह बेटा पिता या मां के साथ जुड़ा होता है। और संवेदनात्मक निर्भरता महसूस करता है।” यही होता है, व्यक्ति जैसे परिवेश में पलता-बढ़ता है, एक दिन वह वैसा ही हो जाता है। परिवार की आपराधिक पृष्ठभूमि और असंवेदनशील माहौल में पालन-पोषण की वजह से राजेन्द्र यादव में भी असहिष्णुता, असंवेदनशीलता और आपराधिक प्रवृत्तियां पैदा हुईं।
इन पारिवारिक पृष्ठभूमियों के अलावा राजेन्द्र यादव की शारीरिक अक्षमता (शारीरिक अपंगता-विकलांगता-अक्षमता का पूरा सम्मान करते हुए। न जाने कितने विकलांग लोगों का उदाहरणीय-प्रेरक जीवन हमारे सामने है) और दूसरों पर निर्भर रहने की आदत ने भी उनमें कई कुंठाएं पैदा कीं। समर्थ रचनाकार होने और अपने परिवार का पालन पोषण कर पाने की क्षमता होने के बावजूद उन्होंने आर्थिक परतंत्रता ओढ़ ली। इन सबसे उपजी मानसिकता और घर में स्वछंद सेक्स जीवन और अपराध देखने की वजह से वे खुद भी वैसा ही करने लगे।
वे जीवन भर निकृष्टता ग्रंथि और सर्वश्रेष्ठता ग्रंथि (इनफिरियॉरिटी और सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) के बीच झूलते रहे। तभी तो इस उम्र में भी अपने संबंधों का प्रचार कर यही सुनना चाहते हैं कि वे कितने खूबसूरत, समर्थ और वांछनीय शहजादे हैं, जो पुराने अय्याशों की तरह रस-रंग में डूबे हैं, जिनका एक हरम है और जहां उन्होंने अपने शत्रुओं के सिर सजा रखे हैं। वे कहते तो हैं कि “व्यक्तित्व का विकास अपने आसपास के परिवेश, संस्कार और पारिवारिक दबावों को अस्वीकार करते हुए होता है….और वह विलक्षण होता जाता है।” वे विलक्षण तो हुए पर एक ऐसे साहित्यकार की तरह जो कभी “होना सोना एक दुश्मन के साथ” में स्त्री के शरीर की वीभत्स कल्पना और कुत्सित तरीके से उसका वर्णन करता है तो कभी ‘हंस’ के संपादकीय में स्त्री के यौनांगों का संधि विच्छेद बिना किसी संदर्भ और जरूरत के करता है। फिर भी वे खुद को महापुरुष समझते हैं।
वे अपने बारे में लिखते हैं, लेकिन अपनी ही मनोवैज्ञानिकता को नहीं समझ पाते। कारण, उनके लिए शरीर ही सबकुछ है। वे इस उम्र में भी ये नहीं समझ पाते कि शरीर का धर्म ही क्षय होना है। बावजूद इसके कि खुद के शरीर की “बेजान, सूखी और मरी हुई हड्डियों पर लटकी खाल” का भी अहसास उन्हें है। वे अभिनेत्री रमोला से मिलने जाते हैं तो उसे भद्दी, मोटी, फूहड़ और अस्वस्थ बुढ़िया के रूप में याद करते हैं। यह तो स्वाभाविक है। हम सबका यही हश्र होना है। रमोला की याद तो उनमें विरक्ति पैदा करती है, लेकिन खुद के बारे में सुनना चाहते हैं कि वे अभी भी बहुत आकर्षक और शहजादेनुमा हैं। एक ही अनुभव जो पचास साल से ज्यादा पुराना है, वही युवावस्था जो चालीस-पचास साल पहले विदा हो चुकी है, के पीछे क्यों पड़े हैं ! वे सच कहते हैं कि वे अपने पिता के प्रतिरूप हैं। पिता की ही तरह उन्होंने न तो अपनी पत्नी का साथ निभाया और न ही बेटी के लालन-पालन या जिम्मेदारी में हाथ बंटाया। राजेन्द्र यादव खुद भी ‘कंपल्सिव पैरासाइट’ हैं।”
(‘पाखी’ के मार्च 2013 के अंक से साभार। )

Related Articles

Leave a Comment