Home विषयइतिहास ‘स्वराज’ -6
82 हजार वर्ग मील के क्षेत्रफल वाली हैदराबाद रियासत भारत की सबसे बड़ी रियासतों में से एक थी। उसकी जनसंख्या लगभग डेढ़ करोड़ और वार्षिक राजस्व 26 करोड़ का था। रियासत की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू थी, लेकिन सेना, पुलिस और सिविल सेवा जैसे सभी विभाग लगभग पूरी तरह मुस्लिम नियंत्रण में थे।
3 जून 1947 को जब माउंटबैटन योजना घोषित हुई, तो निज़ाम ने भी एक फरमान जारी कर दिया कि हैदराबाद की रियासत भारत या पाकिस्तान दोनों में ही शामिल नहीं होगी और 15 अगस्त को इसे एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया जाएगा।
11 जुलाई को माउंटबैटन से चर्चा के लिए निज़ाम ने अपना एक प्रतिनिधि मण्डल दिल्ली भेजा। उनकी तीन माँगें थीं: बरार प्रांत (आज के महाराष्ट्र में विदर्भ का इलाका) निज़ाम को वापस लौटाया जाए, हैदराबाद को स्वायत्त राज्य का दर्जा दिया जाए और उसे भारत में विलय के लिए बाध्य न करें।
लेकिन इनमें से किसी भी मुद्दे पर सहमति नहीं बनी। निज़ाम के प्रतिनिधि मण्डल ने धमकी दी कि यदि भारत सरकार ने अनावश्यक दबाव डाला, तो हैदराबाद पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा। हैदराबाद के प्रतिनिधियों ने 25 जुलाई को माउंटबैटन के साथ होने वाली नरेन्द्र मण्डल की बैठक में उपस्थित होने से भी इनकार कर दिया।
माउंटबैटन को लगता था कि निज़ाम देर-सवेर भारत में ही शामिल होगा। उसकी राय थी कि निज़ाम को इस बात की चिंता नहीं है कि भारत में शामिल न होने पर रियासत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनता विद्रोह कर देगी, बल्कि उसे इस बात का डर है कि भारत में शामिल होने की सहमति देते ही रियासत की 15 प्रतिशत मुस्लिम जनता विद्रोह कर देगी और उनसे निपटना संभव नहीं होगा क्योंकि सेना, पुलिस और सभी सरकारी विभागों पर उन्हीं का नियंत्रण है। इसलिए उन्हें मनाने के लिए निज़ाम को थोड़ा समय दिया जाए।
लेकिन 8 अगस्त को निज़ाम ने माउंटबैटन से अनुरोध किया हैदराबाद को भारत और पाकिस्तान की बराबरी का स्वतंत्र देश माना जाए और दोनों देश उसके साथ आपसी समझौते करें।
निज़ाम ने यह प्रस्ताव भी दिया कि हैदराबाद अपनी विदेश नीति भारत सरकार के अनुकूल रखेगा और आवश्यकता होने पर भारत की सहायता के लिए अपनी सेना भी भेजेगा, पर साथ ही यह शर्त भी जोड़ दी कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होने पर हैदराबाद भारत को सहायता नहीं देगा। इसके अलावा यह शर्त भी रखी कि हैदराबाद को अन्य देशों में अपने राजदूत नियुक्त करने की आजादी मिले।
भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
17 अगस्त को हैदराबाद के प्रतिनिधि ने फिर माउंटबैटन को चिट्ठी लिखकर बातचीत के लिए समय माँगा। 25 अगस्त को मिलने की बात तय हो गई। लेकिन उसी दिन निज़ाम के सलाहकार सर वॉल्टर मोंक्टन ने माउंटबैटन को सूचित किया कि मजलिसे-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन (MIM) नामक संगठन के लोगों ने उन पर हिंसक हमला करके जान से मारने का प्रयास किया था, इसलिए उन्हें इस्तीफा देकर भागना पड़ा है। वैसे ही हमलों से भयभीत होकर निज़ाम के दो अन्य प्रमुख सहयोगियों ने भी अपने पद छोड़ दिए थे। वॉल्टर को मनाने के लिए निज़ाम ने एक और फरमान जारी करके कड़े शब्दों में उस हिंसक संगठन की निंदा की और खुद को उससे अलग बताया। वॉल्टर ने अब अपना इस्तीफा वापस ले लिया।
दोनों पक्षों की बातचीत फिर शुरू हुई। इस बार हैदराबाद रियासत ने प्रस्ताव दिया कि वह रक्षा, संचार और विदेश नीति के विषयों पर भारत सरकार से समझौता करने को तैयार है, लेकिन उस समझौते को ‘विलय-पत्र’ न कहकर ‘अंतर्नियमावली’ (आपसी नियमों का दस्तावेज) कहा जाए।
सरदार पटेल ने इस माँग को पूरी तरह ठुकरा दिया। उन्होंने निज़ाम को पत्र लिखकर कह दिया कि भारत सरकार विलय-पत्र के अलावा और कोई समझौता स्वीकार नहीं करेगी। 27 अगस्त को माउंटबैटन ने यह प्रस्ताव भेजा कि ब्रिटिश अधिकारियों की देख-रेख में हैदराबाद में जनमत संग्रह करवा कर लोगों से भारत में शामिल होने या न होने के बारे में राय ले ली जाए। लेकिन निज़ाम ने इसे भी नहीं माना।
8 सितंबर को निज़ाम के प्रतिनिधि फिर दिल्ली आए, लेकिन उनकी यह बातचीत भी सफल नहीं हुई। उस बैठक में माउंटबैटन ने यह प्रश्न भी उठाया कि हैदराबाद रियासत ने चेकोस्लोवाकिया से हथियार और गोला-बारूद खरीदने के लिए तीस लाख पाउंड (उस समय के लगभग चालीस करोड़ रुपये) का समझौता क्यों किया है? तब हैदराबाद ने तर्क दिया कि भारत सरकार ने उसे हथियारों की सामान्य आपूर्ति बंद कर दी है, इसलिए मजबूरी में चेकोस्लोवाकिया से हथियार और गोला-बारूद खरीदना पड़ रहा है।
यह बातचीत भी विफल हो जाने के बाद निज़ाम ने जिन्ना से संपर्क किया। निज़ाम सर ज़फरुल्ला खान को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त करना चाहता था, लेकिन पाकिस्तान ने पहले ही ज़फरुल्ला को संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया था, इसलिए निज़ाम ही हसरत पूरी नहीं हो पाई।
22 सितंबर को फिर हैदराबाद का प्रतिनिधिमंडल दिल्ली आया। फिर एक बार वही घिसी-पिटी माँगें रखी गईं और उन्हें भारत सरकार से वही पुराने जवाब मिले। अब नवाब अली यावर ने धमकी दी कि हैदराबाद को जबरन भारत में मिलाने का प्रयास हुआ, तो भीषण रक्तपात होगा क्योंकि हैदराबाद शहर की पचास प्रतिशत जनसंख्या मुस्लिम है और वह इस बात को स्वीकार नहीं करेगी। उसके बाद हिंसा की यह आग अन्य जिलों तक भी जाएगी और पूरी रियासत में कोहराम मच जाएगा।
माउंटबैटन ने उन्हें याद दिलाया कि रामपुर और भोपाल की रियासतों ने भी पहले ऐसी ही धमकियाँ दी थीं, लेकिन उनका कोई असर नहीं हुआ। साथ ही, यह भी बताया कि हैदराबाद रियासत को यह नहीं सोचना चाहिए कि अगर हिन्दू प्रजा से मारकाट की गई, तो भारत सरकार चुपचाप बैठी रहेगी। यह चाल भी विफल हो जाने के कारण अब हैदराबाद ने माँग रखी कि उसे विलय के लाभ-हानि का विचार करने के लिए और छः माह का समय दिया जाए।
कुछ दिनों बाद वॉल्टर मोंक्टन ने माउंटबैटन को रिपोर्ट भेजी कि अब निज़ाम पूरी तरह से भारत के विरोध में है और इस बात की कोई संभावना नहीं है कि वह कभी भारत में विलय की सहमति देगा। वॉल्टर ने यह भी लिखा कि निज़ाम ने उसे आदेश दिया है कि वह 1 अक्टूबर को कराची जाकर जिन्ना से मिलने का प्रयास करे।
वीपी मेनन को लगा कि हैदराबाद को झुकाना संभव नहीं होगा, इसलिए भारत सरकार को उसकी कुछ माँगें मानकर इस शर्त पर समझौता कर लेना चाहिए कि हैदराबाद पाकिस्तान में शामिल नहीं होगा।
सरदार पटेल ने यह प्रस्ताव नहीं माना। उनकी राय थी कि झुकने की बजाय भारत सरकार को बातचीत पूरी तरह बंद कर देनी चाहिए। लेकिन माउंटबैटन को यह सलाह पसंद नहीं आई।
अब वीपी मेनन और मोंक्टन ने मिलकर एक नया प्रस्ताव तैयार किया और उसे नेहरू, पटेल व माउंटबैटन की स्वीकृति के लिए भेजा गया। उनसे सहमति मिलने के बाद हैदराबाद के प्रतिनिधियों को उसका ड्राफ्ट दे दिया गया। उसे लेकर वे लोग 22 अक्टूबर को इस वादे के साथ दिल्ली से वापस लौटे कि वे इस पर निज़ाम के दस्तखत करवाकर वापस दिल्ली आएँगे।
निज़ाम ने अपने कार्यकारी मण्डल को वह दस्तावेज़ विचार के लिए सौंप दिया। तीन दिन के विचार-विमर्श के बाद निज़ाम की एग्जीक्यूटिव काउंसिल ने उसे मान लेने की सिफारिश की। 25 तारीख को इस निर्णय की जानकारी निज़ाम को दे दी गई और उसने इस पर सहमति भी दे दी, लेकिन हस्ताक्षर करने की बात अगले दिन पर टाल दी। 26 को फिर एक बार निज़ाम ने यही कहा कि वह इस समझौते पर कल दस्तखत करेगा।
27 अक्टूबर को प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों को निज़ाम के हस्ताक्षर लेकर दिल्ली जाना था। लेकिन उस दिन सुबह 3 बजे अचानक ही MIM के लगभग 30 हजार समर्थकों की भीड़ ने प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख सदस्यों के घरों को चारों तरफ से घेर लिया, ताकि वे लोग बाहर न निकल सकें। हैदराबाद पुलिस पूरी तरह नदारद थी। उनमें से एक सदस्य किसी तरह राज्य की सेना से संपर्क किया और तब जाकर सबकी जान बच पाई। उसी दिन दोपहर को निज़ाम ने उन लोगों को मिलने बुलाया और उनसे कहा कि वे अभी कुछ दिनों तक दिल्ली न जाएँ।
अगले दिन सुबह फिर एक बार निज़ाम ने अपने प्रतिनिधि मंडल के लोगों को मिलने बुलाया। कुछ देर बात करने के बाद उसने अचानक MIM के नेता कासिम रज़वी को भी उस बैठक में बुलवा लिया। सारे सदस्य दंग रह गए। अब रज़वी ने बैठक को संबोधित किया। उसका दावा था कि हैदराबाद रियासत भारत को झुकाने की ताकत रखती है, इसलिए निज़ाम को समझौते पर हस्ताक्षर करके हैदराबाद की पहचान मिटाने की गलती नहीं करनी चाहिए।
उन्हीं दिनों पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण किया था और भारतीय सेना वहाँ उलझी हुई थी। इसलिए रज़वी का तर्क था कि अगर हम भारत पर अभी दबाव बनाएँ, तो भारत सरकार मना नहीं कर पाएगी और हमारी हर शर्त मान लेगी। प्रतिनिधि मंडल के कई सदस्यों ने निज़ाम को समझाने का प्रयास किया कि यह गलती बहुत भारी पड़ेगी, लेकिन उसने किसी की बात नहीं मानी। इससे नाराज़ होकर उन सदस्यों ने अपने इस्तीफे सौंप दिए।
नवंबर में निज़ाम की सलाहकार समिति के अध्यक्ष ने भी इस्तीफा दे दिया। अब MIM ने निज़ाम पर दबाव बनाया कि वह मीर लायक अली या ज़ाहिद हुसैन में से किसी को अध्यक्ष नियुक्त करे। इनमें से एक पहले संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रतिनिधि रहा था और दूसरा भारत में पाकिस्तान का उच्चायुक्त था। निज़ाम ने जिन्ना से सलाह माँगी और उसने दोनों में से किसी को नियुक्त न करने की सलाह दी। लेकिन निज़ाम पर कासिम रज़वी का दबाव इतना ज्यादा था कि उसे जिन्ना की सलाह के बावजूद भी लायक अली को नियुक्त करना पड़ा। इतना ही नहीं, बल्कि समिति में कासिम रज़वी के कुछ और लोगों को भी शामिल करना पड़ा। इस प्रकार अब हैदराबाद की सरकार पर रज़वी का नियंत्रण हो गया।
फिर एक बार भारत सरकार के साथ वार्ता शुरू हुई और अंततः 29 नवंबर 1947 को दोनों पक्षों के बीच अगले एक वर्ष तक यथास्थिति बनाए रखने का समझौता हुआ।
लेकिन इसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। जब भारत सरकार ने कन्हैयालाल मुंशी को अपना प्रतिनिधि बनाकर हैदराबाद भेजने की घोषणा की, तो निज़ाम ने इस बात का विरोध किया। फिर उसने मुंशी के रहने के लिए अस्थायी आवास देने तक से मना कर दिया। भारतीय सेना की कुछ टुकड़ियां अंग्रेज़ों के समय से ही हैदराबाद रियासत में तैनात थीं। मुंशी जी और उनके स्टाफ के लिए सेना की इमारतों में से एक को खाली करवाकर वहाँ जगह बनाई गई।
निज़ाम ने भारत सरकार से यह माँग भी की कि भारतीय सेना यथाशीघ्र हैदराबाद से बाहर चली जाए और भारत सरकार हैदराबाद की सेना और पुलिस के लिए हथियारों की आपूर्ति करे। उधर मुंशी जी ने भारत सरकार को रिपोर्ट भेजी कि हैदराबाद में भारतीय सेना के कई बड़े शस्त्र भण्डार हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा केवल चौकीदारों के भरोसे है। अतः सरकार ने सेना को ऐसे सभी भण्डारों की समुचित सुरक्षा तय करने का आदेश दिया।
इधर निज़ाम ने भारत से यथास्थिति का समझौता किया था, पर दूसरी तरफ वह पाकिस्तान से भी अपनी दोस्ती को और आगे बढ़ाता जा रहा था। उसने भारत सरकार को बताए बिना ही कराची में अपना एक प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया था और पाकिस्तान को 20 करोड़ के कर्ज का आश्वासन भी हैदराबाद रियासत की ओर से दिया गया था, जबकि हैदराबाद के पास वह रकम भारत के सेक्युरिटी बांड के रूप में जमा थी।
उन्हीं दिनों निज़ाम ने दो फरमान और जारी किए। पहले आदेश में हैदराबाद से भारत को कोई भी बहुमूल्य धातु निर्यात करने पर रोक लगा दी गई और दूसरे आदेश से हैदराबाद में भारतीय रूपये को अवैध घोषित कर दिया गया।
ये सारी बातें यथास्थिति के समझौते का उल्लंघन थीं।
इसके बाद हैदराबाद ने उल्टा भारत सरकार पर ही यह आरोप भी लगाया कि भारतीय प्रेस जानबूझकर हैदराबाद के खिलाफ गलत ख़बरें फैला रही है और भारत सरकार हैदराबाद के लोगों को भारत में शामिल हो जाने के लिए उकसा रही है। इसी के जवाब में हैदराबाद में भारत विरोधी भावनाएँ भी भड़क रही हैं, लेकिन उसकी ज़िम्मेदार भारत सरकार खुद ही है।
उधर कासिम रज़वी के नेतृत्व में MIM की भारत-विरोधी गतिविधियाँ भी और तेज़ होती जा रही थीं। रज़ाकार नाम से उसका एक उग्रवादी संगठन भी था, जो हैदराबाद रियासत के सीमावर्ती जिलों से भारत पर हमले करता रहता था और रियासत के भीतर हिन्दू प्रजा को भी प्रताड़ित किया करता था। हैदराबाद सरकार की ओर से उन्हें पूरी सहायता भी मिल रही थी।
गाँवों के गरीब किसान और मजदूर उन अत्याचारों के सबसे बड़े शिकार थे। अब उन्होंने भी संगठित होकर इसका प्रतिकार करना शुरू किया। इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए वामपंथी भी आगे बढ़े और गरीब किसान-मजदूरों की मदद के नाम पर उन्होंने धीरे-धीरे इस आन्दोलन पर ही कब्जा कर लिया। कुछ जिलों में उन्होंने अपनी समानांतर सरकार खड़ी कर ली और अक्सर किसान-मजदूरों की बजाय रज़ाकारों को ही उनसे मदद मिलने लगी। मद्रास की प्रांतीय सरकार भी इससे परेशान थी। उसने भारत सरकार को रिपोर्ट भेजकर सैन्य सहायता माँगी।
21 फरवरी को मद्रास, बम्बई और मध्य प्रांत के नेताओं के साथ सरदार पटेल की बैठक हुई। उसमें सरदार पटेल ने उन्हें बताया कि भारत सरकार ने एक वर्ष का समझौता केवल इसलिए किया है क्योंकि भारत सरकार को उस मुद्दे से निपटने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन सही समय आने पर इस समस्या को जड़ से उखाड़ दिया जाएगा।
अगले कई हफ़्तों तक दिल्ली में बातचीत और हैदराबाद में हिंसक गतिविधियाँ चलती रहीं। अंततः 23 मार्च को भारत सरकार ने इस बारे में निज़ाम को एक आधिकारिक पत्र भेजा कि हैदराबाद सरकार ने समझौते की एक भी शर्त का पालन नहीं किया है।
इसके जवाब में निज़ाम के सलाहकार लायक अली ने भारत को बता दिया कि उसके आगे झुकने की बजाय निज़ाम हैदराबाद की रक्षा के लिए शहीद होने को भी तैयार है और रियासत के लाखों रज़ाकार भी मरने या मारने पर उतारू हो जाएँगे। रज़ाकारों ने भी लोगों को हर प्रकार की स्थिति के लिए तैयार रहने को कह दिया।
अब रज़ाकारों के हिंसक हमले भी बढ़ने लगे। 22 मई को मद्रास से बम्बई जाने वाली रेलगाड़ी पर गंगापुर स्टेशन पर हिंसक भीड़ ने हमला किया। इसमें दो लोगों की मौत हुई, ग्यारह घायल हुए और कुछ महिलाएँ व बच्चे लापता हो गए।
सरदार पटेल के सब्र का बांध भी अब टूटने लगा था। उन्होंने राय दी कि अब भारत सरकार को निज़ाम के साथ बातचीत पूरी तरह बंद कर देनी चाहिए। इसके बावजूद भी अगले एक माह तक बातचीत के प्रयास चलते रहे। हर बार निज़ाम के प्रतिनिधि कोई नया प्रस्ताव लेकर आते थे और बाद में निज़ाम उससे पलट जाता था। अंततः 17 जून को प्रधानमंत्री नेहरू ने यह घोषणा कर दी कि भारत सरकार अब निज़ाम से कोई बात नहीं करेगी।
21 जून 1948 को लॉर्ड माउंटबैटन की ब्रिटेन वापसी हो गई और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के नए गवर्नर जनरल बने। उन्हें अभी भी आशा थी कि वे निज़ाम को मनाने में सफल हो जाएँगे। लेकिन बाकी सब लोग जानते थे कि वह काम असंभव था।
दोनों पक्षों के बीच तनाव लगातार बढ़ता रहा और हिंसक वारदातें भी बढ़ती रहीं। इसी बीच तीन बड़ी घटनाएँ हुईं।
पहली यह कि निज़ाम की कार्यकारी परिषद के एक सदस्य जे. वी. जोशी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने लायक अली को पत्र लिखा कि कई जिलों में क़ानून-व्यवस्था पूरी तरह ठप हो चुकी है और पुलिस खुद भी रज़ाकारों के साथ मिलकर लूटपाट, आगजनी, हत्या, और बलात्कार जैसे भीषण दुष्कृत्य कर रही है। हज़ारों की संख्या में हिन्दुओं ने पलायन कर दी है और वे रियासत की सीमा से बाहर भाग रहे हैं।
दूसरी यह कि निज़ाम की सरकार ने वामपंथी संगठनों पर 1943 में लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया और वामपंथियों ने भारत सरकार के खिलाफ रज़ाकारों से गठबंधन कर लिया। दूसरी तरफ निज़ाम का विरोध करने वाले दस हजार से अधिक लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया।
तीसरी बात यह सामने आई कि कराची से हवाई जहाज में हथियार लाकर वामपंथियों और रज़ाकारों तक पहुँचाए जा रहे हैं।
अब भारत सरकार के लिए चुप बैठना संभव नहीं था। उसने हैदराबाद पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए और सैन्य शक्ति का भी हिसाब लगाया। भारत सरकार का अनुमान था कि हैदराबाद रियासत की सेना और पुलिस में लगभग 42000 जवान थे और रज़ाकारों के पास भी 2 लाख की सेना थी। इसके अलावा बड़ी संख्या में पाकिस्तान से पठानों को लाकर भी रियासत में बसाया गया था।
लेकिन अभी भी सैन्य आक्रमण के बारे में सहमति नहीं बनी थी। भारत सरकार के भीतर ही कुछ लोगों को आशंका थी कि यदि हैदराबाद पर हमला किया गया, तो पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगे छिड़ जाएँगे और हिन्दू-मुसलमान हज़ारों की संख्या में आपस में लड़कर मारे जाएँगे। दूसरी आशंका यह भी थी कि भारत ने अगर हैदराबाद पर हमला किया, तो पाकिस्तान की सेना भी भारत पर हमला कर देगी।
इधर भारतीय प्रेस और भारत की जनता दोनों ही इस बात के लिए सरकार की आलोचना करने लगे थे कि इतनी भीषण घटनाओं के बाद भी भारत सरकार कोई कार्यवाही करने की बजाय निष्क्रिय बैठी हुई है। जो लोग अपनी जान बचाकर हैदराबाद से भागकर आए थे, उन पर हुए अत्याचारों की कहानियां सुनकर लोगों का आक्रोश और बढ़ता जा रहा था। भारत सरकार को हैदराबाद राज्य की सीमा से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी की सुरक्षा के लिए भी सैनिक साथ भेजने पड़ रहे थे। संसद में भी सरकार की आलोचना के स्वर सुनाई देने लगे थे।
भारतीय सेना हर स्थिति से निपटने के लिए तैयार थी। भारत के अन्य भागों में तैनाती के लिए नेपाल से भी कई गुरखा बटालियनें बुलवा ली गईं थीं। लेकिन जब भी हैदराबाद पर हमले की बात उठती थी, तब काँग्रेस के ही कुछ लोग सांप्रदायिक दंगों का भय जताने लगते थे।
इधर हैदराबाद सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल कराची गया और वहाँ से अमरीका जाकर उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी अर्जी लगाई और अमरीकी राष्ट्रपति से भी मदद की अपील की गई।
अंततः 9 सितंबर को भारत सरकार ने हैदराबाद की समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए सेना को भेजने का निर्णय ले लिया। सेना की दक्षिणी कमान को इस बात की सूचना दे दी गई और उसने 13 सितंबर की सुबह हैदराबाद की सीमा में घुसने की योजना भी बना ली और केवल 108 घंटों बाद ही सेना ने यह ऑपरेशन पूरा कर लिया।
17 सितंबर को हैदराबाद की सेना ने भारत के आगे घुटने टेक दिए और उसी दिन हैदराबाद के प्रधानमंत्री और केबिनेट ने भी इस्तीफा दे दिया।
भारत सरकार ने आदेश जारी किया कि नई व्यवस्था लागू होने तक हैदराबाद भारत सेना के नियंत्रण में ही रहेगा। उसी के अनुसार 18 सितंबर को भारतीय सेना के मेजर-जनरल जे. एन. चौधरी ने हैदराबाद रियासत का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया। सेना ने लोगों से शांति और सहयोग की अपील की।
लायक अली और उसकी केबिनेट के सभी मंत्रियों को उनके घरों में नज़रबंद कर दिया गया और कासिम रज़वी सहित रज़ाकारों के सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए। निज़ाम ने भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को पत्र लिखकर अपनी पिछली अर्जी वापस ले ली।
भारत सरकार ने भी तय किया कि निज़ाम को तुरंत उसके पद से न हटाया जाए। के.एम. मुंशी भी अब निज़ाम की नजरबंदी से छूट गए थे, लेकिन इस तनाव से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था, अतः उन्हें इलाज के लिए बम्बई भेज दिया गया।
अब भारत का एक प्रतिनिधिमंडल हैदराबाद पहुँचा। वहाँ के मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने उससे मिलकर यह पक्ष रखा कि निज़ाम के शासन में रज़ाकारों ने कई मुसलमानों पर भी अत्याचार किए थे और बहुत-से बेगुनाह लोगों को मजबूरी में रज़ाकारों का साथ देना पड़ा था। इसलिए भारत सरकार को रज़ाकारों पर कड़ी कार्यवाही करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बेगुनाहों को सज़ा न मिले। उन्होंने यह माँग भी की कि इस हिंसा और संघर्ष के कारण जो आर्थिक नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए भारत सरकार से मुआवजा भी मिले।
निज़ाम और कासिम रज़वी ने भी भारत सरकार को सन्देश भिजवाया कि भारत के प्रति उनके मन में पूरी निष्ठा है और वे दक्षिण भारत में शान्ति बनाए रखने के लिए सदा समर्पित रहेंगे। हालांकि सरकार ने इन बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसकी बजाय निज़ाम से अपनी प्रजा के नाम यह फरमान जारी करवाया गया कि भारतीय सेना और नए प्रशासन के साथ पूरा सहयोग किया जाए।
भारत सरकार चाहती थी कि रियासत का प्रशासन जल्दी ही सेना की बजाय जनता के प्रतिनिधियों को सौंप दिया जाए। लेकिन वहाँ की स्थिति को देखते हुए यह काम धीरे-धीरे ही हो सकता था। एक तो विद्रोह और हिंसक संघर्ष के कारण रियासत का आर्थिक ढांचा पूरी तरह चरमराया हुआ था। दूसरा वहाँ की सेना और पुलिस के लगभग सारे लोग एक ही समुदाय के थे और वे रज़ाकारों के समर्थक थे। तीसरा, अभी भी वामपंथियों का उग्रवाद अभी भी जारी था, इसलिए शांति स्थापित करने के लिए उसे भी कुचलना आवश्यक था।
इन सब बातों के कारण दिसंबर 1949 तक हैदराबाद पूरी तरह सैन्य शासन के अधीन रहा। इसके बाद सिविल सेवा के एक अधिकारी एम. के. वेल्लोड़ी को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। फिर 1950 में पहली बार प्रदेश काँग्रेस के चार सदस्यों को मंत्रिमंडल में लिया गया। मार्च 1952 में पहले आम चुनाव के बाद काँग्रेस के बी. रामकृष्ण राव के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ और वेल्लोड़ी को सरकार का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया।
रज़ाकारों पर भी मुकदमे चलाए गए। जो लोग गंभीर अपराधों में शामिल नहीं थे, उन्हें रिहा कर दिया गया। रज़वी सहित अन्य सभी गंभीर अपराधियों को कारावास की सजा सुनाई गई।
सेना ने लोगों से अपील की थी कि वे संघर्ष की उम्मीद छोड़ दें और स्वेच्छा से अपने सभी हथियार लाकर सेना को सौंप दें। लेकिन कई लोगों ने ऐसा करने की बजाय वे हथियार वामपंथी उग्रवादियों को सौंप दिए और वामपंथियों ने भारतीय सेना और सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष जारी रखा। उनसे निपटने के लिए भारत सरकार ने भी मद्रास, बम्बई और मध्य प्रांत से सशस्त्र पुलिस को हैदराबाद भेजा। अंततः तीन वर्षों के हिंसक संघर्ष के बाद उन पर थोड़ा नियंत्रण पाया जा सका।
जागीरदारी की प्रणाली भी 15 अगस्त 1949 को समाप्त कर दी गई और सरकार ने सभी जागीरदारों को मुआवजे देकर उनकी जमीनों को अपने अधिकार में ले लिया।
नवंबर 1949 में भारत की संविधान सभा ने भारत का नया संविधान पूरी तरह तैयार कर लिया था। 23 नवंबर को हैदराबाद के निज़ाम ने भी एक फरमान जारी करके यह घोषणा कर दी कि भारत का वही नया संविधान हैदराबाद रियासत का भी संविधान होगा। इस तरह भारत में हैदराबाद रियासत का विलय पूरा हुआ।
दिसंबर 1950 में सरदार पटेल की मौत हो गई।
1951 में इस बात पर विचार हुआ कि वामपंथी संगठनों पर लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया जाए। हालांकि राज्य सरकार ने सिफारिश की थी कि जब तक वामपंथी संगठन पूरी तरह आत्मसमर्पण करके अपने सारे हथियार सेना को न सौंप दें और केवल शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक मार्ग पर चलने का वचन न दे दें, तब तक ऐसा नहीं करना चाहिए। इसके बावजूद भी नेहरू जी की सरकार ने आम चुनाव से पहले वह प्रतिबंध हटा दिया।
मार्च 1950 में ही लायक अली को रिहा कर दिया गया और वह हमेशा के लिए पाकिस्तान में बस गया। आगे उसने पाकिस्तान सरकार में भी काम किया। कासिम रज़वी को भी 1957 में इसी शर्त पर छोड़ दिया गया और उसने भी हमेशा के लिए पाकिस्तान में शरण ली।
भारत छोड़ने से पहले रज़वी ने MIM की ज़िम्मेदारी अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंप दी। इसके बाद MIM के आगे ऑल इण्डिया जोड़कर इसका नया नामकरण AIMIM किया गया। फिर 1975 में AIMIM की बागडोर अब्दुल वाहिद ओवैसी के बेटे सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने संभाली, और उनके बाद 2008 से अब तक उनके सुपुत्र असदुद्दीन ओवैसी AIMIM के अध्यक्ष हैं।
अगले भाग में काश्मीर…

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