Home विषयइतिहास स्वराज 8 : महाराजा हरिसिंह
26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-काश्मीर रियासत के महाराजा हरिसिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और अपनी रियासत को भारत में मिलाने की सहमति दे दी। नेशनल कान्फ्रेंस और उसके नेता शेख अब्दुल्ला भी इस विलय के पक्ष में थे।
लेकिन माउंटबैटन और ब्रिटिश सरकार को यह बात पसंद नहीं थी। वे शुरू से प्रयास करते आ रहे थे कि काश्मीर या तो पाकिस्तान में मिल जाए या स्वतंत्र बना रहे। भारत के गवर्नर जनरल माउंटबैटन ही उस समय केबिनेट की रक्षा समिति के सभापति भी थे और भारत व पाकिस्तान की सेनाओं के कमांडर भी दो ब्रिटिश ऑफिसर थे, इसलिए भारतीय सेना पर अंग्रेजों का पूरा नियंत्रण था।
इसका लाभ उठाकर वे लगातार इस बात के लिए प्रयास करते रहे कि भारत की सेना काश्मीर तक न पहुँच पाए। महाराजा हरिसिंह के अनुरोध को मानकर भारतीय केबिनेट ने सेना को उनकी सहायता करने का आदेश दिया था, जिसे नहीं माना गया। जब पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित घुसपैठिये सशस्त्र आक्रमण के लिए काश्मीर में घुसे, उसके दो दिन पहले ही पाकिस्तानी सेना के ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय सेना के ब्रिटिश अधिकारियों को इस बात की जानकारी दे दी थी, फिर भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया।
जब महाराजा हरिसिंह ने भारत के विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और भारत सरकार ने यह निर्णय ले लिया कि जम्मू-काश्मीर को बचाने के लिए तुरंत सेना भेजी जाए, तब भी माउंटबैटन और भारत की सेना के ब्रिटिश कमांडर इसमें आनाकानी करते रहे। अंततः नेहरू जी उन्हें याद दिलाया कि अगर भारतीय सेना तुरंत जम्मू-काश्मीर नहीं पहुँची, तो श्रीनगर में रहने वाले ब्रिटिश नागरिक भी पाकिस्तानी हमलावरों का शिकार बनेंगे। तब जाकर उन्होंने सरकार की बात मानी।
जिस दिन नेहरू सरकार ने श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी, और उसी दिन नेहरूजी को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने तार भेजा कि भारत और पाकिस्तान को युद्ध के बजाय बातचीत से विवाद सुलझाना चाहिए और भारतीय सेना को काश्मीर के मामले में दखल नहीं देना चाहिए।
उधर जिन्ना ने भी भारतीय सेना के श्रीनगर आगमन का समाचार पाते ही पाकिस्तानी सेना के कमांडर को आदेश दिया कि वह भी पाकिस्तानी सेना को काश्मीर पर हमले के लिए भेजे। पाकिस्तानी सेना का कमांडर भी एक अंग्रेज अधिकारी ही था। उसने आदेश मानने से इनकार कर दिया। अगले दिन ब्रिटिश फील्ड मार्शल ऑशिनलेक ने भी लाहौर पहुँचकर जिन्ना को समझा दिया कि भारत और पाकिस्तान दोनों सेनाओं में ब्रिटिश अधिकारी और सैनिक हैं, लेकिन इन दोनों देशों के झगड़े में ब्रिटेन अपने सैनिकों को आपस में नहीं लड़वाएगा। अगर पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, तो दोनों सेनाओं के ब्रिटिश अधिकारी और सैनिक तुरंत इससे अलग हो जाएँगे। हारकर जिन्ना को अपना आदेश वापस लेना पड़ा।
अब नई चाल चलते हुए जिन्ना ने तुरंत ही माउंटबैटन, नेहरू, हरिसिंह और जम्मू-काश्मीर रियासत के प्रधानमंत्री को बातचीत के लिए लाहौर आने का निमंत्रण भिजवाया। माउंटबैटन इस निमंत्रण से बहुत उत्साहित थे और उन्होंने इस बातचीत के लिए नेहरू को अपने साथ चलने का सुझाव दिया। लेकिन सरदार पटेल ने इस बातचीत के प्रस्ताव पर कड़ी आपत्ति जताई। उनका कहना था कि जम्मू-काश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन चुका है और भारतीय सीमा में घुसपैठ करना पाकिस्तान की गलती है, इसलिए भारत सरकार जिन्ना के आगे झुकने की बजाय उसे दिल्ली बुलाया जाना चाहिए। लेकिन नेहरू और माउंटबैटन दोनों को ही यह सुझाव पसंद नहीं आया। अब नेहरू और पटेल का यह विवाद हमेशा की तरह निपटारे के लिए गांधीजी के पास ले जाया गया। वहाँ बातचीत चल ही रही थी कि यह पता चला कि नेहरू जी को तेज बुखार है। इसलिए यह निर्णय हुआ कि ऐसे समय उन्हें यात्रा नहीं करनी चाहिए।
अंततः माउंटबैटन अकेले ही 1 नवंबर को जिन्ना से मिलने लाहौर गए। वहाँ उन्होंने यह सुझाव दे डाला कि संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में काश्मीर में जनमत-संग्रह करवाकर वहाँ के लोगों की राय ली जाए। लेकिन जिन्ना ने इस सुझाव को पूरी तरह खारिज कर दिया। उसका कहना था कि राज्य में जब तक भारतीय सेना मौजूद है और शेख अब्दुल्ला का शासन है, तब तक वहाँ की जनता निर्भय होकर मतदान नहीं कर पाएगी। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की बजाय माउंटबैटन और जिन्ना की संयुक्त निगरानी में जनमत-संग्रह करवाया जाए। इस सुझाव को माउंटबैटन ने खारिज कर दिया और बातचीत विफल हो गई।
अगले दिन 2 नवंबर को नेहरू जी ने रेडियो पर भाषण देते हुए यह घोषणा कर दी कि जम्मू-काश्मीर में स्थिति सामान्य हो जाने पर भारत सरकार वहाँ संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत-संग्रह करवाएगी। 21 नवंबर को भारतीय संसद में भी नेहरू जी अपनी बात दोहराई।
माउंटबैटन अभी भी पाकिस्तान को लाभ पहुँचाने में लगे हुए थे। भारत लौटने पर उन्होंने नेहरूजी से मिलकर इस बात पर नाराजगी जताई कि भारतीय सेना काश्मीर में पाकिस्तानी हमलावरों से बहुत आक्रामक ढंग से लड़ रही है और केवल हमलावरों को रोकने की बजाय सेना पूरे इलाके पर अधिकार जमाने के लिए आगे बढ़ती जा रही है।
दिसंबर के पहले सप्ताह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान दोनों देशों की संयुक्त रक्षा समिति की बैठक के लिए दिल्ली आए। तब भी माउंटबैटन ने सुझाव दिया कि नेहरू जी को लियाकत अली से मिलना चाहिए। लेकिन कुछ ही समय पहले नेहरू जी ने मना कर दिया क्योंकि कुछ ही समय पहले उन्हें लियाकत अली खान से एक तार मिला था, जिसमें शेख अब्दुल्ला के बारे में लिखी गई बातें उन्हें अच्छी नहीं लगी थीं। एक माह पहले 4 नवंबर को लाहौर से एक रेडियो प्रसारण में भी लियाकत अली खान ने भारत पर उल्टे-सीधे आरोप लगाए थे।
लेकिन फिर भी माउंटबैटन के दबाव में नेहरू जी लियाकत अली से मिलने को राजी हो गए। इस बैठक में भी माउंटबैटन का ही पूरा दखल बना रहा। उन्होंने यह प्रस्ताव तैयार करवाया कि पाकिस्तान सरकार काश्मीर से हमलावरों को वापस बुलाने का पूरा प्रयास करेगी, उसके बाद भारत सरकार भी थोड़ी-सी सेना के अलावा अपनी सारी सेना को जम्मू-काश्मीर से हटा लेगी और उसके बाद दोनों देशों की सरकारें मिलकर संयुक्त राष्ट्र को आवेदन भेजेंगी कि संयुक्त राष्ट्र का एक प्रतिनिधिमंडल काश्मीर का दौरा करे और भारत, पाकिस्तान व काश्मीर की सरकारों को इस बारे में सुझाव दे कि वहाँ निष्पक्ष जनमत-संग्रह कैसे करवाया जाए।
भारत को आशा थी कि पाकिस्तान इस प्रस्ताव को मान लेगा। लियाकत अली खान ने भी इसे मानने का दिखावा किया, लेकिन पाकिस्तान लौटते ही उन्होंने फिर भारत को धोखा दे दिया। भारतीय सेना ने अपनी सरकार को सूचना भेजी कि पाकिस्तान ने काश्मीर के कुछ इलाकों में अपने हमलावरों की संख्या और भी बढ़ा दी है, वहाँ बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिमों का नरसंहार हो रहा है और युवतियों व महिलाओं का अपहरण करके उनकी नीलामी करवाई जा रही है।
अब भारत सरकार को लगा कि पाकिस्तान से कोई भी बातचीत करना बेकार है, लेकिन माउंटबैटन अभी भी इसी प्रयास में लगे रहे कि भारत बातचीत बंद न करे। नेहरू जी ने फिर एक बार इस दबाव के आगे सिर झुका दिया और 8 दिसंबर को वे लियाकत अली से बातचीत के लिए माउंटबैटन के साथ लाहौर गए। बातचीत इस बार भी विफल रही और पाकिस्तान सरकार हर बात से असहमति जताने का कोई न कोई बहाना बनाती रही।
अगले एक माह तक भारत सरकार और माउंटबैटन के बीच भी खींचतान चलती रही। केबिनेट लगातार आग्रह कर रही थी कि भारतीय सेना और आक्रामक होकर कार्रवाई करे व पाकिस्तानी हमलावरों को पूरे जम्मू-काश्मीर राज्य से बाहर खदेड़ा जाए। लेकिन अंग्रेज गवर्नर जनरल व अंग्रेज सेना-प्रमुख इसमें आनाकानी कर रहे थे।
20 दिसंबर को भारत सरकार को इस बात की खबर लगी कि पाकिस्तानी सेना के ब्रिटिश कमांडर ने हमले से दो दिन पहले ही भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर को इस बात की सूचना दे दी थी, फिर भी भारतीय सैन्य कमांडर ने न तो कोई एक्शन लिया और न भारत सरकार को जानकारी दी।
अब पानी सर से ऊपर निकल गया था।
उसी दिन एक उच्च-स्तरीय बैठक बुलाई गई। उस बैठक में नेहरूजी ने गवर्नर जनरल और सैन्य कमांडर से साफ़ कह दिया कि उनका यह कमजोर तरीका अब भारत सरकार को स्वीकार नहीं है। भारतीय सेना को तुरंत एक आक्रामक हमले की योजना बनानी चाहिए और काश्मीर को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने के लिए तेजी से कार्यवाही करनी चाहिए।
अब माउंटबैटन को आशंका हुई कि पिछले कई महीनों से वे काश्मीर को भारत में मिलने से रोकने के लिए जो भी प्रयास कर रहे थे, वे सब विफल होने वाले हैं। इसलिए अब उन्होंने एक और दांव चला। उन्होंने गांधीजी और नेहरूजी से आग्रह किया कि आक्रामक सैन्य कार्रवाई करने की बजाय भारत सरकार उनका पिछला सुझाव मान ले और इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाए।
शुरू में नेहरूजी इस बात से सहमत नहीं हो रहे थे। तब माउंटबैटन ने यह सुझाव दिया कि दोनों काम किए जाएँ; भारतीय सेना पाकिस्तान पर आक्रामक हमले की योजना भी बनाए और भारत सरकार काश्मीर के विवाद को संयुक्त राष्ट्र में भी उठाए। अंततः अब नेहरूजी ने माउंटबैटन की सलाह मान ली।
एक संभावित कारण यह भी हो सकता है कि भीषण सर्दी और बर्फबारी का मौसम शुरू होने वाला था, जिसमें युद्ध लड़ना सेना के लिए भी बहुत कठिन था। शायद इसलिए भी युद्ध को रोकने का कोई तरीका सोचना आवश्यक था। नेहरूजी को आशा थी कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भारत की न्यायसंगत माँग को स्वीकार करेगी और पाकिस्तानी सेना को वापस लौट जाने का आदेश देगी।
अंततः 1 जनवरी 1948 को नेहरू जी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को एक पत्र लिखा। इसमें कहा गया था कि जम्मू-काश्मीर की रियासत ने भारत में विलय की लिखित सहमति दी है। इसके बावजूद भी पाकिस्तान ने अपनी सेना भेजकर काश्मीर पर हमला किया, इसलिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पाकिस्तान को तुरंत काश्मीर से अपनी सेना वापस बुलाने का आदेश जारी करे। इसके जवाब में 15 जनवरी को पाकिस्तान ने भी सुरक्षा परिषद को एक पत्र लिखकर भारत के खिलाफ शिकायतों की झड़ी लगा दी।
लेकिन नेहरू जी की आशा के विपरीत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पाकिस्तान को काश्मीर छोड़ने का कोई आदेश नहीं दिया। इसकी बजाय 20 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र ने कश्मीर मामले को सुलझाने के लिए तीन सदस्यों की एक समिति के गठन का प्रस्ताव पारित किया, जिसमें दोनों देश एक-एक सदस्य को नियुक्त करते और फिर वे दोनों सदस्य मिलकर तीसरे सदस्य को चुनते।
इसके बाद अप्रैल में दूसरा प्रस्ताव आया, जिसमें सदस्यों की संख्या बढ़ाकर पाँच कर दी गई। इसके अलावा पाकिस्तान से कहा गया कि उसके जितने लोग युद्ध के इरादे से काश्मीर में घुसे थे, उन सबको वह वापस बुलाए और फिर भारत भी केवल उतनी सेना काश्मीर में रखे, जितनी वहाँ सुरक्षा के लिए आवश्यक है। उसके बाद जनमत-संग्रह करवाया जाए। इस जनमत संग्रह की निगरानी के लिए संयुक्त राष्ट्र का एक दल वहाँ भेजा जाए। जनमत-संग्रह केवल इस बात पर होना था कि जम्मू-काश्मीर भारत का हिस्सा बने या पाकिस्तान का। काश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने का कोई विकल्प इसमें नहीं था।
यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में पारित तो हो गया, लेकिन पाकिस्तान ने वास्तव में इसे माना नहीं। उल्टा अप्रैल में जिन्ना ने अपनी सेना को काश्मीर पर हमले और तेज करने का आदेश दिया। दूसरी तरफ माउंटबैटन ने फिर एक बार भारत को धोखा ही दिया। भारत सरकार ने तो संयुक्त राष्ट्र में काश्मीर मुद्दे के बारे में शिकायत दर्ज करवा दी, लेकिन भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर ने पाकिस्तान पर हमले की कोई योजना तैयार ही नहीं की थी। कई महीनों तक नेहरूजी अपनी ही सेना के कमांडर और अपने ही गवर्नर जनरल के पास इस बात की शिकायत करते रहे और वे दोनों लगातार बहाने बनाकर इस बात को टालते रहे।
पाकिस्तानी सेना के ब्रिटिश कमांडर ने नवंबर 1947 में ही गिलगित के इलाके पर पाकिस्तानी झंडा फहराकर उस पर कब्जा कर लिया था। लद्दाख की भी शायद यही स्थिति हुई होती, लेकिन ब्रिगेडियर एल.के. सेन के नेतृत्व वाली 42 सैनिकों की टुकड़ी ने सैन्य मुख्यालय से स्वीकृति मिलने की प्रतीक्षा किए बिना बर्फीले तूफ़ान के बीच भी पैदल ही आगे बढ़कर जोज़ी ला की 5000 मीटर ऊँची चोटी पर अधिकार कर लिया और पाकिस्तानी सेना का लद्दाख में घुसने का रास्ता रोक दिया। अन्यथा गिलगित के समान ही लद्दाख भी शायद आज पाकिस्तान के नियंत्रण में होता।
पचास वर्षों बाद लन्दन के इण्डिया ऑफिस को जब पुराने दस्तावेज सार्वजनिक करने पड़े, तब एक और सत्य सामने आया कि उन दिनों युद्ध के दौरान जब भारत के सैनिक लद्दाख को पाकिस्तान से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब भारत के ब्रिटिश सैन्य कमांडर रॉय बचर उनकी सहायता के लिए कुछ करने के बजाय दरअसल लंदन में पाकिस्तानी सेना के ब्रिटिश सैन्य कमांडर के साथ मिलकर जम्मू-काश्मीर राज्य के बंटवारे का गुप्त-समझौता करने में व्यस्त थे।
वास्तव में भारतीय सैनिकों की वीरता और पराक्रम के कारण ही भारत की स्थिति मजबूत हुई। नेहरू जी लगभग पूरी तरह माउंटबैटन के दबाव में काम कर रहे थे और माउंटबैटन व उनके अंग्रेज अधिकारी हर तरह से काश्मीर को भारत से दूर रखने के प्रयास में लगे हुए थे।
जिन्ना के आदेश पर मई 1948 में पाकिस्तान ने काश्मीर में अपनी सेना की तैनाती और बढ़ा दी। बदले में भारतीय सेना ने भी हमले और तेज कर दिए। अब भारत की सेना तेजी से आगे बढ़ते हुए पाकिस्तानियों को खदेड़ती जा रही थी।
इस स्थिति को देखकर संयुक्त राष्ट्र ने चिंता जताई कि ऐसे माहौल में जनमत-संग्रह असंभव है। इसलिए अगस्त 1948 में उसने दोनों देशों से आग्रह किया कि वे युद्ध-विराम को स्वीकार करें और लड़ाई बंद कर दें। दिसंबर 1948 में संयुक्त राष्ट्र का दल फिर एक बार दोनों सरकारों से बात करने के लिए नई दिल्ली और कराची गया। अंततः दोनों सरकारों ने युद्ध-विराम की सहमति दे दी और 1 जनवरी 1949 को यह युद्ध-विराम लागू हो गया। दोनों देशों की सेनाएँ उस समय जहाँ खड़ी थीं, वहीं रुक गईं और वह सीमा-रेखा इन दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा बन गई। वही सीमा-रेखा लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) है।
1 जनवरी 1949 को जब दोनों सेनाओं के बीच युद्ध-विराम हुआ, तो जम्मू-काश्मीर राज्य लगभग उसी तरह विभाजित हो चुका था, जैसी सीमा-रेखा इन दोनों ब्रिटिश अधिकारियों ने तय की थी। आज तक भारत और पाकिस्तान की सेनाएँ उसी सीमा पर खड़ी हैं!

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