Home लेखकBhagwan Singh आपराधिक मानसिकता के जातिवादी मुसलमान की तलाश

आपराधिक मानसिकता के जातिवादी मुसलमान की तलाश

by Bhagwan Singh
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मुझे उस मुसलमान की तलाश करनी होगी जो न जानता हो कि नूपुर शर्मा ने जो कुछ किसी उकसावे में कह दिया और किसी बहाने की तलाश करने वाले उसका उपयोग करते हुए भारत में भी ईशनिंदा को स्वीकार्य बनाने का अभियान चला रहे हैं, वह निराधार नहीं है। मुझे उस पढ़े-लिखे मुसलमान की तलाश है जो नहीं जानता कि इसी की आड़ लेकर अमीर देशों के बूढ़े अपनी हवस मिटाने के लिए निर्लज्जता से भारत में आकर सात-8 साल की निर्धन परिवारों की बच्चियों से भारी पैसा देकर निकाह करते थे, इसी नजीर की आड़ लेकर, अपनी कीमत वसूल करने के बाद काजी निकाह संपन्न कराते थे और जिस को आधार बनाकर एक फिल्म बनी थी जिसका शीर्षक था ‘बाजार’। अफवाहों को उड़ती हवा से पकड़ने वाली जमात को बाजार फिल्म का पता जरूर होगा। पाकिस्तान में एक बूढ़े ने एक 8 साल की बच्ची से निकाह किया, मुकदमा चला, मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा, उसे दंडित करने का फैसला होना था, इसी बीच उसने नबी की नजीर रख दी और अपराध से मुक्त हो गया।
यह सच है कि सैटेनिक वर्सेज मुझे (बुकर पुरस्कार के बाद भी) एक घटिया कृति इसलिए लगती है कि उसमें ईसाई मानसिकता को तुष्ट करने के लिए मुहम्मद साहब की बीवियों का और खास कर आयशा का ऐसा चित्रण किया गया है जिसका मैं वर्णन इसलिए ही नहीं कर सकता कि वह इतना गर्हित है जिसे मैं अशोभन मानता हूं। किसी की भावना भड़कने की नौबत ही न आई थी, क्योंकि मुल्ले क्रिस्तानों का लिखा या उनकी भाषा में लिखा कुछ पढ़ते ही नहीं। यदि मिडनाइट चिल्ड्रेन में इंद्रा जी का जो चित्रण रश्दी ने किया था उससे राजीव गांधी आहत न रहे होते तो पुस्तक प्रतिबंधित न होती। पुस्तक को भारत ने पहले बैन किया और खोमैनी ने बाद मे उनका सिर कलम करने पर इनाम की घोषणा की।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायती ब्रिटिश सरकार ने रश्दी को भारी कीमत पर पूरी सुरक्षा दी। उसके बाद से रश्दी कई बार भारत आ चुके हैं उनके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ न उनके कारण भारत का माहौल बिगड़ा। नूपुर शर्मा ने अपने को उत्पीड़ित करने के लिए जगह जगह दायर किए गए मुकदमों को, अपने को मिलने वाली धमकियों के बीच, अपनी प्राण रक्षा के लिए, वापस लेने का आवेदन नहीं किया, केवल दिल्ली में सभी की एकत्र सुनवाई का आवेदन किया था । मैं उस न्यायाधीश का अपमान नहीं कर सकता, जिसे दैवी सुरक्षा मिली हुई है, परंतु उस न्यायव्यवस्था की आलोचना अवश्य करना चाहूंगा जिसमें ऐसे लोग भी महा न्यायाधीश बनाए जा सकते हैं जिनको इनमें से किसी बात का पता न हो और जो न्याय से भाग न रहा हो, केवल प्राण रक्षा
चाहता हो, उसे उसका पक्ष सुने बिना, विचारणीय सीमा से आगे जाकर, क्षमा मांगने का दंड देने का अधिकार भी रखता है और जीवन रक्षा की याचना करने वाले को असुरक्षित माहौल में डालने का फैसला भी देता है।
न्यायाधीशों के फैसले के विरुद्ध कुछ कहना जान जोखिम में डालना है, लेकिन सच की रक्षा जान जोखिम में डाल कर ही की जाती है। फिर भी मैं इस फैसले पर लानत भी नहीं भेज सकता। मर्यादा का सवाल है।

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