महिलाएं जब इश्क करती हैं तो समझ आता है पर जब इश्क पर बात करती हैं तो हंसी आती है । इश्क करने के लिए है , बतियाने के लिए नहीं । इश्क की कोई परिभाषा नहीं होती । इश्क का कोई एक सेटिल्ड ला नहीं है । कि ऐसे करो तो होगा , वैसे नहीं होगा । इश्क की कोई एक राह नहीं होती । यह हाई वे भी हो सकता है , पगडंडी भी , गड्ढे वाली सड़क भी , कोई तंग गली भी , खेत भी , तालाब भी , बाग़ भी , आकाश , धरती , पानी कोई भी राह दे सकता है । हवा भी । चांद , तारे , सूरज भी
हो सकता है कोई भी राह न दे । सारे रास्ते बंद हो सकते हैं । घुप अंधेरे में भी राह मिल जाती है । चाह और राह में फ़ासला हो भी सकता है , नहीं भी । इश्क सेक्स नहीं है कि ऐसे भी हो सकता है और वैसे भी या कैसे भी । इश्क तो जगजीत सिंह की गाई कोई ग़ज़ल सुन कर भी हो सकता है । लेकिन इश्क जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल भी नहीं है ।
इश्क तो तकिए पर टूटा हुआ बाल भी नहीं है कि कभी मिल जाता है , कभी नहीं मिलता। इश्क काजल की धार भी हो सकती है , उन्नत वक्ष भी , दिल की तरह धुकुर-पुकुर करता किसी का नितंब भी हो सकता है , किसी की आवाज़ भी , अंदाज़ भी । या ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता है । इश्क तो गिलहरी है । इश्क तो बुलबुल है , कोयल भी , तितली भी । कब कहां गा दे , गुलाब के कांटे की तरह कब चुभ जाए , कौन जानता है ।
तुम भी नहीं , हम भी नहीं । लता मंगेशकर भी नहीं । इश्क एक अनबूझ यात्रा है । बूझ , समझ कर नहीं होती यह यात्रा। यह तो बस हो जाती है तो हो जाती है । नहीं होती तो नहीं होती । होती रहती है तो आनंद है । अलौकिक आनंद । वह एक मिसरा भी है न , इधर तो जल्दी-जल्दी है , उधर आहिस्ता-आहिस्ता । तो आहिस्ता-आहिस्ता भी एक फैक्टर है और जल्दी-जल्दी के भी क्या कहने । बस अपनी-अपनी सहूलियत है और अपना-अपना सलीक़ा ।
प्रेम हल्दीघाटी या पानीपत की लड़ाई भी नहीं है । यहां कोई तर्क काम नहीं आता । कुछ लोगों का शगल ही है बतिया कर ही रह जाना , सुन कर मजा लेना । बहुत से लोग थियरी से काम चलाते हैं , प्रैक्टिकल में उन की दिलचस्पी या क्षमता नहीं होती । अपना-अपना शौक है , अपनी-अपनी क्षमता ।