और अंत में….प्रार्थना!
क्या किसी मुसलमान ने बिना किसी किंतु-परंतु, लेकिन-हालांकि-वैसे, अगर-मगर के बिना, बेशर्त कश्मीरी हिंदुओं पर किए गुनाह-ए-अज़ीम की माफी मांगी? क्या वे अपने मुसलमान होने पर शर्मिंदा हुए?
क्या किसी कम्युनिस्ट-लिबरल-सेकुलर-बुद्धिपिशाच ने जगमोहन की फाइल खोलने से पहले यह बताया कि 1100 मस्जिदों से जब एक कौम को चेतावनी दी जाती है, तो बदन में कहां-कहां चींटियां रेंगती हैं? क्या उन्होंने यह बताया कि 18 से लेकर 20 जनवरी की रात तक कश्मीर बिना किसी प्रशासन के था, इस्लामिक जेहादियों को पूरी छूट थी और फारुख अब्दुल्ला लंदन निकल लिया था?
इस तरह के कई सवाल हैं, पूरी फेहरिश्त है। जवाब एक बड़ा सा शून्य है, बड़ा सा सन्नाटा है। इसलिए, मैं बचपन से (शाब्दिक तौर पर) दुहराता आया हूं कि समस्या इस्लाम है, समस्या मार्क्सवाद है। इन दोनों पर आपको सोचना होगा, इन दोनों से बरतना होगा।
भारत 1200 वर्षों में इस्लाम से बरतना नहीं सीख सका। हिंदुओं ने सोचा कि जैसे वह दूसरे धर्मों को को-ऑप्ट कर लेते हैं, उन्हें अपना बना लेते हैं, वैसे ही इस्लाम भी हो जाएगा। अफसोस, इस्लाम नाम का पॉलिटिकल थॉट इतना बर्बर और इतना कट्टर है कि वह समंजन जानता ही नहीं, सामंजस्य उसकी डिक्शनरी में ही नहीं। सनातन ने पीर-दरवेशों की पूजा शुरू कर दी, लोगों के पूजाघर तक में औलिया बाबा पहुंच गए, लेकिन परिणाम। सूफी दरवेश तो हत्यारे निकले, पड़ोसी और हमदर्द ही बलात्कारी बन गए, हलाक करनेवाले कसाई बन गए।
मार्क्सवाद से भी भारत नहीं निपट सका। जिन लोगों के नितंब पर बेंत बरसा कर उनके पृष्ठभाग को सुजाकर फिर सियाचिन में लेबर-कैंप में भेजना चाहिए था, वे हमारे ओपिनियन-मेकर बने, इतिहासकार बने, साहित्यकार बने, संस्कृति कर्मी बने। धन्यवाद पहले प्रधानमंत्री ”दुर्घटनावश हिंदू’ नेहरू का, कि इन देशद्रोहियों ने पूरे देश की ही लंका लगा दी, हमारी संस्कृति को खा गए, जो कुछ भी हिंदू था, उसे गर्हित, तिरस्करणीय और उपहास योग्य बना दिया।
जावा-सुमात्रा से लेकर अफगानिस्तान, म्यांमार, तिब्बत और न जाने कहां-कहां फैले सनातनी विलुप्त हो गए। हमारी महिलाएं दो दीनार में बेची जाती रहीं, बमियान के बुद्ध को टैंक लगाकर उड़ा दिया गया और हम सेकुलरिज्म की अफीम बेचते रहे, खाते रहे, अंटा गाफिल रहे।
आज भारत में बिहार से बंगाल तक, उड़ीसा से तमिलनाडु तक, केरल से लक्षद्वीप तक, हरेक जगह न जाने कितने पाकिस्तान बने हैं या बनने की प्रतीक्षा में हैं। रजाकारों को इस देश में चुनाव लड़ने की इजाजत है, लीगियों को सरकार में रहने की।
आप पूछेंगे उपाय क्या है? क्या मुसलमानों को फेंक दिया जाए? कतई नहीं। अव्वल तो यह संभव नहीं, दूजे यह व्यावहारिक नहीं। मुसलमान समस्या भी नहीं हैं, इस्लाम समस्या है जो दिन भर में पांच बार अपनी श्रेष्ठता लाउडस्पीकर पर फटे बांस जैसे सुर में चिचियाता है, जिसकी आसमानी किताब में काफिरों को मारने-लूटने और जिबह करने की शिक्षा है।
इसका एक ही उपाय है। आप ताकतवर बनिए। ये हों या कम्युनिस्ट। जब तक ये सामने अपने से सवा सेर पाते हैं, चुपचाप रहते हैं। जैसे ही इनको थोड़ी जगह मिलेगी, ये आपके रहने पर ही सवाल खड़ा कर देंगे। ताकत जुटाइए और इस्लाम के बारे में सच कहते रहिए। क्या पता, एकाध फीसदी ही सही, इस्लाम को जाननेवाले इस उन्माद से बाहर निकलना चाहें, निकल आएं। यही मानवता को सबसे बड़ा योगदान होगा।
अली सीना और वफा सुल्तान ने राह दिखा ही दी है…..
प्रार्थना करें कि ये विश्व सभी तरह की बीमारियों से मुक्त हो।
(द कश्मीर फाइल्स के बहाने अंतिम पोस्ट)