Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय कहां मेरी ज़िंदगी नष्ट करना चाहते हैं बाबू जी?

कहां मेरी ज़िंदगी नष्ट करना चाहते हैं बाबू जी?

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‘कुछ इफ़-बट नहीं करो।’ मुनक्का राय रमेश को पुचकारते हुए बोले, ‘अब मैं फ़ैसला कर चुका हूं।’
इधर रमेश ने प्रैक्टिस शुरू की और उधर मुनक्का राय ने उस की शादी तय कर दी। रमेश अभी नहीं-अभी नहीं करता रहा और मुनक्का ने उस की शादी कर दी। दूसरा बेटा धीरज भी अब तक एम.एस.सी. में आ गया था। मुनक्का राय चाहते थे कि वह भी एल.एल.बी. कर ले और बांसगांव कचहरी में वह भी आ जाए। पर वह रमेश की तरह पिता की बातों में नहीं आया। एम.एस.सी. कंपलीट कर वह एक कालेज में लेक्चरर हो गया। इधर रमेश बांसगांव में पिता का बोझ बांटने भले उन के कहे पर आ गया था पर वह कारगर साबित नहीं हो पा रहा था। तहसील की वकालत के लिए जो थेथरई, जो कुटिलता और कमीनापन वांछित था, वह उस में रत्ती भर भी निपुण नहीं था, न ही वह इस का प्रशिक्षण लेना चाहता था। कचहरी में तारीख़-वारीख़ लेने का भी वह क़ायल नहीं था। केस हारे चाहे जीते वह मेरिट पर ही लड़ता। और नतीजतन केस हार जाता। वह मारे शेख़ी में बोलता भी, ‘मैं तो वन डे मैच खेलता हूं, हारूं चाहे जीतूं इस की परवाह नहीं।’ वह कचहरियों में अपनाए जाने वाले ट्रिक से नफ़रत करता। मुनक्का राय ने उसे एकाध बार समझाया भी कि, ‘यह कचहरी है; कोई क्रिकेट का मैदान नहीं। यहां दुर्योधन, अर्जुन, युधिष्ठिर-शकुनी सभी चालें चलनी पड़ती हैं। साम, दाम, दंड भेद के सारे हथकंडे आज़मा कर ही कोई सिद्ध और सफल वकील बन पाता है। होता होगा तुम्हारी मैथ में दो और दो चार। पर यहां तो दो और दो पांच भी हो सकता है और आठ या दस भी। शून्य भी हो सकता है। कुछ भी हो सकता है।’ वह बताते कि, ‘कचहरी में बातें मेरिट से नहीं क़ानून से नहीं, जुगाड़ और ट्रिक से तय होती हैं।’
पर रमेश को बाबू जी की यह सारी बातें नहीं सुहातीं। बाप बेटे दोनों की प्रैक्टिस खटाई में थी। ओमई दोनों की वकालत पर सवार था। कचहरी में ओमई, समाज में गिरधारी राय। बाप बेटे दोनों मिल कर मुनक्का बाप बेटे का जीना हराम कर रखे थे। गिरधारी राय के उकसाने में मुनक्का राय के मकान मालिक घर ख़ाली करने को कह देते। तीन साल में चार मकान बदल कर मुनक्का राय परेशान चल ही रहे थे कि एक मुवक्किल को भड़का कर ओमई ने मुनक्का राय और रमेश राय दोनों की पिटाई करवा दी। विरोध में वकीलों की एसोसिएशन आई। दो दिन कचहरी में हड़ताल रही। पिटाई करने वाला मुवक्किल गिरफ़्तार हुआ तो हड़ताल टूटी। अख़बारों में ख़बर छपी। जिस को नहीं जानना था, वह भी जान गया कि मुनक्का बाप बेटे पिट गए।
मुनक्का के घर में भी खटपट शुरू हो गई थी। रमेश की अम्मा और बीवी में अनबन रोज़ की बात हो चली थी। अंततः आजिज़ आ कर मुनक्का राय ने रमेश को गोला तहसील शिफ़्ट होने को कह दिया। जैसे कभी रामबली राय ने मुनक्का को शिफ़्ट किया था। बांसगांव में तो मुनक्का राय की छांव में रमेश को रोटी दाल की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। गोला में रोटी दाल की भी दिक्क़त हो गई। हार कर रमेश की पत्नी जो सोशियालाजी से एम.ए. थी, ने एक नर्सरी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया तो किसी तरह खींचतान कर गृहस्थी चल जाती। अब रमेश के एक बेटा भी हो गया था। पर रमेश न बेटे को देख पाता था, न अपने आप को। गोला कचहरी में भी उस की क्रांति मशहूर हो चली थी। वह विद्रोही वकील मान लिया गया था। लोग उस से कहते कि, ‘यार यह तहसील है!’ तो वह कहता, ‘क्या तहसील में क़ानून और संविधान काम नहीं करता?’ वह पूछता, ‘अगर ऐसा ही था तो फिर हम लोगों को क़ानून पढ़ कर यहां आने की क्या ज़रूरत थी? किसी मुंसिफ़ या एस.डी.एम. को भी यहां आने की क्या ज़रूरत थी? ये वकीलों के मुंशी और कचहरियों के पेशकार ही जब कचहरी चला लेते हैं।’ लेकिन उस की कोई सुनने वाला नहीं था। धीरे-धीरे वह क्रांतिकारी से विद्रोही और फिर पागल और सनकी वकील मान लिया गया।
रमेश अब डिप्रेशन का शिकार हो चला था। रमेश के इन्हीं डिप्रेशन के दिनों में मुनक्का राय ने बांसगांव में एक ज़मीन ख़रीदी। वह भी एक खटिक से। ग़लती हुई। रजिस्ट्री तुरंत नहीं करवाई। गिरधारी राय ने तुरंत मौक़े का फ़ायदा उठाया। खटिक को भड़काया। खटिक ने हरिजन एक्ट की धौंस दी और फिर दोगुनी क़ीमत ले कर रजिस्ट्री की। यह ज़मीन भी ख़रीदने के लिए मुनक्का राय के लेक्चरर बेटे धीरज ने पैसा दिया। उसी ने फिर उस ज़मीन पर दो कमरा भी बनवाया। और धीरे-धीरे पूरा घर बनवा दिया। घर का ख़र्च भी वह उठा ही रहा था। अब मुनक्का राय ने उस की भी शादी तय कर दी। शादी हुई। बहू घर आई। पर वह सास के साथ लंबे समय तक रहने को तैयार नहीं हुई। दहेज ढेर ले कर आई थी सो वह किसी से दबने को तैयार नहीं थी। उस ने धीरज को भी बता दिया कि, ‘मैं बांसगांव में नहीं रहूंगी।’
धीरज उसे शहर ले आया। भाई तरुण और राहुल पहले ही से उस के साथ रहते थे। पढ़ाई के लिए। बीवी के आने के बाद धीरज ने बांसगांव पैसा भेजने में कटौती शुरू कर दी। जब कि पहले वह पिता को नियमित कुछ पैसा सुनिश्चित समय पर भेज देता था। इतना कि मुनक्का राय मारे ख़ुशी के उसे कभी नियमित प्रसाद कहते तो कभी सुनिश्चित प्रसाद। मुनक्का राय ने इस बात की भरपूर नोटिस ली कि धीरज अब न तो सुनिश्चित रह गया है न नियमित! पर तरुण और राहुल की पढ़ाई का ज़िम्मा वह उठा रहा था, इसी से उन्हों ने संतोष कर लिया। फिर एक दिन वह शहर गए और धीरज को बताया कि विनीता भी बी.ए. कर के बैठी है, उस की शादी अब हो जानी चाहिए! धीरज ने हामी भर दी। शादी भी तय हो गई। अधिकतम ख़र्च धीरज ने उठाया पर गांव की एक ज़मीन भी बेचनी पड़ी।
शादी धूमधाम से हुई। शादी की तैयारी, बारात की अगुआनी, विदाई, सब का आना जाना, सब कुछ की कमान धीरज ने ही संभाल रखी थी। मुनक्का राय भी धीरज के पीछे-पीछे ही थे। सब से बुरी गति रमेश की थी। बड़ा भाई होने के बावजूद रमेश की हैसियत किसी नौकर से भी गई गुज़री थी। अपनी हीनता में क़ैद रमेश और उस की पत्नी डरे-सहमे ही सभी को दिखे। रिश्तेदारों, पट्टीदारों ने भले रमेश से बात की पर घर के लोगों ने उस से ऐसे व्यवहार किया जैसे उस का कोई अस्तित्व ही न हो। और धीरज ने तो पग-पग पर रमेश को जैसे अपमानित करने की कसम ही खा रखी थी। एक पट्टीदार ने टिप्पणी भी की कि, ‘एक होनहार और प्रतिभाशाली व्यक्ति पट्टीदारी की आग में कैसे तो होम हो गया!’
विनीता का पति थाइलैंड में नौकरी करता था। उस का सारा परिवार वहीं रहता था। दो पीढ़ी से। विनीता को दस दिन बाद थाइलैंड उड़ जाना था। धीरज के श्वसुर ने यह शादी तय करवाई थी। यह बात कम लोग जानते थे। लेकिन दामाद, डाल और बारात की तारीफ में हर कोई मगन था। मुनमुन भी अपनी मझली दीदी रीता के साथ जीजा जी को इंप्रेस करने में लगी थी। मुनमुन अब टीन एजर थी और भारी मेक अप में उस की जवानी किसी जवान लड़की से भी ज़्यादा छलक रही थी, यह बात भी लोगों ने नोट की। वह अपने जीजा से इठलाती हुई चुहुल भी कर रही थी, ‘हम को भी अपने साथ उड़ा कर ले चलिए न!’
जीजा लजा कर रह गया। रमेश भी चोरी छुपे अपने छोटे बहनोई की ख़ुशामद में लगा था। एक रिश्तेदार से रमेश ने खुसफुसा कर कहा भी कि, ‘अब विनीता हमारे परिवार की क़िस्मत बदल देगी। दस दिन बाद ख़ुद थाईलैंड जा रही है। क्या पता पीछे-पीछे हम लोगों को भी बुला ले!’
‘क्या रमेश!’ उस के एक फुफेरे भाई दीपक ने अफ़सोस जताते हुए कहा, ‘अब तुम्हारे यह दिन आ गए!’ उस ने जोड़ा कि, ‘सोचो कि तुम कितने ब्रिलिएंट थे। पट्टीदारी-रिश्तेदारी के लड़कों में तुम आइडियल माडल माने जाते थे। और अब बहन के पैरासाइट बनना चाहते हो? चचच्च!’
रमेश झेंप गया था। यह भी लोगों ने नोट किया। और हां, यह भी कि गिरधारी राय और उन का परिवार इस शादी में नहीं था। मुनक्का राय से किसी ने पूछा तो जवाब धीरज ने दिया, ‘नागपंचमी तो थी नहीं कि दूध पीने को बुलाते।’
विनीता सचमुच दस दिन बाद थाइलैंड के लिए उड़ गई। अब अलग बात है कि उस का संघर्ष वहां जा कर नए सिरे से शुरू हो गया। उस ने अम्मा को एक चिट्ठी में संकेतों में लिखा भी, ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।’ अम्मा तो उतना नहीं पर बाबू जी ठीक से समझ गए। उसे जवाबी चिट्ठी में मुनक्का राय ने दांपत्य को धैर्य से निभाने की सीख लिख भेजी और मनुहार की कि हमारी लाज बचाना, हमारा सिर नीचा मत करवाना। थोड़ा त्याग, तपस्या और बर्दाश्त से रहोगी तो सब ठीक हो जाएगा। ध्यान रखना कि अभी तुम्हारे पीछे तुम्हारी दो बहनें रीता और मुनमुन भी हैं। विनीता ने बाबू जी की सीख को माना और अपने दांपत्य को धीरे-धीरे साध ले गई। पर सास के घर से अलग हो कर। बाद में फिर वापस सास ससुर के घर आई और अम्मा को चिट्ठी में लिखा कि, ‘अब वह नहीं मैं उन की सास हूं।’
मुनक्का राय ने फिर बेटी को चिट्ठी में लिखा कि, ‘सास को ही सास रहने दो और तुम बहू ही बन कर रहोगी तो सुखी रहोगी। अन्यथा बाद में कांटे और रोड़े बहुत मिलेंगे ज़िंदगी में।’ विनीता बाबू जी की यह बात भी मान गई। इधर मुनक्का राय की ज़िंदगी जैसे ख़ुशियों की लंबी राह देख रही थी जो अचानक ऐसे पूरी हुई कि पूरा बांसगांव और उन का गांव भी उछल पड़ा। धीरज पी.सी.एस. मेन में चुन लिया गया था। अख़बारों में उस की फोटो छपी थी। चहुं ओर खुशियों की पुरवाई थी। पर इस पुरवाई के झोंके में कोई सूख भी रहा था। वह थे गिरधारी राय और उन का बेटा ओमई। फिर भी गिरधारी राय जाने रस्म अदायगी में, जाने भय से या जाने किस भाव से ख़ुद चल कर मुनक्का राय के घर गए

बधाई

देने। यह ख़बर जब कचहरी में दौड़ी तो एक वकील ने कहा कि एक कविता है, ‘भय भी शक्ति देता है!’ बहरहाल कचहरी में भी मिठाई बंटी और एस.डी.एम. और मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट दोनों ने मुनक्का राय को उन के घर पर आ कर

बधाई

दी। बांसगांव के साथ मुनक्का राय भी झूम गए।

रमेश आई.ए.एस. प्रिलिमनरी तक ही आ कर रह गया था पर धीरज पी.सी.एस. हो गया। मुनक्का राय अब रमेश के प्रति थोड़ा दयालु हो गए। उन्हें अपने पर अफ़सोस हुआ और ख़ुद को रमेश का अपराधी मानने लगे। उन को लगा कि अगर ज़िद कर के उन्हों ने रमेश को एल.एल.बी. न करवाया होता और फिर बांसगांव तहसील में ही ओमई से निपटने के लिए उसे न भिड़ाया होता तो वह भी शायद इस समय कहीं अच्छी जगह होता। वह बुदबुदाए भी, ‘दूध को हम ने नाबदान में डाल दिया!’
रमेश को भी ख़ुशी हुई भाई धीरज के पी.सी.एस. होने पर। लेकिन क्षणिक। रमेश की पत्नी से भी किसी ने इस की चर्चा की तो वह बोली, ‘कोई नृप होए हमें का हानि!’ क्यों कि जैसे धीरज रमेश को विनीता के ब्याह में अपमानित करता रहा वैसे ही घर में धीरज की पत्नी उसे अपमानित करती रही थी। जेठानी होने का मान तो उस ने क्षण भर के लिए भी नहीं दिया। हां, लेकिन रमेश ने धीरज को फ़ोन कर के

बधाई

ज़रूर दी। तो धीरज भावुक हो गया। बोला, ‘भइया यह सब आप के ही पढ़ाए-समझाए का परिणाम है। आप ने ही हाई स्कूल और इंटर में हमारी ऐसी रगड़ाई करवा दी थी कि मुझे आगे बहुत आसानी हो गई।’ उस ने बताया, ‘आप की ही छोड़ी आई.ए.एस. की तैयारी वाली किताबें और नोट्स भी मेरी इस सफलता में काम आए। भइया आप न होते तो मैं पी.सी.एस. न होता।’

‘चलो ख़ुश रहो और ख़ूब तरक्क़ी करो!’ रमेश ने फ़ोन रख दिया। उसे लगा कि वह तो मर गया था, आज ज़िंदा हो गया। धीरज की बातों ने, उस ने जो मान दिया, उस की भावुकता ने उसे रुला दिया। बेटे रंजीव ने पूछा भी कि, ‘क्या हुआ पापा?’
‘कुछ नहीं बेटा पुरानी-नई ख़ुशियां याद आ गईं।’ रंजीव तो रमेश की इस बात को नहीं समझा पर रमेश पुरानी बातों की यादों में डूब-डूब गया। उसे याद आया कि कैसे तो धीरज के हाई स्कूल में केमेस्ट्री के एक फार्मूला न याद करने के लिए उस ने उस की जम कर पिटाई की थी। कई बार वह अपनी पढ़ाई से ज़्यादा धीरज की पढ़ाई पर ज़ोर देता। हाई स्कूल, इंटर क्या बी.एस.सी. तक वह उस की मंजाई करता रहा। छोटा होने के बावजूद वह उस से काम नहीं करवाता था। एक कमरे के किराए के मकान में कैसे तो वह रहता था। खाना ख़ुद बनाता था, बरतन भी धोता था। और धीरज ही क्यों तरुण को भी उस ने क्या वही स्नेह नहीं दिया! यह सब और ऐसी तमाम छोटी मोटी बातें याद कर-कर के वह पत्नी को बताता रहा। बता- बता कर सुबुकता रहा। फिर अचानक पत्नी से बोला, ‘बहुत दिन हो गए हम लोग सरयू जी में नहाए नहीं। चलो आज डुबकी मार आते हैं।’
पति की इस ख़ुशी में पत्नी भी शरीक हो गई। दोनों बेटों को ले कर वह घाट पर गया। बच्चों को डुबकी लगवाने के बाद पत्नी के साथ ख़ुद भी कई डुबकियां लगाईं और जम कर तैराकी की। इतवार का दिन था। घाट पर अपेक्षाकृत भीड़ थी। वकील साहब को इस तरह तैरते देख कर कुछ लोगों ने कौतुक जताया तो एक आदमी ने सब की जिज्ञासा शांत की, ‘अरे छोटा भाई पी.सी.एस. में सेलेक्ट हो गया है। अख़बारों में फ़ोटो छपी है भाई!’
‘अच्छा!’
फिर तो वकील साहब को बधाइयों का तांता लग गया। बांसगांव के साथ अब गोला भी झूम रहा था। छोटी जगहों पर मामूली ख़ुशियां भी बहुत बड़ी हो जाती हैं। गोला में एस.डी.एम. प्रमोटी था, तहसीलदार से पी.सी.एस. हुआ था, उस ने भी कचहरी में रमेश का हाथ पकड़ कर

बधाई

दी। मुनक्का राय के गांव में भी यह सिलसिला चला। गांव की छाती फूल गई।

ज़िंदगी फिर अपने सामान्य ढर्रे पर आ गई। बल्कि मुनक्का राय की मुश्किलें थोड़ी बढ़ गईं। धीरज ट्रेनिंग पर चला गया। और उस की बीवी अपने बच्चे को ले कर मायके। नियमित और सुनिश्चित प्रसाद तो धीरज का पहले ही गुम हो रहा था अब तरुण और राहुल को शहर में पढ़ाई, रहने-खाने और किराए का ख़र्च भी भेजना पड़ता था। मुनक्का राय अब सारी ख़ुशियों के बावजूद क़र्ज में डूब रहे थे। गिरधारी राय यह सब देख रहे थे और लोगों से खुसफुसा रहे थे, ‘घर में भूजी भांग नहीं, दुआरे हरि कीर्तन!’
अब अलग बात है कि गिरधारी राय के यहां भी स्थितियां ऐसी ही हो रही थीं। ओमई की प्रैक्टिस लड़खड़ा गई थी। पिता रामबली राय का रखा पैसा कितने दिन चलने वाला था। आधा मकान किराए पर उठ गया था। शहर के मकान का भी दो तिहाई किराए पर था। किराया न मिलता तो घर ख़र्च चलना मुश्किल था। बड़ा बेटा पियक्कड़ निकल ही गया था। बाक़ी तीसरा भी बिना विवाह के ही एक लड़की के साथ रह रहा था। जो जाति की तेली थी। एक बेटी ब्याहने को पड़ी थी।
इधर धीरज की ट्रेनिंग समाप्त हुई और उसे एस.डी.एम. की तैनाती मिल गई। इधर तीसरा भाई तरुण भी एक बैंक में पी.ओ. हो गया। मुनक्का राय का घर एक बार फिर खुशियों से छलछला गया। एक दिन रमेश की पत्नी ने रमेश से पूछा, ‘आप भी तो पहले बैंक में सेलेक्ट हुए थे?’
‘हुए तो थे पर बाबू जी ने जाने कहां दिया?’ वह लाचार हो कर बोला, ‘चले गए होते तो यह गोला की गंदगी कहां से देखता?’
‘इतनी पितृभक्ति भी ठीक नहीं थी।’ वह बोली, ‘नरक में डाल दिया हम लोगों को।’
‘ई ओमई की पट्टीदारी में सब हो गया। बाबू जी हम को वकील बनाए ओमई को रगड़ने के लिए हमीं रगड़ा गए।’
‘आप अब से इम्तहान नहीं दे सकते?’
‘किस का?’
‘पी.सी.एस. का, बैंक का?’
‘इस उमर में?’ रमेश बोला, ‘अरे, अब हम ओवर एज हो गए। तुम ख़ुद पढ़ी लिखी हो, इतना तो समझ ही सकती हो।’
रमेश की पत्नी चुप हो गयी। पर रमेश के मन में पत्नी का सवाल मथता रहा। उसने सोचा हो सकता है पत्नी एक साथ घर और नौकरी नहीं साध पा रही हो। पत्नी अब एक जूनियर हाई स्कूल में पढ़ाने लगी थी। बस गोला से थोड़ा दूर जाना पड़ता था। वह पढ़ाने से ज़्यादा आने-जाने में थक जाती थी। घर में भी रमेश एक गिलास पानी तक ले कर नहीं, मांग कर पीता था। सो घर का बोझ अलग था। वह अब दुबली भी होती जा रही थी। उस की प्रैक्टिस अब लगभग निल थी। कई बार तो वह कचहरी जाने से भी कतराने लगा। पत्नी के साथ देह संबंधों में भी वह पराजित हो रहा था। चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता। एक दिन उस ने पत्नी से लेटे-लेटे कहा भी कि, ‘लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।’
पत्नी कसमसा कर रह गई। आखों के इशारों से ही कहा कि, ‘ऐसा मत कहिए। पर रमेश ने थोड़ी देर रुक कर जब फिर यही बात दुहराई कि, ‘लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।’ तो पत्नी ने पलट कर कहा, ‘ऐसा मत कहिए।’ वह धीरे से बोली, ‘अब मेरी भी इच्छा नहीं होती।’ क्या पैसे की तंगी और बेकारी आदमी को ऐसा बना देती है? नपुंसक बना देती है? रमेश ने अपने आप से पूछा।
दिन बीतते रहे। अब घर में रीता के ब्याह की चिंता सब के सिर पर थी। हालां कि रीता ने घर में कहा भी कि, ‘मैं भी भइया लोगों की तरह नौकरी वाले इम्तहान देना चाहती हूं।’ उस ने जोड़ा भी, ‘अम्मा मैं भी पी.सी.एस. बनना चाहती हूं।’ धीरज भइया का मान सम्मान देख कर उस के मन में यह इच्छा जागी थी। पर मां ने उस की इच्छाओं पर पानी फेरते हुए कहा, ‘जहां जाओगी, वहीं जा के पी.सी.एस. बनना। यहां अब कहां समय है। अभी मुनमुन भी है। पता नहीं तब तक क्या होगा? समय हमेशा एक सा नहीं होता।’
रीता चुप हो गई। उधर रमेश भी चुप था। पर अब वह अपनी नपुंसकता से आजिज़ आ गया था। लगातार तरकीब पर तरकीब सोचता रहा। अंततः एक दिन पत्नी से कहा, ‘तुम ठीक ही कहती थीं।’
‘क्या?’
‘कि मुझे इम्तहान देने चाहिए।’
‘पर आप तो कह रहे थे कि ओवर एज हो गए हैं।’
‘नहीं अभी ज्यूडिश्यिली के इम्तहान दे सकने भर की उम्र है।’
‘ओह!’ वह रमेश के गले में हाथ डाल कर झूम गई। बोली, ‘इस से अच्छी बात क्या होगी। और मैं बताऊं आप कर भी लेंगे।’ कह कर वह लपक कर रमेश के पांव पर गिर गई। बोली, ‘मैं तो आप के साथ हमेशा से थी, हूं और रहूंगी। आप अब घर समाज सब की चिंता मुझ पर छोड़िए और इम्तहान की तैयारी कीजिए।’
‘दो तीन साल लग सकते हैं। पढ़ाई लिखाई से नाता छूटे आखि़र समय हो गया है। रिवाइज़ करने में ही साल भर लग जाएगा।’ वह बोला, ‘और पैसा भी लगेगा कापी, किताब, कोचिंग में सो अलग!’
‘मेरे सारे जे़वर बेच डालिए!’ वह बोली, ‘पर करिए आप!’ वह सुबकने लगी, ‘यह अपमान और तंगी और नहीं बर्दाश्त होती!’
‘ठीक है मुझ से भी अब भड़ुवागिरी और दलाली वाली यह वकालत का तमाशा और नहीं होता। ज़िंदगी भर निठल्ला बने रहने से अच्छा है कि एक बार आग में कूद ही जाऊं। देखूं क्या होता है!’
यही बात उस ने बांसगांव जा कर बाबू जी को भी बताई। तो वह बोले, ‘मुश्किल तो बहुत है रमेश पर आज़मा लेने में नुक़सान भी नहीं है।’ वह बोले, ‘कहोगे तो खेत बारी बेंच कर तुम्हें फिर से पढ़ाऊंगा।’

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