कैकेयी हमारी प्राचीन सभ्यता की वो पात्रा हैं जो निंदनीय रही हैं. कई विद्वानों के मतानुसार वे वंदनीय हैं और निंदनीय कतई नहीं. आम जनमानस में ये मुद्दा विवादास्पद रहा हैं. इस मुद्दे का बरहाल कोई अंत तो नहीं लेकिन फल ये निकलता हैं कि कैकेयी को हम अपने जीवन में नहीं स्वीकार करते और आज तक लोग अपनी कन्याओं का नाम कैकेयी नहीं रखते.
कैकेयी राजा दशरथ की सबसे प्रिय रानी हैं जिन्होंने एक युद्ध में उनके जीवन की रक्षा की थी. बदले में, राजा ने उन्हें दो वरदान देने का वचन दिया था और इन्ही दो वरदानो ने रामायण की नींव रखने में अहम् भूमिका निभाई . पुत्र प्रेम के स्वार्थवश कैकेयी ऐसे दो वरदान माँग बैठी जो उनके जीवन को ही कलंकित कर गए. यदि आप रामायण को एक तटस्थ पाठक के रूप में पढ़ते हैं, तो आप कैकेयी के कर्मो को उसके पुत्र भरत के प्रति प्रेम रूप में पाओगे; कार्य जो उसके दासी मंथरा द्वारा उत्प्रेरित हुए . लेकिन जब आप गहराई से चिंतन करे , तो आप निम्नलिखित प्रश्नों या विचारों पर आ सकते हैं जिन्हें आपने शायद इन कोणों से सोचा नहीं होगा:
क. कैकेयी ने राजा दशरथ से श्रीराम के निर्वासन के लिए केवल 14 साल के लिए क्यों मांग करी – क्या वह राज्य से आजीवन निर्वासन के लिए नहीं कह सकती थी? आजीवन वनवास से तो कैकेयी की सब शंकाओं का निवारण हो जाता. फिर भी कैकेयी को प्रभु राम के सिर्फ १४ वर्षो के वनवास से संतोष था. क्या कैकेयी भरत को केवल १४ वर्षों के लिए सम्राट बनाना चाहती थी?
ख. कैकेयी ने सिर्फ राम के निर्वासन के लिए मांग की , माँ कौशल्या और उनकी पत्नी सीता के लिए नहीं? ऐसी कौन सी स्त्री होगी तो अपने सौतेले पुत्र को तो घर निकला दे दे लेकिन उसकी माँ और पत्नी को घर में अपनी आँखों सामने रखे?
ग. कैकेयी को तो भली भांति ज्ञात था कि राजा दशरथ श्रीराम को युवराज घोषित कर चुके हैं और किसी भी पल उन्हें राजा भी बना देंगे. मंथरा के भड़काने के बाद, कैकेयी ने राम अभिषेक घोषणा के तुरंत बाद ही कोप भवन का मार्ग लिया. कैकेयी ने अपने वरदानों की पूर्ती के लिए वही समय चुना जब राजा दशरथ की घोषणा मिथ्या साबित हो जाए और प्रजा के सम्मुख उन्हें नीचे देखना पड़े.क्या पुत्र प्रेम में कैकेयी इतनी उन्मादिन्त हो गयी कि उन्हें अपने पति की मर्यादा का कोई मान ही नहीं रहा. कैकेयी को प्रजा में राम की लोकप्रियता का अच्छा ज्ञान था, फिर भी कैकेयी ने प्रजा की इच्छा का मान नहीं रखा. इसके बावजूद उन्होंने वरदान का विकल्प और खलनायिका होने का मार्ग चुना।
कैकेयी को अच्छी तरह से ज्ञात था कि यदि वो राम को वनवास करवाती हैं, तो उन्हें पूरे राज्य में और इतिहास में एक खलनायिका के रूप में चित्रित किया जाएगा. फिर भी कैकेयी ने ये मार्ग चुना- केवल पुत्र प्रेम में पड़कर ; भरत के राजा बनने की अभिलाषा में कैकेयी ने स्वयं को एक नकारत्मक किरदार में ढाल लिया. क्या सत्य केवल इतना ही रहा होगा? ऊपर इंगित स्पष्टीकरणों को यदि रामायण में मिलाकर देखा जाए तो कैकेयी के वो दो वरदान थोड़े अटपटे प्रतीत होते हैं. मैंने रामायण के भिन्न भिन्न संस्करणों में कुछ दिलचस्प किस्से पढ़े और वो किस्से इन स्पष्टीकरणों का सही औचित्य ठहराते हैं. अब इन किस्सों की कितनी प्रासंगिता हैं, ये तो नहीं ज्ञात; और ये किस्से क्या किवदंती हैं या रामायण के भूले बिसरे हिस्से, ये मैं पाठक पर छोड़ता हूँ. कुछ ऐसे ही किस्से निम्नलिखित हैं –
क. कैकेयी ने राम को वनवास इसलिए करवाया ताकि वो रावण और राक्षस प्रजाति का समूल नाश कर सके. देवासुर संग्राम में जब दशरथ की पराजय हुई थी , तब से कैकेयी ने असुरो के विनाश का प्रण लिया था. अब चूँकि सीधे रास्ते से तो राजा दशरथ राम को भेजने से रहे, तो केकयी ने इस मार्ग का चयन किया. लेकिन इस प्रसंग को एक किवदंती से ज्यादा नहीं माना जा सकता क्यूंकि ये प्रसंग ना तो वाल्मीकि रामायण में आता हैं और ना रामचरितमानस में. लेकिन इस किस्से को बल इसलिए मिलता हैं क्यूंकि कैकेयी ने श्रीराम के लिए १४ वर्षों का वनवास माँगा था और माँ सीता के लिए नहीं. माँ सीता और लक्ष्मण का जाना कैकेयी की योजना का हिस्सा नहीं थे.
ख. राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता कैकेयराज अश्वपति को वचन दिया कि उनका दौहित्र और कैकयी का पुत्र ही राजा बनेगा. लेकिन तब परिस्थिति और थी क्यूँकि राजा दशरथ का कोई उत्तरधिकारी नहीं था. राजा दशरथ का वचन ना मिथ्या हो , इसलिए श्रीराम वनवास घटना हुई.
ग. ये किस्सा बहुत मज़ेदार हैं और यकीनन ये किसी उच्च कल्पनशील व्यक्ति की सोच की उपज हैं. देवासुर संग्राम के दौरान राजा दशरथ का रघुकुल मुकुट रावण के हाथ पड़ गया था. देवासुर संग्राम में शम्बासुर और रावण असुरो की ओर से युद्ध कर रहे थे. अब चूँकि मुकुट रावण के पास था, श्रीराम अभिषेक मुमकिन नहीं था. इसलिए कैकेयी ने उन्हें वनवास भेजा ताकि वो मुकुट वापस ला सके. लंका काण्ड के दौरान अंगद रावण का एक मुकुट श्रीराम की ओर उछालते हैं और यही वो उनके कुल का मुकुट होता हैं. हैं ना अत्यंत कल्पनाशील कहानी.
घ. एक ऋषि ने कैकेयी को बतलाया कि राजा दशरथ की कोई संतान राज गद्दी पर नहीं बैठ पायेगी और साथ ही ज्योतिष गणना का के आधार पर यह भी बतलाया कि दशरथ की मृत्यु के पश्चात यदि चौदह वर्ष के दौरान कोई संतान गद्दी पर बैठ भी गयी तो रघुवंश का नाश हो जायेगा। यह बात कैकेयी ने पूरी तरह हृदयगंम कर लिया और इसी बात को ध्यान में रखते हुए कैकेयी ने १४ वर्षों के वनवास की मांग करी. उन्हें ये भी ज्ञात था कि भरत राजगद्दी कदापि स्वीकार नहीं करेंगे और इस प्रकार गद्दी पर १४ वर्षों तक कोई विराजमान नहीं होगा. हुआ भी ऐसा ही- भरत ने कुश आसान पर बैठकर श्रीराम की चरणपादुकाओं द्वारा राज्य संचालित किया. इस प्रसंग का कोई उल्लेखनीय स्तोत्र नहीं हैं लेकिन ये प्रसंग कैकेयी के २ वरदानों को ठीक तरीके से सही साबित करता हैं.
अंत में – हमारे ग्रंथो में कहानी में कहानी इतनी समायी हुई हैं कि हर काल में कहानी के आयाम और अर्थ बदलते हैं. कैकेयी की कथा भी कुछ ऐसी रही होगी जो युग दर युग उपेक्षित रही और उनकी मनोव्यथा को रेखांकित नहीं कर पायी. राजकवि मैथली शरण गुप्त जी ने अपनी कविता- ‘ कैकेयी का पश्चाताप ‘ में कैकेयी के सुर में सही कहा हैं – “क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी, मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी। जल पंजर-गत अब अधीर, अभागे, ये ज्वलित भाव थे स्वयं तुझे में जागे।“ || इति ||

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