फ्रैंको-रशियन वॉर, जिसे नैपोलियन के रूस पर अभियान के रूप में जाना जाता है, उसमें कई अद्भुत घटनाएं घटित हुई थीं।
इस युद्ध में एक रूसी टुकड़ी फ्रैंच सेना के साथ झड़प के बाद रिट्रीट के दौरान रास्ता भटक गई।
घायलों को स्ट्रेचर पर लादे वे आगे बढ़ने लगे।
भयंकर बर्फबारी, तूफानी हवाएं, सफेद घना अंधेरा। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था।
एक-एक कदम बढ़ाना मुश्किल हो रहा था।
सैनिकों को ललकारते, निरंतर चलते रहने के लिये उत्साहित करते-करते स्वयं कमांडर भी थक-हार कर निराश होने लगे।
उन्हें स्वयं सहित सभी सैनिकों की बर्फ में हिम-समाधि दिखाई देने लगी।
स्ट्रेचर रख दी गईं और वे सभी निराशा में बैठ गए।
तभी एक स्ट्रेचर पर लेटा एक घायल सैनिक कोजिन उठ बैठा और चिल्लाया-
“आग, आग, देखो सामने आग जल रही है।”
सब लोगों ने आँखें मलीं, पर कुछ दिखाई न दिया। लेकिन सैनिक अड़ा रहा,”मुझे साफ साफ टिमटिमाहट दिख रही है।”
कमांडर ने उस सैनिक की बात पर भरोसा करने का निश्चय किया और आगे बढ़ने का आदेश दिया।
काफी देर तक चलने के बाद भी किसी को आग नहीं दिखाई दी तो वह कोजिन पर बरस पड़े पर कोजिन अभी भी दृढ़ था-
“पता नहीं क्यों नहीं दिख रही तुम्हें, मुझे तो और साफ दिखने लगी है।”
निदान फिर सब आगे बढ़े लेकिन कुछ नहीं मिला। अब कमांडर का भी धैर्य जवाब दे गया,”कोजिन साफ-साफ बताओ कितनी दूर दिख रही है।”
“मुझे तो एकदम लपटें भी दिखने लगी हैं हुजूर।” कोजिन ने पूरी दृढ़ता से बताया।
वे एक दो वेर्स्ता आगे बढ़े और स्ट्रेचर पर बैठा कोजिन चिल्लाया,”बस पहुँच ही गये दोस्तो।”
अगले वेर्स्ता के आगे एक मोड़, और सभी को एक लौ टिमटिमाती दिखने लगी।
“हुर्रे”, जवान खुशी से चिल्लाए और दौड़ने लगे।
अगले घंटे बाद सभी अलाव पर अपने किसी रूसी खेमे में थे।
“कोजिन! उसको लाओ। उसको अलाव के पास बैठने दो, उसे गर्माने दो। उसका हक है, कैसी बाज जैसी आँखें हैं, उसी ने हमको रास्ता दिखाया।”, रूसी सैनिक चिल्लाए।
कोजिन की स्ट्रेचर को अलाव के पास लाया गया और अलाव की रोशनी में कोजिन के चेहरे को देख सभी स्तब्ध खामोश हो गए।
कोजिन की आँखों के कोटर खाली थे। किसी फ्रांसीसी गोले के विस्फोट में उसकी आँखों के गोले निकल चुके थे।
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फेसबुक पर प्रायः कुछ शोहदे एक डायलॉग मारते दिख जाते हैं-
“आप सिर्फ शब्दों के वीर हो, हम जमीन पर काम करते हैं।”
हो सकता है आप करते भी हों तो क्या इससे जो अपनी तमाम जिम्मेदारियों के बीच मनसा, वाचा अर्थात बौद्धिक रूप से जो लिखकर कर रहे हैं वह आपसे हीन है?
हो सकता है आपने प्रचार किया हो, लेकिन क्या प्रचार सिर्फ घर-घर जाकर किया जाए वही जमीनी काम माना जायेगा? फल बेचते हुये दिनेशचंद्र सरोज जी जो कुछ लिखते हैं वह हिन्दुत्वनिष्ठा के लिए प्रेरक नहीं?
हो सकता है आपने जमीन पर दो चार म्लेच्छों को पीटा हो क्योंकि इससे ज्यादा आप कुछ नहीं कर सकते, लेकिन क्या कक्षाओं में , अपनी नौकरी को खतरे में डालकर भी, नई पीढ़ी को हिन्दुत्वनिष्ठ बनाने का प्रयास आपसे कम जमीनी है?
अंत में एक कड़वी बात,
जरूरत पड़ने पर एक लेखक कलम छोड़कर बंदूक चला सकता है लेकिन एक बन्दूकबाज कलम चला सके, इसकी संभावना लाखों में एक की होती है।
मैं अशक्त हूँ, विवश हूँ लेकिन अपने राष्ट्र पथ पर निष्ठा से डटा हूँ और उन सभी बंधुओं को भी अपने ही समान निष्ठावान मानता हूँ जो लेखों को पढ़कर चुपचाप व्हाट्सएप ग्रुप में सरका देते है, फेसबुक पर शेयर करते हैं या और कुछ नहीं तो मानसिक रूप से आशीर्वाद देते हैं।
मेरे लिए सभी प्रणम्य हैं।
इतना भर समझने की जरूरत है कि आप सभी वीर योद्धा हैं, मेरी भूमिका #कोजिन की है।

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