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गुलामनबी जी ने जब खुलकर स्वीकारा

by रंजना सिंह
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गुलामनबी जी ने जब खुलकर स्वीकारा कि उनके पूर्वज कश्मीरी हिन्दू थे,तो निश्चित ही मेरी तरह आपके मन में भी अवश्य यह कौंधा होगा कि “जब आपको ज्ञात ही है तो आप घर वापसी क्यों नहीं कर लेते”…
सहज स्वाभाविक प्रश्न है यह,,किन्तु इसका उत्तर भी हमें ज्ञात है कि ऐसा वे नहीं करेंगे।क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि यह पन्थ उन्हें जो सुविधाएँ देता है,वह उन्हें सनातन नहीं देगा।सनातन में अदृश्य वे बेड़ियाँ हैं जो आपके न चाहते भी आपको “निःकृष्ट भोगी” नहीं बनने देगा।आप चाहें तो अनेकानेक पाप कर सकते हैं,पर यह आपके पापाचार को धर्मसंगत नहीं कहेगा,आपको पापी और दोषी ही कहेगा और जिस दिन आपके हृदय में धर्म का सूरज उगेगा,आप आत्मग्लानि के अथाह सागर में डूबने लगेंगे।

परिमित भोग हेतु बना संगठन है वह तथाकथित पन्थ।अभावों की पीड़ा से ग्रस्त और त्रस्त,सुस्वप्नों(जन्नत)की आकांक्षा ने लोगों को एकजुट होने और जूझकर वह सब हस्तगत करने की प्रेरणा दी।अपने मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से निश्चिंत समाज आत्मोत्थान और शान्ति की खोज में निकलता है।किन्तु अभावग्रस्त समूह की प्राथमिकता भोग संग्रह में ही होता है। कालान्तर में उस समूह ने अपने लिए जो संविधान/नियमन बनाया, उसमें अमानुषिक वाली कोई अवधारणा ही नहीं बची।सुख प्राप्ति हेतु कठोर श्रम का मार्ग अत्यंत कष्टदायी था, किन्तु इसके स्थान पर बल प्रयोग द्वारा किसी दूसरे के संचय को लूट लेना धर्म बना देने पर सबकुछ आसान हो गया।संगठन में शक्ति है और इस संगठित शक्ति प्रयोग में लाभ,,यह उन्हें इतनी अच्छी तरह समझ में आया कि यह उनके पन्थ का मूल बन गया।
मूर्तिपूजकों के धर्म/आस्था के सर्वथा विपरीत पन्थ का उन्होंने चयन किया था,अतः उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु उन्होंने माना।कहीं मन में करुणा दया क्षमा सहानुभूति सहयोग जैसी मानवीय भावनाएँ/मानवधर्म उन्हें उनके क्रूर कलुष पथ से विचलित न कर दे,इसलिए उन्होंने इससे दृढ़ता से घृणा करने,इसके अनुयायियों को मिटा देने को सर्वोच्च धर्म स्थापित कर दिया।मन कभी भी,कहीं से भी कमजोर न पड़े,क्रूरता न छोड़े, इसके लिए उन्होंने ऐसी ऐसी व्यवस्थाएँ की कि बचपन से ही उन क्रूरताओं की स्वीकार्यता/अभ्यास उन्हें बना रहे।
व्यक्तिगत स्तर पर इन्द्रिय सुखभोग, क्रूरता-
अपने हाथों जानवरों का गला रेतना, कुर्बानी देना, व्यक्तिमात्र का धार्मिक कर्तब्य ….
पारिवारिक स्तर पर भोग और क्रूरता- परिवार की जो स्त्री भा गयी,उससे विवाह/शारीरिक सम्बन्ध बनाने की छूट।स्त्री को पददलित भोग्या भर बनाकर रखने के लिए तलाक़ हलाला मुताह जैसी व्यवस्थाएँ….
सामाजिक स्तर पर भोग और क्रूरता- पराई संपत्ति स्त्री पर दिल आ जाने पर उसे बलपूर्वक छीन लूट लेना पुरुषार्थ समझा जाना और यदि वह दूसरा मूर्तिपूजक हो,फिर तो उसका सबकुछ लूट लेना,उनकी हत्या, स्त्रियों का बलात्कार इत्यादि जघन्य क्रूर कर्म को धर्मसम्मत मानना,इसके लिए जन्नत की हक़दारी का प्रावधान….
जैसे उनके धार्मिक स्वतंत्रताओं/मान्यताओं के सामने निश्चित रूप से सनातन धर्म एक बहुत बड़ी या यूँ कहें कि सीधे उलट धर्म/व्यवस्था है।फिर भला एकबार जो सनातन से निकलकर उस भोगवादी पन्थ में गया,वापस आकर क्योंकर फिर से बंधना,वर्जनाओं में घिरना चाहेगा?
हमनें देखा ही है कि बॉलीवुडिया कई अभिनेता नेत्रियों या राजनीति से जुड़े हिन्दुओं ने बहुविवाह के लिए स्लाम अपना लिया क्योंकि इसकी निर्बाध सुविधा वह पन्थ सहर्ष देता है।एक तरफ जो व्यभिचार है,दूसरे तरफ आचार है।
हमें न चाहते हुए भी स्वीकार करना होगा कि सभी लोग जो हिन्दू धर्म त्यागकर उस पन्थविशेष में गए, केवल तलवार के बल पर ही नहीं गए।भोग की अपरिमित संभावनाओं को देखकर भी गए थे। और एकबार यदि इन सुविधाओं का अभ्यास लग जाय तो सरल नहीं उससे बाहर होना।
आज जिसे हम स्लाम के नाम से जानते हैं, मुझे लगता है यही है वह आसुरी संस्कृति जिसका आदिकाल से मानवों तथा देवों से संघर्ष रहा।मनुष्य और देव् सदा ही पीड़ित प्रताड़ित तथा खदेड़े जाते रहे असुरों द्वारा।और जब इनके आतंक की पराकाष्ठा हुई तो कोई महाशक्ति अवतरित होकर इनके विनाश को इनसे भी अधिक क्रूर होकर प्रस्तुत हुई।
पुराणों में वर्णित है कि त्रिदेवों ने सृष्टि में संतुलन रखने हेतु देव(सतोगुणी) दानव(तमोगुणी) और मनुष्य(रजोगुणी) तीनों को ही तीन लोकों में रहने व एक दूसरे के सीमाओं का सम्मान करने का निर्देश दिया।किन्तु असुर/दानव तभीतक अपनी सीमाओं में रहे जबतक वे बलहीन रहे।
हम यदि उनसे यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारी तरह ही अहिंसा करुणा सदाशयता से उन विपरीत पंथानुयायियों का भी हृदय भरा रहे और हम आपस में मिलजुलकर भाईचारे से रहें,,तो यह उनके प्रति हमारी क्रूरता है।क्योंकि हमनें भले अपने धर्म को दृढ़ता से न पकड़ा हो,वे अपने धर्म के प्रति समर्पित धर्मप्रवण हैं।अपने आरम्भ काल से आजतक वे कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे जो करना उनपर जायज़ नहीं।कुछ थोड़े से लोग यदि ऐसा नहीं कर रहे हैं तो या तो वे दण्ड के भय से ऐसा नहीं कर रहे या ऐसा करने का सामर्थ्य उनमें नहीं।इन दोनों ही परिस्थितियों के बदलते ही वे सभी एक जैसे हैं।कोई इक्का दुक्का यदि फिर भी वैसा नहीं, तो देर सबेर वह सनातन में वापसी अवश्य करेगा,निश्चित है।
वस्तुतः यह अन्तर और संघर्ष दो विपरीत मान्यताओं का है।हाथ पैर मुँह कान से एक जैसे दिखते हैं इसलिए सभी मनुष्य ही हैं,ऐसा बिल्कुल नहीं है।मनुष्य किस मान्यता में आबद्ध है,यह मनुष्य को मनुष्य से पृथक करता है।

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