Home विषयअर्थव्यवस्था चमड़े का सिक्का
आपने चमड़े का सिक्का चलाए जाने वाली बात सुनी होगी। वो और कुछ नहीं थी सिवाय सुपरक्लास पप्पूडम के। अब चूँकि हर पप्पू को भगवान कुछ अहेतुक कुलचमचे दे ही देते हैं तो उसकी कुछ न कुछ उपयोगिता भी कुछ कुलचम्मच बता ही देते हैं। लेकिन था वो सुपर डुपर हिट किस्म और क्लास का पप्पूडम ही।
सन 1582 ई. में शुरू हुआ ग्रेगेरियन कैलेंडर भी अपने मूल रूप में एक चमड़े का सिक्का ही था। पोप ग्रेगरी महाशय पर चले इस कैलेंडर ने जिस कैलेंडर को विस्थापित किया था, वह जूलियन कैलेंडर भी आला दर्जे का चमड़े का सिक्का ही था। उसने परंपरागत रोमन कैलेंडर को विस्थापित किया था।
रोमन कैलेंडर, जो कि उस समय पूरे यूरोप में प्रचलित था, मार्च से शुरू होता था। मार्च माह को लैटिन में मेंसिस मार्टिअस कहते हैं। मेंसिस का अर्थ माह होता है। इसे विशेषण या क्रिया विशेषण बनाने के लिए लैटिन में किसी और प्रत्यय की आवश्यकता नहीं होती। इसी तरह मार्टिअस शब्द का अर्थ है मंगल। मंगल ग्रह को पूरब और पश्चिम दोनों ही संस्कृतियों में युद्ध का देवता माना जाता है। मंगल को नए आरंभ, क्रिया, तत्परता, सक्रियता, कर्तव्यपरायणता का प्रतीक भी माना जाता है। इसी से मार्च शब्द की व्युत्पत्ति होती है और मार्च का अर्थ होता है चल पड़ना, अर्थात नई शुरुआत, श्रीगणेश। यह मार्च शुरू होता था आज के अप्रैल के आसपास।
जूलियन कैलेंडर जुलियस सीजर ने चलाया था। सीजर महाशय चाहे कितने भी वीर रहे हों लेकिन वे कोई लोकप्रिय शासक नहीं थे। तानाशाह थे। उन्होंने भी साल को तर्कसंगत बनाने के नाम पर दो महीने पीछे घसीटा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे भारत के संविधान में दो फालतू शब्द उंस समय घुसेड़ दिए गए जब संसद ही अवैध थी। तानाशाह लोग मुख्यतः दो ही कामों में विश्वास करते हैं – घसीटना और घुसेड़ना। घसीटने-घुसेड़ने की इस सारी कार्रवाई ग्रेगरी महाशय ने नया जामा पहनाया था, केवल इसलिए कि साल का ईसाई त्योहारों के साथ तालमेल बिठाया जा सके।
यह काम ग्रेगरी महाशय ने एक पैपल बुल के जरिये किया था। पैपल बुल कोई बैल या सांड नहीं, बल्कि चर्च की ओर से जारी किया गया एक धार्मिक आदेश होता है, लगभग फतवे जैसा। प्रकृति पूजा में विश्वास करने वाली लाखों महिलाओं को डायन कहकर जो पूरे यूरोप में अत्यंत बर्बर तरीके से मारा गया था, उसके मूल में भी एक पैपल बुल ही था। ऐसा दूसरा नरसंहार केवल भारत में हुआ है, हिंदुओं का। और वह भी सिलसिलेवार। पहले मालाबार, फिर भारत पाकिस्तान विभाजन के नाम पर पंजाब-बंगाल और सिंध, फिर अहिंसा की पूजा के तहत महाराष्ट्र में केवल चितपावन ब्राह्मणों का और फिर कश्मीर में पंडितों का।
लेकिन जैसे दुनिया यहूदियों के नरसंहार के बारे में जानती है और हिटलर को राक्षस मानती है लेकिन विचेज हंट के बारे में नहीं जानती, बिल्कुल वही हाल यहूदियों से भी पांच छह गुना हुए हिंदुओं के इन नरसंहारों का भी है।
अब पैपल बुल के जरिये कोई तानाशाह सरकारों में तालमेल भले बैठा दे, जनता इसे मान नहीं पाती। खासकर गँवई मन, जो हमेशा विनम्र लेकिन गुलाम मानसिकता के खिलाफ होता है। तो जनता अपना वही कैलेंडर मानती रही, मार्च वाला। इन दोनों कैलेंडरों के बीच आम जनता में संक्रमण जैसी स्थिति चल रही थी। संक्रमण के इस दौर में जो लोग ग्रेगरी महाशय के पप्पूडम का विरोध कर रहे थे उनको ठिकाने लगाने का नया तरीका निकाला गया।
ग्रेगरी महाशय तो पोप थे न! तो वे सीधे बंदूक बम आदि का उपयोग नहीं कर सकते थे। उन्होंने वो तरीका निकाला जो बॉलीवुड ने हिंदुओं को ठिकाने लगाने के लिए बाद में इस्तेमाल किया, मजाक उड़ाने का। जो लोग अपने हिसाब से मार्च और नए हिसाब में अप्रैल के आसपास अपना नया साल मनाते थे उन्हीं अप्रैल फूल कहने लगे और पहले निजी तौर पर अपने ही छोटे छोटे समूहों और बाद में सार्वजनिक रूप से उन्हें अप्रैल फूल कहकर मजाक उड़ाने लगे। उन दिनों अप्रैल फूल का अर्थ होता था गँवार यानी गाँव का रहने वाला। बाद में यह शुद्ध मूर्ख का पर्याय हो गया।
अब मूर्ख कौन है, वह जो उस समय अपना नया साल मनाए जबकि पूरी प्रकति ही ठंड से ठिठुर कर सिकुड़ी हुई हो, कंपकपाती सी जैसे तैसे जी रही हो; या फिर वह जो अपने नए साल का श्रीगणेश वहाँ से करे जहाँ से प्रकृति बिल्कुल नई सजधज के साथ नवजीवन में प्रवेश कर रही हो, यह आप स्वयं तय करें।
आपको प्रकृति के साथ रहना है या फिर पप्पूडम के, यह फैसला मैं थोड़े करूंगा। अपना फैसला तो आपको खुद ही करना होगा।
[डिस्क्लेमर: इसे अप्रैल फूल वाला मजाक समझने का पप्पूडम न करें, यह वास्तविक इतिहास है। चाहें तो खुद पढ़कर देख लें। बहुत कुछ तो गूगल पर ही मिल जाएगा।]

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