पिछले वर्ष जातीय जनगणना करवाने की मांग के गहमा गहमी के बीच राजद द्वारा राज्य सरकार को लिखे पत्र में केवल हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों पर ही जोर दिया था जिससे खिन्न होकर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के लिए सहर्षरत देशभर के विभिन्न पसमांदा संगठनों और उसके कार्यकर्ताओ की ओर से तीखा विरोध करते हुए जाति जनगणना को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के करवाने का आग्रह किया गया.
भाजपा की ओर से यह भी आशंका जताई गई कि कहीं ऐसा न हो कि अशराफ मुसलमान जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अगड़े हैं वो इस गणना की आड़ में पिछड़े और अति पिछड़े न बन जाएं. बिहार राज्य में ऐसा एक बार हो भी चुका है जब उच्च अशराफ वर्ग मलिक जाति(सैय्यद) ने स्वयं को पिछड़े वर्ग में सम्मिलित करवा लिया था. जिसके विरोध में संबंधित आयोग में शिकायत की गई थी लेकिन अभी तक इस मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है.
लेकिन अब भी एक महत्वपूर्ण सवाल, मुस्लिम समाज के आदिवासी और दलित की गिनती पर बैठक में खुल कर कुछ स्पष्ट बात नहीं कही गई. गौरतलब है कि हिन्दू समाज के अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति की गणना होती आई है किंतु अन्य धर्मों के दलितों और आदिवासियों की गणना भी सामाजिक न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. रंगनाथ मिश्रा कमिटी और सच्चर कमिटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों और आदिवासीयों के दयनीय स्तिथि स्पष्ट है. इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के साथ साथ दलित वर्ग और आदिवासी वर्ग के मुस्लिम समुदायों की गणना करवाना तर्क एवं न्याय संगत होगा.
भारतीय समाज में सामाजिक न्याय को पूर्ण रूपेण स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दू समाज के साथ साथ अन्य सभी धर्मों यथा मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि के अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति से संबंधित सभी समुदायों की गिनती सुनिश्चित किया जाना समाज और राष्ट्र हित में होगा.