मेरी एक दोस्त हैं। युवा हैं और कविताएं लिखती हैं। एक दिन पूछने लगीं कि लेखक या कवि जो भी लिखते हैं क्या वही लिखते हैं जो उन के साथ घटित होता है? मैं ने उन्हें बताया कि बिलकुल नहीं। वह पूछने लगीं कि तो क्या ज़्यादातर लिखना कल्पना में ही होता है? मैं ने कहा कि कल्पना भी कुछ होती है पर बिना सच के तो कुछ भी नहीं हो सकता। हां, यह ज़रुर हो सकता है कि वह सच किसी और का भी हो सकता है और लेखक या कवि लिख दे रहा हो। साझा अनुभव भी हो सकता है। लेकिन लेखक या कवि सिर्फ़ वही लिखे जो उस के साथ घट रहा हो, यह तो होता नहीं है। जो ऐसे कोई लिखेगा तो वह कितने दिन लिखेगा? और कितना लिखेगा। कल्पना में भी यथार्थ का पुट होता ही है। दूसरों का भी यथार्थ जुड़ता ही है। वह कहने लगीं कि नाम नहीं बताऊंगी पर एक हैं जिन्हों ने आज कहा कि तुम सीधी-साधी लड़की हो इस लिए तुम्हें प्रेम कविताएं नहीं लिखनी चाहिए। और अगर लिखो भी तो उसे फ़ेसबुक पर मत लगाओ। इस से तुम्हें लोग गलत समझेंगे। तब से मन परेशान है। मैं हंसा यह सुन कर तो वह पूछने लगीं कि कहीं मैं गलत तो नहीं हूं? कोई कुछ कह देता है तो सोचना पड़ता है। कि कहीं मुझ से गलती तो नहीं हो रही?