Home नया जेल की राजनीती
इतनी राजनीति तो संसद में भी नहीं होती होगी। जितनी जेल में है। और अपनी पढ़ाई लिखाई समझदारी सब यहां बेकार है। कदम-क़दमपर राजनीति। एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश। चुगलखोरी आदि औरतों के सारे गुण यहां मौजूद हैं। हम तो भइया आदमी के गुण से भरपूर हैं। महिला टाइप कुछ भी नहीं हैं मुझ में। बिलकुल मिसफिट है। इस माहौल में। सब के बीच में बेवकूफ लगते हैं। सारा दिमाग यहां का माहौल ही समझने में लग जाता है। समझ के इसी हिसाब से रिएक्ट करने में ही थक जाते हैं और कुछ लोग दिन भर इसी में लगे रहते हैं। ज़िंदगी में सब से बड़ी चीज़खाना ही रह गया है। सुबह से यही संघर्ष शुरू हो जाता है कि आज ढंग का खाना कैसे मिले? हे भगवान किस नरक में डाल दिया है तूने। जीते जी का नरक शायद यही होता है। इस से बचने का कोई उपाय नहीं। और पता नहीं कितनी बार यहां आना है और ये नरक झेलना है। बहुत कोशिश करते हैं कि इस तरफ से ध्यान हटा कर ‘‘तू रखे जिस हाल में दाता हर पल शुक्र मनाता रहे’’ के हाल में रह लें। लेकिन नहीं हो पाता। और उस भगवान से शिकायत हो ही जाती है कि आखिर इतना बड़ा कौन सा गुनाह कर दिया है कि यही नरक बार-बार देखने को मिल रहा है। पता नहीं प्रभु कहां सो गए हैं? कभी-कभी सोच लो तो आगे अंधेरे के अलावा और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शायद ज़िंदगी के सारे सुख अब मुझ पर ख़त्म । और यही डासना का नरक अब ज़िंदगी भर झेलना है। दूसरों को देख-देख कर कब तक सब्र करें, कि इन से तो अच्छी ज़िंदगी है। और बहुतों की ज़िंदगी हम से भी ज़्यादा अच्छी है और उस पर मेरा हक क्यों नहीं?
अब तो बिटिया की भी बहुत चिंता होती है , 25 साल की हो जाएगी अब। लेकिन उस की शादी की कोई सुगबुगाहट ही नहीं है अभी तक। पता नहीं उस के नसीब में क्या लिखा है? हम उस की जिम्मेदारी निभा भी पाएंगे या नहीं? कुछ समझ ही नहीं आता। उस की ज़िंदगी में नौकरी के सिवा और कुछ है ही नहीं। कितनी जल्दी समय से पहले ही बड़े हो गए मेरे बच्चे। भगवान उन्हें तो सुख दो। हमारे हिस्से का भी सारा। हम उसी में ख़ुश रह लेंगे। अब बस चुपचाप बैठ कर बुरा समय काटने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं।
तीन दिन से भंडारा दूसरे ग्रुप को दे दिया गया है। वो ग्रुप हम लोगों से रिजिड है कि इन्हें तो जेल का ही खाना देना है। थोड़ा अलग जो ढंग का खाना बनता है उसमें से नहीं। तो रोज शाम को बैरक के पीछे चूल्हा जला कर कुछ न कुछ बना ले रहे थे हम लोग। कल उस के पीछे भी बवाल हो गया। ये महिला पुलिस भी सब बहुत वाहियात होती हैं। कुछ भी कहो सुनो अपनी मूर्ख बुद्धि से ही चलती हैं। हम तो कल से किसी से भी बात नहीं कर रहे। लेकिन करनी तो पड़ेगी ही। जब यहां ही रहना है तो इन से दुश्मनी तो कर नहीं सकते।
सांस का मतलब जान नहीं है
आज 2014 का आखिरी दिन भी आ गया। 2013 का आखिरी दिन भी यहीं बिताया था और 2014 का भी यहीं बीत रहा। मोहिनी चिढ़ा भी रही कि इन्हें भी कोई जगह नहीं मिलती जेल चली आती हैं , न्यू ईयर सेलीबेरेट करने। अब क्या करें ? लखनऊ में मुदित भइया और उन के पापा होंगे। पता नहीं कैसे मनाया जा रहा होगा? मेरे बिना मेरा घर कैसा होगा? अब तो घर का मोह त्यागना ही होगा। पता नहीं कितने दिन अपने घर में रह पाएंगे? फिर यही डासना। खैर चलो जो भी प्रभु की इच्छा। मेरे मित्रों के अनुसार ‘‘ये भी बीत जाएगा।’’ कल से 2015 शुरू हो जाएगा। हैपी न्यू ईयर टू इवरी बॉडी ! भगवान सब का ये साल अच्छा-अच्छा बिताए।
चलिए जी नया साल भी शुरू हो गया। साल का पहला दिन भी सकुशल बीत गया। पता नहीं बाहर कैसा रहा होगा? लेकिन चलो नो न्यूज , गुड न्यूज। कल जेलर की भलमनसाहत का एक रूप और दिखा। ऊपर वाली बैरक में एक पागल महिला है। इतनी ठंड में भी कंबल नहीं ओढ़ रही थी। ड्यूटी वाली, डाक्टर सब कह-कह कर परेशान हो गए लेकिन उस ने नहीं ओढ़ा। जेलर भी रात 12 बजे तक यहीं चक्कर काटते रहे। वो तो डाक्टर ने नींद का इंजेक्शन दिया तो उस के सोने के बाद उसे कंबल उढ़ाया गया। जब वो ओढ़ कर सो गई तब रात 12.30 पर जेलर घर गए। अपना नया साल यहीं मरीज महिला की सेवा में बिता कर। अच्छा लगा देख कर। ऐसे ही एक दिन रुबीना उस आग को जो कि हाथ सेंकने के लिए जलाई जाती है थाली में ले कर अपने बैरक में चली गई। पता चलने पर जेलर ने उसे बहुत डांटा लेकिन दूसरे ही दिन पानी गरम करने की रॉड मंगा दी कि बच्चों को गरम पानी से नहलाया जाए। बच्चे बीमार, औरतों और बूढ़ी महिलाओं को गर्म पानी मिलता रहे। और ये सब वो बिना लालच के सिर्फ़ मानवता के लिए करते हैं।
आजकल मुझे बच्चों से ज़्यादा बच्चों के पापा की याद आती है कि बच्चे मुझे मिस करते होंगे तो उन्हें संभालने के लिए पापा हैं लेकिन जब पापा परेशान होते होंगे तो उन्हें कौन देखता होगा? आज तक तो कभी भी इस तरह की जिम्मेदारी उठाई नहीं है और अब 52 साल की उम्र में ये सब भी सीखना पड़ रहा है। कैसे मैनेज करते होंगे? खैर वक्त सब सिखा देता है। हमने ही कौन सी जेल देखी थी? क्या जानते थे यहां के बारे में। आज सब मैनेज कर ही रहे हैं और रह भी रहे हैं। ऐसे ही वो भी सब कर ही रहे होंगे। अब तो डेट का समय भी पास आ रहा है। पांच को तारीख़है। पूरे छब्बीस दिन हो जाएंगे, पांच को। छब्बीस दिन बाद हम इस महिला बैरक से बाहर निकलेंगे कोर्ट जाने के लिए। पता नहीं बाहर जाने के लिए कब यहां से निकलेंगे?
दो दिन से पानी बरस रहा है बड़ा डिप्रेसिंग सा मौसम है। बैरक के बाहर भी नहीं निकल सकते कि कहां जाएं । सब जगह पानी ही पानी है। तो उसी बैरक में अपने फट्टे पर पूरे दो दिन से पड़े हैं कोई भी चेंज नहीं।
मोहिनी ही सब का ध्यान रखती है। समय-समय पर चाय पानी दे कर। ये वही लड़की है जो पिछले साल भी थी। 2013 की फरवरी में आई थी। अपने मामा के लड़के की हत्या में 302 की मुजरिम हो कर। ये नर्स है।। हांगकांग, चीन आदि जाती रहती थी काम के सिलसिले में। इस के मामा के लड़के को भी जाना था। उस ने इस से फ़ोन पर बात की। इसने अपने एक अंकल का नंबर दे दिया। अंकल उस के मामा (जिन का बेटा था) के साथ नौकरी करते थे। अंकल ने वो आफिस भी दिखा दिया जहां बाहर जाने का काम होता था। उसी रात में वो लड़का अपने दोस्त के साथ खा पी रहा था। और रात बारह बजे उस की हत्या हो गयी। उस के मामा ने इसे और अंकल जी को फंसा दिया कि ये नर्स थी तो नींद की गोली आमलेट में मिला कर खिलाई और अंकल ने गला दबा दिया। इस पूरी कहानी में बहुत झोल था लेकिन कोई पैरवी करने वाला नहीं था तो ज़मानतही नहीं हो पाई। अब तो गवाही भी शुरू हो गई हैं तो जल्दी ज़मानतकी कोई उम्मीद भी नहीं है। मामा अंकल से 15 लाख रुपए मांग रहा था समझौता करने को। लेकिन अंकल ने मना कर दिया कि इतना पैसा नहीं है और अब वो बूढ़े अंकल और मोहिनी 23 महीने से जेल काट रहे हैं। इस की मुलाक़ात भी कम आती है। राजस्थान की रहने वाली है। तो जल्दी-जल्दी कौन आए मिलने? लेकिन इस का व्यवहार इतना अच्छा है कि इसे कोई दिक्क़तनहीं होती। हर कोई इस के लिए दिलोजान से खड़ा रहता है। ड्यूटी वालों के भी कई काम फ्री आफ कास्ट करती रहती है। और 23 महीने से यहां है तो यहां के सारे रंग ढंग जान गई है। पूरी तरह से रच बस गई है। लेकिन अपनी डिगनिटी बनाए रखते हुए। और अभी मुश्किल से 28 साल की होगी और इतनी दुनिया देख ली । बता रही थी कि वकील ने कहा था कि बस 14 दिन। 15 वें दिन आप बाहर होंगी। 14 दिन के हिसाब से जो जेल आया हो और उसे दो साल हो रहे हों तो उस की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है लेकिन तब भी वो काफी बैलेंस है। चांदनी का तो बहुत ख्याल रखती है। चांदनी को उस की वजह से जेल काटनी आसान हो गई है। वैसे भी चांदनी 10 या 11 बजे तक सुपरिटेंडेंट के आफिस चली जाती है। फिर शाम के 5 से 5.30 बजे तक लौटती है। क्यों कि 6.30 बजे तक बैरक बंद होता है। लेकिन उस के बाद भी बहुत सी समस्याएं होती हैं। जिन्हें मोहिनी ही मैनेज करती है। चांदनी आफिस में फाइल्स आदि का काम करती है। दांत का मरीज आता है तो हास्पिटल भी जाती है दिन भर इसी में बिजी रहती है, तो थोड़ा माइंड डाइवर्ट रहता है। एक साल में सब लोग उसे जानने भी लगे हैं सारे लंबरदार, राइटर उस की बहुत इज्जत करते हैं।
लंबरदार पीली वर्दी पहने हुए वो लोग होते हैं जो सज़ायाफ़्ता होते हैं। सारा प्रशासन इन के हाथ में होता है। सब पर निगरानी रखने का काम इनका होता है और ज़रा भी गड़बड़ होने पर इन्हें हाथ छोड़ देने का पूरा अधिकार होता है। एक तरह से अधिकारियों के पाले हुए गुंडे होते हैं जिन्हें सब छूट होती है। कई लंबरदार तो ऐसे होते हैं जो जेल से हर महीने अपने घर खर्चा भेजते हैं। हजारों में इन की कमाई होती है। बंदियों की मजबूरी के सौदागर जो होते हैं ये लोग।
राइटर वो होते हैं जो हवालाती होते हैं मतलब विचाराधीन कैदी जिन के केस का फाइनल न हुआ हो इन से क्लर्की का सारा काम लिया जाता है। जितना भी लिखा पढ़ी का काम सब इन के जिम्मे। आवेदन पत्र लिखने से परवाना बनाने तक परवाना मतलब रिलीजिंग आर्डर। जेल की भाषा के कुछ प्रचलित शब्द हैं। (1) फट्टा (2) खटका (3) पेशी (4) परवाना आदि।
फट्टा मतलब वो डेढ़ हाथ की जगह जो हम लोगों को सोने के लिए मिलती है।
खटका वो होता है जो सुबह बैरक खोलने के लिए गेट बजाया जाता है या खाना बांटने के लिए बरतन पीटा जाता है। मतलब अटेंशन दिलाने के लिए जो आवाज़ की जाती है उसे खटका कहते हैं।
पेशी का मतलब आज तक हम यही जानते थे कि आप की ग़लती की सज़ाजहां मिले उसे पेशी कहते हैं। लेकिन यहां पेशी का मतलब पेश होना और जेलर या सुपरिटेंडेंट के पास जा कर अपनी बात कहना या कोई समस्या बताना। उसे पेश होना कहते हैं।
परवाना मतलब जेल से बाहर निकलने के रिलीज आर्डर। सब से ज़्यादा खुशी जेल में इसी एक शब्द की होती है। सब के चेहरे खिल जाते हैं। जैसे ही चीफ आ कर बताते हैं कि परवाना आया है।
चीफ यहां पर सेकेंड नंबर का स्टाफ होता है। सब से ऊपर अधीक्षक, उस के नीचे जेलर, जेलर के नीचे डिप्टी जेलर, उस के बाद चीफ और सब से नीचे सिपाही। कुल यही इतना स्टाफ होता है जेल का। बाक़ीका सारा जेल का इंतजाम जेल के कैदी ही संभालते हैं। जिस कैदी को जो काम आता है उसे वो करना ही होता है। बिजली का काम जानने वाला बिजली का काम करता है, पुताई का पुताई वाला, नाई का नाई, यहां तक कि डाक्टर को भी अस्पताल में बैठ कर मरीज देखने पड़ते हैं। पूरे जेल का निजाम कैदियों से ही चलता है।
हम लोगों को तो दिन भर में दो चार बार सुनने को मिल जाता है कि घोटाले वाले चार सौ बीस। पहले पहल तो बड़ा बुरा लगता था। अब तो बेशर्म हो गए हैं। खुद ही हंस लेते हैं कि हां हम लोग 420 हैं। वैसे भी इस समय महिला बैरक में एन.आर.एच.एम. के काफी लोग हो गए हैं। डाक्टर, एन.जी.ओ. वाली हम और वंदना दो सप्लायर और 5 ए.एन.एम.। कुल मिल कर हम नौ महिलाएं हैं, एन.आर.एच.एम. की।
आदमियों की तरफ तो सुनते हैं पूरा एक हाता ही एन.आर.एच.एम. को दे दिया है। ऊपर नीचे की दोनों बैरक मिला कर पूरा हाता। मिनिस्टर साहब का स्टाफ बच्चा बैरक में है। विधायक जी और सारे डाक्टर सी.एन.डी.एस. के लोग एन.आर.एच.एम. बैरक में। दो हिस्से में बंटा हुआ है पूरा एन.आर.एच.एम.। मिनिस्टर साहब भले जेल में हैं पर उन का प्रमुख सचिव जो आई.ए.एस. है, बीमारी के बहाने सुप्रीम कोर्ट से बेल करा कर बाहर है। नौकरी कर रहा है। अपने बैच का आई.ए.एस. टापर है। और इस पूरे एन.आर.एच.एम. घोटाले का भी टापर है। सोचिए कि तीन-तीन विभागों के कैबिनेट मंत्री तीन थे पर इन सब का प्रमुख सचिव एक ही जो यही थे। सारे घोटाले के जनक यही। यह आगे-आगे , मंत्री विधायक पीछे-पीछे। अजब जुगाड़, अजब दिमाग। बीवी भी आई.ए.एस.। पूरा परिवार आई.ए.एस.। लेकिन पैसे की हवस नहीं गई। तब के प्रधान मंत्री कार्यालय में इन के एक रिश्तेदार आई.ए.एस. तैनात थे। मतलब कि पी.एम.ओ. का भी जोर था। लेकिन फिर भी बच नहीं सके।
जो भी हो जब कभी कचहरी में व्हील चेयर पर उन्हें बैठे देखती हूं, तो उन पर बहुत तरस आता है। कभी यह गाजियाबाद के जिलाधिकारी हुआ करते थे। बतौर जिलाधिकारी इस पूरी कोर्ट का शिलान्यास इन के ही हाथों हुआ है। पत्थर पर इन का नाम लिखा हुआ है। जिस कोर्ट का शिलान्यास किया, उसी कोर्ट में मुजरिम। और तो और जिस डासना जेल में वह बार-बार आते जाते रहते हैं बतौर कैदी। उस डासना जेल का शिलान्यास भी बतौर डी.एम. यही जनाब कर गए थे। वहां भी इन जनाब का नाम पत्थर पर लिखा हुआ है। जहां यह बतौर कैदी दिन गुज़ारते हैं। समय क्या-क्या न करवा दे। क्या गुज़रती होगी उन के दिल पर यह सब सोच कर? पर फिर सोचती हूं कि वह यह सब सोच भी पाते होंगे भला? याद भी आता होगा अपना वह शिलान्यास? रेड रोज फिल्म की याद आ जाती है। जिस में राजेश खन्ना कुछ इसी तरह जेल पहुंचते हैं। कई हत्या करने के बाद। हत्या के जुर्म में। जब कि पहले इसी जेल में वह कैदियों को फल, कंबल आदि बांटने आते थे।
आज पता चला दो महिलाएं एच.आई.वी.पाजिटिव भी हैं। घर वालों ने भी उन्हें छोड़ रखा है। इसी जेल के भरोसे वो जिंदा हैं। एक काफी बूढ़ी महिला दहेज में बंद है। अभी तक उस के केस का फ़ैसलाभी नहीं हुआ है। उस की तबियत बहुत ख़राब है। डाक्टर बताते नहीं हैं लेकिन लगता है दिमाग की कोई दिक्क़तहै। क्यों कि हाथ पैर हिलते रहते है। पैर रखती कहीं हैं , पड़ते कहीं हैं। नाक से पानी आ रहा है। मतलब बहुत बीमार है। लेकिन उन की तारीख़भी आती है तो डाक्टर मेडिकल नहीं देते और वो बेचारी ऐसे ही हिलते डुलते हुए लोगों के सहारे से वज्र वाहन में बैठ कर कचहरी जाती है। मानवता नाम की कोई चीज़ही नहीं है। कल बेचारी जेलर के सामने हाथ जोड़ कर रो रही थी कि मुझे बाहर निकलवा दो। वो बेचारे क्या कहते, चुप ही रहे। लेकिन अच्छी चिकित्सीय सुविधा तो दिला ही सकते हैं।
कल एक महिला साल भर के बच्चे के साथ आई है। उस का देवर लड़की ले कर भाग गया है। लड़की वालों ने पूरे परिवार का नाम दे दिया। सब से पहले पुलिस ने इसे ही पकड़ा। उस का बच्चा नई जगह और ठंड की वजह से पूरी रात रोता रहा। सुबह उस की तबियत ख़राब हो गई। पुलिस वालों ने उसे बच्चे की दूध की बोतल भी साथ नहीं रखने दी और बच्चा बेचारा ऊपर का दूध पीता है। आज वो पूरे दिन एक-एक पुलिस वाली के सामने रोती रही कि कोई दूध की बोतल ला दो। बच्चा भूख से बीमार हो गया। वो पैसा भी दे रही थी पर किसी ने न सुनी। हाय रे ये बेबसी।
आज पूरे 26 दिन बाद बाहर निकले। मुदित और इन से मुलाक़ात हुई। मुदित तो काफी मेच्योर लग रहे थे। उन के पिता जी का ही समझ नहीं आ रहा था कि कैसे हैं? मेरे सामने तो यही जाहिर कर रहे थे कि बिलकुल ठीक हैं। लेकिन इतना तो हम भी इन्हें जानते ही हैं कि आंखें कुछ और कह रही हैं और जबान कुछ और। मुदित से पूछा तो बोला मम्मी इन का पहली बार है न हम लोगों का तो दूसरी बार है। तो आदत हो गई है। इन्हें तो समय लगेगा ही। ये भी सही है। लेकिन चलो ये भी घर गृहस्थी दुनियादारी सब जान गए। पिछली बार हम आए थे तो पप्पू नहीं रहा और इस बार उस की बहन निर्मला नहीं रही। पता नहीं ये कौन सा संबंध है मेरा उस परिवार से। ऐसे दुख के क्षणों में हम इतनी दूर और बेबस होते हैं। पूनम का चुनाव भी है पता नहीं कैसे सब मैनेज हो रहा होगा? चलिए हम सोच के भी क्या कर लेंगे।
पचास बावन दिनों से वकीलों की हड़ताल के चलते पूरा जेल ठसाठस भरा हुआ था। महिला बैरक में ही 148 कैदी हैं। दोनों ही बातें हैं। ठंड में ज़्यादा लोगों के होने से बैरक गर्म रहता है लेकिन सब को जेल वाले कंबल भी नहीं मिल पाते। दो-दो लोगों को एक कंबल में सोना पड़ता है। अमीरों की तो कोई नहीं घरों से कंबल आ जाते हैं। मुसीबत तो गरीबों की होती है। इस समय तो बस आग का ही सहारा है, लेकिन वो भी सुख बैरक बंद होने के बाद नहीं मिलता। उसी ठंड में ठिठुरते रहो रात भर। जाड़े की रात कितनी लंबी होती है अब पता चला।
जेल में कपड़ा सुखाने को रस्सी नहीं मिलती। पुराने दुपट्टे फाड़ कर जोड़-जोड़ कर रस्सी बनाई जाती है और कपड़े सुखाने होते हैं। सब की जगह तय है कि किस की रस्सी कहां बंधेगी? रस्सी पर कहां तक किस के कपड़े सूखेंगे। कोई दूसरा अपने कपड़े उस जगह नहीं सुखा सकता है। जो लोग ज़्यादा समय से यहां रह रहे हैं ये सारी व्यवस्थाएं उन के हाथ में ही होती हैं। नए लोगों को तो लड़ना ही पड़ता है। इस बात का भी संघर्ष।
यहां लोगों की औकात उस की मुलाक़ात आने से नापी जाती है। मुलाक़ात मतलब आप से मिलने कितने लोग और कितनी बार आते हैं? और आप के लिए कितना सामान लाते हैं। जिन की झोला भर-भर मुलाक़ात आती है और पुराने लोग जिनकी मुलाक़ात नाम मात्र को आती है वो लोग ऐसे लोगों के पीछे-पीछे घूमते हैं जिन की मुलाक़ात ज़्यादा आती है। कमला ने शबीना का काम करने से इसी लिए मना कर दिया था कि इस की मुलाक़ात तो आती नहीं। ये मुझे भला क्या देगी? शबीना एन.आर.आई है। जार्डन में उस का ओलिव आयल और भी कई चीजों का बिजनेस है। पति की कंपनी में वो डायरेक्टर थी। पार्टनर से कुछ डिस्प्यूट हो गया, उस ने डेढ़ करोड़ के घोटाले में इन्हें फंसा दिया। पति तो जार्डन में था तो बच गया लेकिन ये मुंबई से पकड़ कर लाई गई। ये अक्टूबर , 2013 में आई थीं पति तो बाहर ही था। बेटी 14 साल की है वो हॉस्टल में है। बूढ़ी मां थी जिन का देहांत इसी बीच में हो गया। एक बहन है जो लंदन में है। इस की पैरवी करने वाला भी कोई नहीं है। पति से शायद बनती नहीं है क्यों कि वो तो कोई प्रयास ही नहीं कर रहा। बहन इतनी दूर से क्या करें ? और केस अभी चार्ज तक पर नहीं लगा कि जल्दी केस निपटे और ये सज़ाकाट कर बाहर जाए। इसे शुगर है, अस्थमा है। पैर की भी कोई दिक्क़तहै। मोड़ नहीं सकती। रात में उठो तो फट्टे पर बैठी हुई ही मिलती है। दमे की वजह से सांस फंसने लगती है तो उठ के बैठ जाती है। बहुत तरस आती है उसे देख कर। लेकिन क्या करें जेल ऐसे ही बेबस लोगों से भरी हुई है।
मुदित भइया जो मेरे लिए पान केक लाए थे उस को खा कर चांदनी ने कहा कि एक राजेश को भी खिलाने का मन है उन्हें बहुत पसंद है। तीन बचे थे हमने तीनों उस के साथ बांध दिए। लौट कर उस ने बताया उस में से एक मंत्री जी ने खाया। इसे कहते हैं दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। न खरीदने वाला सोच सकता था कि इसे कौन खाएगा? न खाने वाला ही जान पाएगा किस ने खरीदा न पहचान पाएगा। वाह रे भगवान की लीला।
महिला बैरक पर पूरी जेल की नजर होती है। कई जवान लड़कियां भी यहां काफी समय से बंदी हैं। उन की भी अपनी इच्छाएं हैं। लेकिन यहां तो कुछ भी संभव नहीं है। तो इन लोगों ने उस का रास्ता निकाला है राइटर लंबरदारों के जरिए। राइटर और लंबरदार ही किसी न किसी काम के बहाने आ सकते हैं महिला बैरक में या फिर जेलर और अधीक्षक। ये लोग तो खैर अधिकारी हैं। लेकिन ये लड़कियां राइटर , लंबरदार को सेट कर लेती हैं। शनिवार को मुलाक़ात की पर्ची लगाती हैं। प्रेम पत्र लिखती हैं और चीफ या कैंटीन वाले के माध्यम से उधर आदमियों की तरफ भिजवा देती हैं। बस पत्रों का ही आदान प्रदान हो पाता है। इस से ज़्यादा और कुछ नहीं। जाने कौन से सपनों की दुनिया में खोई रहती हैं ये लड़कियां। वो सोचती हैं ये लोग बाहर निकल कर उन्हें भी निकालेंगे बाहर निकल कर भला कौन किस को पहचानता है। कहावत भी है जेल की यारी गेट पर मारी। हां ये है कि ये लड़कियां इसी तरह से अपना टाइम पास करती हैं। बहुत तरस आता है इन पर कि अभी तो इन्हों ने दुनिया भी नहीं देखी और यहां फंस गई। यहां से निकलने के बाद की ज़िंदगी कितनी कठिन है इस का भी अंदाजा नहीं है इन लड़कियों को। खैर इसी का नाम ज़िंदगी है।
आज हमारी तारीख़ थी। हर चौदह दिन पर जेल से कचहरी जा कर जज के सामने पेश होना पड़ता है। कि हां हम ठीक ठाक हैं और उसी तारीख़पर अगर केस थोड़ा आगे बढ़ता है तो बढ़ता है नहीं तो वहीं का वहीं ठप्प। हमारी जैसी 12 महिलाओं की और तारीख़थी। तारीख़विचाराधीन कैदियों की होती है। सज़ायाफ़्ता तो बड़ी हसरत से तारीख़पर जाने वाली बंदियों को देखती हैं उन को लगता है कि जैसे पिकनिक पर जा रहे हों। पिकनिक तो नहीं लेकिन जेल में रहते हुए खुली हवा में सांस लेने जैसा तो होता ही है। उस बैरक और मैदान के अलावा भी कुछ दिखता है। सड़क, आदमी, गाड़ियां ये सब दिखना भी नियामत हो जाता है, ये बाहर रहने वाला क्या जाने? हमारे आस पास कितनी चीजें होती हैं जिनके हम आदी होती हैं। कभी ये भी नहीं सोच पाते कि हम इन के बगैर भी जी पाएंगे या नहीं।
तारीख़ पर जाने का सब से दुखद पक्ष वज्र वाहन होता है। मिनिस्टर साहब ने तो वज्र वाहन के अपमान से बचने के लिए जेल को एक एंबुलेंस ही डोनेट कर दी है। अपनी बीमारी के बहाने वह जेल से कचहरी पेशी पर एंबुलेंस से ही आते जाते हैं। लेकिन हम या हमारे जैसे लोग? वज्र वाहन पर चढ़ते ही आप आम आदमी से अलग हो जाते हैं। लोगों की नजरों में अपराधी बन जाते हैं। वो महिला पुलिस कर्मी जो हमें जेल से कचहरी ले जाती और ले आती है वो भी हमारी तरह औरत ही होती है। भावनाओं और संवेदनाओं से भरी हुई। लेकिन करें भी क्या उन की भी नौकरी है। हमारे साथ कड़ाई और रुखाई से पेश आना उन की मजबूरी है। खैर इन सब बातों की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता। जेल से निकलते ही मन कचहरी पहुंच जाता है, और सोचने लगता है कि घर से कौन आया होगा। महिला पुलिस के साथ चलते-चलते ही घरवालों से बात करनी होती है, हां अगर कचहरी में जज के सामने पेश होने में थोड़ा समय होता है तो वही समय हमें घर वालों से, वकील से, बात करने को मिल पाता है। और वही अपनी पिकनिक हो जाती है। पति सोचते हैं ये जेल से आई है क्या-क्या खिला पिला दें। इसे और यहां तो इन को देखते ही मन और पेट सब भर जाता है। इंसान एक ट्रामा की स्थिति में चला जाता है। दिमाग काम करना बंद कर देता है। बस यही लगता है कि इन क्षणों को बारीकी से आंखों में कैद कर लो। क्यों कि वापस जेल जाने के बाद जीने का सामान यही यादें होती हैं। कचहरी का पूरा दिन इतनी जल्दी बीत जाता है कि पता ही नहीं चलता। यही समय एहसास दिलाता है कि हम बाहर एक दुनिया छोड़ आए हैं मजबूरी में। जिन के बिना जीने की कभी सोची भी नहीं थी। क्या कभी अपनी उस दुनिया में लौट पाएंगे? कभी-कभी तो मन करता है तारीख़पर ही न जाएं। इकट्ठे ही जेल से निकलें। हर बार तारीख़से वापस जेल आना भी किसी यातना से कम नहीं होता कि आप बिल्कुल भी वापस नहीं जाना चाहते। आप को जाना पड़ता है। हमारी क़िस्मत तो ऐसी है कि बार-बार बाहर से भी जेल आना पड़ता है। इंसान अपने अंदर कितनी हिम्मत लाए। जब तारीख़पर जाने लगो तो सज़ावाली औरतें अपने घरों के फ़ोन नंबर और संदेश कागज पर लिख कर देती हैं कि इनके जवाब लेती आना। हम जाते ही सारी पर्चियां जो मिलने आया होता है उसे दे देते हैं और जवाब ले आते हैं। जिनके फ़ोन उठ जाते हैं और कोई संदेश मिल जाता है वो औरतें तो ख़ुश हो जाती हैं और जिनके फ़ोन नहीं उठते उन्हें लगता है कि हमने कोशिश ही नहीं की। हम झूठ बोल रहे हैं, क्यों कि अपनी उम्मीद कोई नहीं तोड़ना चाहता। वहां उम्मीद ही तो उन के जीने का आसरा होती है। और कितनी औरतें तो ऐसी हैं जो खुशी-खुशी तारीख़पर जाती हैं और घर से कोई आया ही नहीं होता। सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। इस मामले में हम भाग्यशाली हैं कि हर तारीख़पर हम से मिलने कोई न कोई आता ही रहता है। जो आप को ये एहसास भी दिलाता है कि बाहर की दुनिया में भी लोगों को आप की ज़रुरत है। आप उन के लिए महत्वपूर्ण हैं। हमारा होना न होना भी मायने रखता है। लेकिन इस के साथ ही बड़ा मुश्किल होता है। अंदर से दुखी होते हुए भी घर वालों के सामने ख़ुश दिखने का नाटक करना। लेकिन ये सारी जद्दोजहद जेल पहुंचते ही ख़त्म हो जाती है। वहां आप जैसे हैं जैसा आप का मन है वैसे ही रहिए। क्यों कि वहां तो सभी हमारे जैसे हैं दुखी। सब के दुख साझे हैं। तारीख़पर कचहरी जाना कुछ खुशियां कुछ तकलीफें साथ लाता है। शायद यही ज़िंदगी भी है। कुछ खुशियों और तकलीफों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जी लेना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है।
ज़िंदगी में जब जेल कचहरी आदि परेशानियां आती हैं तो मौत का भय ख़त्म हो जाता है। ज़िंदगी जब पल पल पर भारी होने लगे। रोज के संघर्ष ख़त्म ही न हों तो मौत आसान लगने लगती है। जेल में इतना संघर्ष है रोज-रोज का कि क्या कहा जाए। तब लगता है भगवान मौत ही दे दो। अगर इस से किसी और तरह छुटकारा नहीं है। सब कहते हैं ये भी बीत ही जाएगा, अब तो लगता है इस के साथ हम भी बीत ही जाएंगे। अब हिम्मत टूटने लगी है।

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