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डॉक्टर साहब का अस्पताल और यह चुनावी रैली

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मेरे एक जानने वाले, जिनका छोटा सा अस्पताल चलता था। मरीजों की तादाद इतनी कम थी कि डाक्टर साहब मरीज देखने के बाद उसके साथ बैठकर घंटों बात कर लेते। साथ में मूंगफली चटका लेते। मरीज का मर्ज जानने के साथ उसके गांव घर, परिवार, नात रिश्तेदार, जाति, गोत्र, खेत खलिहान, बाग बगीचे, गाय, दूध तक की खबर रखने तक की फुर्सत रखते। उसी समय (संघर्ष के समय) डाक्टर साहब की शादी तय हुयी। जो तय तिथि के लगभग सात-आठ महीने बात निश्चित हुयी।
डाक्टर साहब भी अस्पताल की व्यवस्था एवं विवाह की तैयारियों में शिद्दत से लगे थे। इधर विवाह की तिथि दिनों-दिन नजदीक आ रही थी उधर अस्पताल की रफ्तार में कोई फ़र्क नहीं!
खैर अस्पताल जहां था वहीं था लेकिन विवाह सकुशल संपन्न हुआ। दुल्हन भी घर आ गयीं।
हमारी तरफ़ विवाह के चौथे दिन ‘चौथ’ की रस्म होती है जिसमें कन्या पक्ष के परिवार एवं उनके अति निकटस्थ लोग कुछ मिठाईयां, फल कपड़े आदि लेकर लड़की के ससुराल पहुंचते हैं। वह लड़की का कुशलक्षेम जानने तथा उसके मन मनुहार का एक विशेष क्षण होता है।
मुझे याद है चौथ के दिन न जाने क्या हुआ कि अस्पताल पर मरीजों का जत्था गिरने लगा। अधिकतर मरीज चहरे और शरीर से स्वस्थ्य दिखाई देते लेकिन उनके हाथ में दवा का पुराना पर्चा, दवा, एक्स-रे आदि से अंदाजा लग जाता कि मरीज हैं यह। सभी को उनके स्वास्थ्य एवं अवस्था के साथ सुलाया तथा बिठाया जाने लगा। अस्पताल प्रशासन की तरफ से चाय-पानी आदि कि व्यवस्था कर दी गई। डाक्टर साहब के अतिरिक्त, समस्त अस्पताल कर्मियों के जंग पड़े हाथ पैरों में जैसे मोटर लग गये। सभी ‘स्वस्थ मरीज’ डाक्टर साहब की राह जोह रहे थे लेकिन डाक्टर साहब को अस्पताल के ऊपर स्थित अपने आवास से नीचे सीढ़ियों तक आने की फुर्सत नहीं। एक दो बार आये भी तो इतनी कृत्रिम व्यस्तता का चोला ओढ़कर कि मरीज की कुछ बोलने और पूछने से पहले ही उसकी हिम्मत टूट जाती।
दोपहर दो बजे के बाद कन्या पक्ष की तीन गाड़ी से लगभग पन्द्रह लोग अस्पताल में दाखिल..जो मरीज को देखते, गिनते तथा चीरते हुए आवास की सीढ़ियां चढ़कर ऊपर चलें गये। इधर डाक्टर साहब उनकी तीमारदारी में लग गये। कुल चार घंटे के बाद, खा-पीकर जब मेहमान विदा हुए। अब डाक्टर खाली होने के बाद अपने मरीजों से मुखातिब हुए। उन्होंने अपने समस्त मरीजों को चुटकी बजाकर कुल बीस मिनट में निपटाया और अपने मुहिम की सफलता पर सहज ही आनन्दित भाव में मगन दिखने लगे।
दरअसल डाक्टर साहब ने एक लक्ष्य बना रखा था कि विगत आठ महीने से जितने भी मरीज आयेंगे उन्हें एक ही तिथि पर जांच हेतु बुलायेंगे। जैसे किसी का पैर टूटा हो। वह प्लास्टर कटने के बाद वो पूरी तरह स्वस्थ महसूस कर रहा हो। उसे यह कह कर भी बुलाया गया कि कहीं पैर में सूजन तो नहीं न आ रही। जिसको खांसी की परेशानी थी उसके फेफड़े के परीक्षण हेतु बुलाया गया। किसी को उसका पुराना पर्चा और दवाओं के खाली शीशी के साथ बुलाया गया। जिसका इलाज और पूरा हिसाब हो गया उसे भी फोन करके बुलाया गया। जिसके मोतियाबिंद का आपरेशन हुए सात महीने गुजर गये उसका चश्मा पोंछने हेतु बुलाया गया। मतलब आठ महीने के अंतराल पर जो भी अस्पताल के गेट में घुसने की जुर्रत की उन सभी को एक ही दिन बुलाया, बिठाया और बेड पर सुलाया गया।
मित्रों! कुछ ऐसा ही हाल चुनावी रैलियों का होता है… इसमें कुछ आये होते हैं, बहुत विनती करके बुलाये होते हैं। कुछ समझा बुझाकर बिठाये होते हैं। कुछ धमका कर जबरन टिकाये होते हैं। कुछ नोटों से कुर्सियों पर चिपकायें होतें हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें कचहरी में वकील और जज से कोई लेना-देना नहीं होता वो सिर्फ अपनी अम्मा के कोरा में बैठकर आये होते हैं। कथा में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें सत्यनारायण बाबा की कथा सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं होती ऐसे लोग सिर्फ चरणामृत एवं प्रसाद पर नजर गड़ाए होते हैं।

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