Home लेखक और लेखसतीश चंद्र मिश्रा तौक़ीरवा कौन सी अफीम चाटता है, कौन सा गांजा फूंकता है…?

तौक़ीरवा कौन सी अफीम चाटता है, कौन सा गांजा फूंकता है…?

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तौक़ीरवा कौन सी अफीम चाटता है, कौन सा गांजा फूंकता है…?

 

बरेली का मज़हबी लफ़ंगा तौक़ीरवा कल से न्यूजचैनलों पर चमक रहा है, चिल्ला रहा है, धमका रहा है कि अगर हमारे मज़हब वाले सड़कों पर उतर गए तो फिर किसी के संभाले नहीं संभलेंगे. हिन्दूस्तान में महाभारत हो जाएगी।
तौक़ीरवे की यह धमकी सुनकर कुछ याद आ गया और हंसी आ गयी.😊
तौक़ीरवे को पहले इंटरनेशनल उदाहरणों से कुछ याद दिलाते हुए बात शुरू करता हूं। पोस्ट का अंत लोकल उदाहरणों के साथ ही करूंगा।
तौक़ीरवे के मज़हब वाले 1948 से पूरी फौज के साथ भारत के खिलाफ 5 बार सड़कों पर उतर चुके हैं। भारत ने पांचों बार उन्हें मार मारकर उनकी खाल में भूसा भरा, उनको मारते मारते उनका मूत निकाल दिया। उन्हें सूअंर बना के कुत्ते की मौत मारा।
1948 से ही तौक़ीरवे के मजहब वाले इस्राएल के खिलाफ सड़क पर उतर रहे हैं और 74 सालों से इस्राएली जूते खाने का वर्ल्ड रिकॉर्ड बना चुके हैं। इस्राएल के जूते खाने की उनकी जूताखोरी का सिलसिला 74 सालों से 100% एकतरफा ही चल रहा है। इस्राएल की जब इच्छा होती है तब उनको मार मारकर सूअंर बनाने के बाद कुत्ते की मौत मार देता है।
तौक़ीरवे के मजहब वाला इराक़ का सद्दाम हुसैन और लीबिया का कर्नल गद्दाफी जब अपनी अपनी फौज के साथ सड़कों पर उतरा तो अमेरिका ने दोनोँ को मारते मारते सूअंर बनाने के बाद कुत्ते की मौत मारा।
गोधरा के बाद देश के सबसे शांतिप्रिय अहिंसक समाज, गुजरातियों का माथा घूम गया था तो तौक़ीरवे के मज़हब वालों की हाय दइय्या… हाय दइय्या… आज 21 साल बाद तक सुनायी देती है।
1993 में तौक़ीरवे के मजहबी गुंडे जब मुंबई में सड़कों पर उतरे थे तब बाल ठाकरे का माथा घूम गया था और फिर जो हुआ था उसे पूरे देश ने देखा था. उस समय सरकार भी कांग्रेस की थी और पुलिस भी उसी कांग्रेसी सरकार की थी. लेकिन सड़कों पर उतरे मज़हबी गुंडों पर जूतों की वर्षा इतनी भयंकर हो रही थी कि उस समय के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सुधाकर नाइक ने साफ कह दिया था कि बम्बई की स्थिति हमारे वश में नहीं रह गई है. यहां शांति तब ही सम्भव होगी जब बाल ठाकरे चाहेंगे. मुख्यमंत्री की इस स्वीकारोक्ति के बाद सुनील दत्त और दिलीप कुमार समेत बम्बई की कई नामी गिरामी हस्तियां शांति की अपील लेकर बाल ठाकरे के पास पहुंची थीं. बाल ठाकरे ने टका सा जवाब दिया था कि जबतक ठीक से सबक नहीं सिखा दिया जाएगा तबतक शांति सम्भव नहीं है. इसके बाद जूतों की वह वर्षा 2-3 दिनों तक उतनी ही प्रचंडता से होती रही थी और बाल ठाकरे की इच्छापूर्ति के पश्चात ही रुकी थी. श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में यह सच्चाई बहुत विस्तार से दर्ज हुई है. तौक़ीरवे को याद दिला दूं कि 1993 में बालठाकरे खुद सड़क पर नहीं उतरे थे। उनके आह्वान पर उन मज़हबी गुंडों के खिलाफ वही लोग सड़कों पर उतरे थे जिनको अपनी गीदड़ भभकियों से डराने की कोशिश तौक़ीरवा पता नहीं कौन सी अफीम चाट कर, कौन सा गांजा फूंककर कर रहा है…?
तौक़ीरवे और उस जैसे कठमुल्लों को याद करा दूं कि अनलिमिटेड जूताखोरी के ऐसे उदाहरणों सूची बहुत लंबी है। अतः अंत में बस इतना ही कहूंगा गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं।

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