Home लेखकआनंद कुमार दरवाजे पर हुई आहट पर ही परिवार सहम गया था।

दरवाजे पर हुई आहट पर ही परिवार सहम गया था।

by आनंद कुमार
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दरवाजे पर हुई आहट पर ही परिवार सहम गया था। दरवाजे पर पड़ी दस्तक के साथ ही उसका उठा हुआ कौर बीच में ही रुक गया। पत्नी ने सहम कर पति की तरफ देखा। करीब दस-ग्यारह वर्ष का बेटा भी अब टिंडे न खाने की जिद भूल चुका था और आठ-नौ साल की लड़की तो पहले ही हाथ बांधे परोसी हुई थाली के सामने बैठी थी। एक-एक करके अपनी माँ और पिता की तरफ देखते बच्चों पर ध्यान दिए बिना पत्नी ने पूछा, इस वक्त कौन हो सकता है? मैं देखता हूँ, कहते हुए करीब पैंतीस-चालीस वर्ष का वो व्यक्ति, थाली में रोटी का टुकड़ा वापस रखते हुए उठा, और दरवाजे की तरफ चल दिया।
एक बेडरूम का फ्लैट कोई ज्यादा बड़ा नहीं था कि दरवाजे तक पहुँचते देर लगती, लेकिन तबतक बाहर खड़े लोग बेचैन हो चुके थे। किसी ने दरवाजे को डंडे से जोर से खटखटाया। दरवाजे की कुंडी तक उठा उस व्यक्ति का हाथ कांपकर रुक गया। गुप्तचर पुलिस के विशेष विभाग “गुप्तचर अनाचाररोधी गुट” (उर्फ़ “GuptAnG” का खौफ ही कुछ ऐसा था। दरवाजा खोलते ही सामने दुबले पतले से दो लोग हरे पठान कुर्ते सामने थे। घुटने से नीचे तक जाता ख़ास हरे रंग का कुर्ता, टखनों से थोड़ा ऊपर, छोटा सफ़ेद पायजामा, बढ़ी हुई दाढ़ी, सफाचट मूछें और सर पर टोपी; हुलिया ही बताता था कि वो “GuptAnG” के सिपाही हैं। कंधे पर टंगी स्वचालित राइफल और मुख-मुद्रा ने रहा सहा शक भी दूर कर दिया।
पीछे थोड़ी दूरी पर खड़ा “गुप्तांग” का सरदार अपनी तुर्की टोपी से पहचान में आ रहा था। जमीन को अपने नोकदार जूते से कुरेदता, वो हाथ पीछे बांधे गौर से जमीन पर कुछ देख रहा था। वो अचानक मुड़ा और दरवाजे के पास आकर बोला, नाम क्या है मियां? अभय, थूक गटक कर करीब-करीब हकलाते हुए व्यक्ति ने जवाब दिया, मगर उसके जवाब के पूरे होने का इन्तजार किये बिना ही “गुप्तांग” का सरदार उसे धकेलते हुए कमरे के अन्दर दाखिल हो चुका था। घर में बुलाने का शुक्रिया भाभी जान! उसने बत्तीसी निकालते हुए कहा। अबतक वो स्त्री उठाकर खड़ी हो चुकी थी और सहमे हुए बच्चे उसके पास ही थे। लड़की की तरफ देखकर वो बोला, अरे इतनी बड़ी हो गयी! अभी तक ब्याह नहीं हुआ तुम्हारा?
हुजुर काफिरों में शादी की उम्र अट्ठारह पर तय की गयी है, पीछे से कोई सिपाही फुसफुसाता हुआ बोला। पता है-पता है, सरदार ने कहा, मैं तो फ़िल्मी डायलॉग सुना रहा था। अपराधियों पर बनी एक फिल्म का डायलॉग है ये मियां, शायद तुमने देखी हो? उसने मुड़कर अभय से पूछा। जी नहीं जनाब, अभय ने कहा। उसने फिल्म देखी तो थी मगर वो जानता था कि “गुप्तांग” के लोग फिल्मों, गीत-संगीत वगैरह को अच्छा नहीं मानते। उसने छोटा सा झूठ बोल देना ही ठीक समझा। हम्म… अभय की बातों पर कोई यकीन किये बिना, घर में इधर उधर देखते सरदार ने अपनी तुर्की टोपी से निकले धागों के गुच्छे को पीछे किया। एक दो बार तेज साँसे लेकर वो कुत्तों की तरह कुछ सूंघने की कोशिश कर चुका था।
अभय और उसकी पत्नी जानते थे कि ये लोग घर में पटाखे होने के शक में तलाशी ले रहे हैं। ये 2020 का दौर वैसा नहीं था जैसा कभी अभय या उसकी पत्नी ने वैज्ञानिक कलाम की किताबों में अपने स्कूल के दौर में पढ़ा था। “गुप्तांग” के लोग देश के दूसरे दर्जे के नागरिकों (जो एक ख़ास धर्म के थे) के घरों में घुसकर तलाशियां लिया करते थे। पर्यावरण, नारीवाद, बच्चों के दूध, साफ़ पानी, महिला सुरक्षा जैसी सभी जरूरी चीज़ों को हिन्दुओं, यानी दूसरे दर्जे के नागरिकों के त्योहारों से दिक्कत हो ही जाती थी। सरकार ने लगातार कानूनों में बदलाव किये थे और अब “गुप्तांग” के लोग दीपावली से पहले सभी संदिग्ध हिन्दुओं के घरों में घुसकर तलाशी ले रहे थे। ऐसी तलाशियों और अगर कुछ आपत्तिजनक पटाखे या ज्वलनशील पाए जाएँ तो गिरफ़्तारी के लिए वारंट की जरूरत हटा दी गयी थी।
कोई गंध न मिलने पर सरदार ने हाथों को मलते हुए अपनी तुर्की टोपी की फुनगी पीछे की तरफ झटकी। मालूम पड़ता है आप लोग जाहिलों की तरह शोर से कुत्तों को नहीं डराते। उसने कहा और फिर से दांत निकालते हुए घर में मौजूद औरत और फिर उसकी करीब नौ वर्ष की लड़की को ओर देखा। बच्ची नौ ही साल की थी, मगर पता नहीं क्यों, उसे नजर अपने बदन पर कीड़ों के रेंगने जैसी महसूस हो रही थी। वो अपनी माँ की साड़ी के पास सिमट आई। चलो चलते हैं, कहकर इन्तजार किये बिना ही सरदार बाहर निकला, और उसके पीछे-पीछे पटाखों की तलाश करते उसके कारकून भी निकल चले।
दरवाजा बंद करते अभय और उसकी पत्नी ने चैन की सांस ली। अब गिरफ़्तारी का भय नहीं था। अपने बचपन में दीपावली पर छुट्टी होना, फुलझड़ियाँ और पटाखे जलाना, या दीयों और रौशनी की झालर के बारे में उन दोनों ने बच्चों को बताने की कोई जरूरत नहीं समझी थी। वो इतिहास की बातें थीं। आखिर उनसे फर्क भी कौन सा पड़ना था? मिलावट और महंगाई के दौर में वो मिठाइयाँ भी नहीं लाये थे। सब चुपचाप वापस खाने बैठ गए। थालियों में टिंडे के साथ रखी रोटियां सूखने जो लगी थी!

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