Home राजनीति दो_कदम_आगे_एक_कदम_पीछे
व्यक्ति, संगठन, समाज व धर्म को सदैव आगे बढ़ने के लिए इतिहास से सबक लेना चाहिये।
1885
1857 के बाद जहां भारतीय निराश थे वहीं अंग्रेज आशंकित थे। आखिर वे मात्र एक लाख दस हजार ही तो थे।
इसलिये कुकर की सीटी के रूप में बनाई कांग्रेस जिसे भारतीयों के हितों के पक्ष में हाईजैक कर लिया ‘लाल बाल पाल’ ने।
गांधी भले गोखले को गुरु मानते थे पर एजेंडा लागू किया तिलक का।
समय का पहिया कभी पीछे नहीं मुड़ता।
साल में एक बार प्रतिवेदन देने वाली कांग्रेस आंदोलनकारी बन चुकी थी और अब उसे जाना था भगतसिंह की दिशा में लेकिन गांधी ने समय के पहिये को रोका ही नहीं उल्टी दिशा में ले जाने की कोशिश की।
भारत की आजादी या तो हमारे ताकतवर होने से मिल सकती थी या अंग्रेजों के कमजोर होने से।
ऐसा हुआ भी लेकिन अपने नेतृत्व को बनाये रखने की लालसा में समयचक्र को रोकने की जो कोशिश गांधी ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भारत भूमि विभाजित भी हुई और अपार हिंसा भी।
जले पर नमक यह कि उन मु स्लिमों से छुटकारा तब भी नहीं मिला जिन्होंने पाकिस्तान बनाने के लिए सौ प्रतिशत वोट किया।
तो क्या होता अगर गांधी अपने असहयोग आंदोलन या सविनय अवज्ञा आंदोलन को जारी रहने देते?
निश्चित रूप से सरकार आंदोलन को कुचल देती और तब प्रतिक्रिया के भीषण आक्रोश में हर गली में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद व नेताजी पैदा होते और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़कर आजादी लेते।
लेकिन गांधी को अनियंत्रित राष्ट्रवाद नहीं चाहिए था क्योंकि उसमें उनके नेतृत्व के लिए कोई जगह नहीं होती।
दुर्भाग्य से संघ के सन्दर्भ में भी यही होता प्रतीत हो रहा है।
जिस हिंदू जागरण का स्वप्न पूज्य डॉक्टर हेडगेवार और पूज्य गुरूजी ने देखा था वह फलित होता दिख रहा है तो संघ नेतृत्व को इससे डर लगने लगा है।
यह प्रवृत्ति कई बार परिलक्षित हुई है, चाहे वह गोविंदाचार्य प्रकरण हो या आये दिन पूज्य भागवत जी के दुविधा उत्पन्न करने वाले वक्तव्य।
स्पष्ट दिख रहा है कि उन्हें उग्र हिंदू जागरण से डर लग रहा है कि कहीं कोई स्वतःस्फूर्त उग्र व्यक्तित्व पूरे हिंदू जागरण का नेतृत्व उनसे छीन न ले।
गौर तलब है कि भाजपा के दो सबसे लोकप्रिय चेहरे योगी आदित्यनाथ जी व हेमंत बिस्वा सरमा संघ की पृष्ठभूमि से नहीं हैं।
सावरकर जैसे अद्वितीय हिंदू विचारक का भी मतभेद संघ से इसी विषय पर था।
हिंदुत्व को एक बार पूर्णतः सैन्यीकृत होकर रक्त की नदी से गुजरना ही होगा और नदी में अगर नाव खेने का साहस न हो तो उसे खेवैया के स्थान से हट जाना चाहिए।
इसमें 20% या केवल 30%, हिंदू ही जागे हैं …वगैरह वगैरह, की बातें निरर्थक बौद्धिक कसरत है क्योंकि हिंदुत्व के उदय से आज तक हिंदू 30% भी एकजुट नहीं हुए।
आंकड़ों के अनुसार सिर्फ 5% भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से भाग लिया था।
संघ नेतृत्व एकदम वही कर रहा है जो गांधी ने किया जिसका परिणाम हिंदुओं को भुगतना पड़ा- ‘दो कदम आगे, एक कदम पीछे’
हालांकि स्वयं मोदी ऐसा कभी नहीं करने वाले लेकिन आज अगर मोदी जी उग्रता दिखाते हुए संविधानोत्तर शक्तियां प्रयोग करें तो मैं पूरे दावे से कहता हूँ भागवत जी अगले दिन मोदीजी के खिलाफ ताल ठोंककर खड़े ही जायेंगे।
यह इतिहास और विधि की विडंबना यह है कि संघ नेतृत्व जो उस समय गोपाल पाठा की भूमिका में था आज स्वयं गांधी की भूमिका में आ चुका है।
शेष नियति ने जो निर्धारित किया है वह तो होकर ही रहेगा।

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