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द कश्मीर फाइल्स

by Ashish Kumar Anshu
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*द कश्मीर फाइल्स”, कश्मीरी पंडितों पर हुए भयावह अत्याचार पर बनी एक साहसी फिल्म है*
साहसी इसलिए क्योंकि बॉलीवुड का रवैया रहा है फर्ज़ी बातें दिखाने का। फर्ज़ी का बैलेंस बनाने का। इन्हें लगता है कि रात को रात कहने पर सुबह बुरा मान जाएगी। पहले एक शिकारा फिल्म आई थी और एक कश्मीरी महिला ने फिल्म देखने के बाद रो रोकर विधु विनोद चोपड़ा को कोसा था कि कश्मीरी पंडितों का ऐसा मज़ाक बनाने से अच्छा था कुछ ना बनाते। हर वक्त सबको खुश‌ रखने की चाहत का कीड़ा ऐसे ही कुलबुलाता है और हकीकत बहुत पीछे छूट जाती है।
रो तो आज भी रहें हैं लोग द कश्मीरी फाइल्स को देखने के बाद लेकिन आज वजह कुछ और है। आज एक महिला ने फूट फूटकर रोते हुए विवेक रंजन के पैर छू लिए कि आखिरकार किसी ने तो हिम्मत दिखाई।
विवेक रंजन अग्निहोत्री ने बहुत ही हिम्मत दिखाई है।
खैर, इस फिल्म का ट्रेलर देखकर मैं पता नहीं कब तक रोती रही, इसलिए नहीं कि मैं एक पंडित हूँ बल्कि इसलिए कि ये काला अध्याय मानवीय सभ्यता का हिस्सा है जिसे अंजाम देने में पूरी कोशिश रही और भुला देने में उससे भी ज़्यादा कोशिश की गई।
मुझे एक्स्ट्रा कूल‌ बनने का कोई कीड़ा नहीं कि फेमिनिस्ट भी बनूँ किंतु महिलाओं पर हुए अत्याचारों और बलात्कार पर सिर्फ इसलिए चुप रहूँ कि वो मेरे एजेंडा में फिट नहीं बैठता जैसे कि लड़की हूँ लड़ सकती हूँ कि रेंज सिर्फ यूपी तक है जबकि रेप में नम्बर वन‌ राजस्थान के रास्ते “मैम” के गूगल मैप से गायब हैं।
कल ये फिल्म देखने के बाद मैं इस पर विस्तार से लिखूँगी।
मैंने देखा कि पता नहीं कितने बरसों बाद ऐसी फिल्म आई है जिसे लोगों ने नीचे बैठकर भी देख लिया। मेरे तमाम मिलने वालों ने ये फिल्म देखी और रोते रहे चाहे वो पंडित थे, चाहे नहीं और उनके टिकट किसी और ने स्पॉन्सर किए। गज़ब।
इस फिल्म को रिलीज होने से रोकने के लिए याचिका दायर की गई ये कहकर कि ये सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है। क्या ही मज़ाक है कि हिंसा और अत्याचार की सारी हदें पार कर देने की असली भयावह कहानी को‌ लोगों तक पहुँचाना सांप्रदायिकता है और उसको अमलीजामा पहनाने वाले कौन हैं! शांति और अहिंसा के प्रतिनिधि! हाहाहाहाहा!
खैर सेंसर ने कैंची चलाकर सात आठ सीन हटाए दिए हैं क्योंकि सेंसर पर अलग प्रेशर होता है भई। समझा कीजिए, इतना सच थोड़ी बोलना होता है।
सबसे बड़ी धूर्तता है एक्स्ट्रा कूल बनने और सबको खुश रखने की बजबजाती चाहत के चक्कर में खुद की पहचान पर ठोकर मारना और फिर ना घर का रहना ना घाट का और चुप रहना कि फलां ऑफेंड हो गया तो!
विवेक रंजन आपके साहस को सलाम फिलहाल तो। बाकी बात कल।
मैंने मेरे दोस्त से पूछा कि फिल्म कैसी थी! वो कुछ नहीं बोल‌ पाया सिवाए इसके कि, “यार! किस गुमान में जीते हैं लोग! हकीकत तो ये है जो मैं देखकर आया हूँ। क्यों छिपाया जाता है ये सब! कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हूँ।”
ऐसे संवेदनशील और मार्मिक विषय (जो कि एकदम सच है) पर फिल्म बनाना साहस का काम है जब तक कि बैलेंसवादी होने का कीड़ा ना काटता हो। कुछ कमियाँ होंगी किंतु स्वागत कीजिए ऐसी फिल्मों का। ये ज़रूरी है।
ये नफरत नहीं फैलाती, नफरत फैला चुके आतंकियों की हकीकत पेश करती है।
बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहने वाले तो पहले से मरे हुए हैं, इनसे क्या ही कहना!”
भारती गौड़।

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