#द_मेवाड़_फाइल्स

अकबर की धूर्त नीति ने हिंदुओं के अभेद्य किले राजपूताना में भी दरारें डाल दीं।
महाराणा विवश क्रोध में अपनी मूँछें चबा रहे थे और स्पष्ट देख रहे थे कि बलपूर्वक या लोभ में एक बार अगर राजपूत राजाओं के विवाह सम्बंध आक्रांता मुगलों से होने लगे तो मुगलिया सत्ता के प्रति प्रतिरोध खत्म हो जाएगा।
अपने कष्ट व बलिदानों से महाराणा ने राजपूत राजाओं के ह्रदय में हलचल मचा दी।
गोस्वामी तुलसीदास राजाओं व भीलों को महाराणा के पक्ष में लड़ने के लिये उत्साहित कर रहे थे।
‘मारवाड़ के शेर’ और दूसरे प्रताप कहे जाने वाले राव चंद्रसेन के कदम महाराणा की ओर स्वतः खिंचने लगे।
मानसिंह ने महाराणा के विरुद्ध अगले अभियान के लिए मना कर दिया।
घबराए अकबर ने मानसिंह को पंजाब भेज दिया।
राव चंद्रसेन के नीच व धूर्त भाई मोटा राजा उदय सिंह को मिलाकर षड्यंत्रपूर्वक राव चंद्रसेन की हत्या करवा दी और इस कुलकलंक ने भी अपनी बेटी का डोला मुगलों को भेज राठौरों के यशस्वी इतिहास पर कलंक लगा दिया।
महाराणा अपने संघर्षों के साथ अकेले रह गए।
चित्तौड़ छोड़ पूरा मेवाड़ मुगलों से छीन लिया लेकिन ह्रदय की आग अभी भी धधक रही थी।
राजपूतों के एकीकरण व भगवा ध्वज को दिल्ली पर लहराने का स्वप्न लिये महाराणा चल बसे।
उनकी आशंका सत्य साबित हुई।
राजपूतों की तलवारें अब मुगलों की ताबेदार बन चुकी थीं।
मुगलिया सल्तनत का रौब हिंदुओं के दिलों पर बैठ चुका था।
केवल एक काँटा शेष था।
मेवाड़!
भले ही महाराणा ने भविष्य देख लिया हो लेकिन अमरसिंह ने राणा बनकर उनके वचन को निभाया।
संघर्ष जारी रहा।
नशेड़ी जहांगीर, नया मुगलिया पादशाह।
उसने अपने बाप अकबर के अधूरे काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया।
कई अभियान किये लेकिन हर बार आखिरी मुगल सैनिक तक कटवाकर सिपहसालार लौट आते।
तब उसने भेजा अपने बेटे खुर्रम को।
खुर्रम! एक व्यभिचारी कसाई!
इस धूर्त कुटिल शहजादे ने राठौरों व कछवाहा राजपूतों को इस अभियान से अलग कर केवल बाहरी संपर्क के रास्तों पर तैनात किया क्योंकि उसे शक था कि राजपूत सेनापति अंदरूनी तौर पर महाराणा प्रताप के सम्मान में मेवाड़ की मदद करते हैं और उसका अंदाजा गलत भी नहीं था।
इसके बाद उसने एक ऐसा आदेश जारी किया जो भारत के इतिहास में बर्बर से बर्बर आक्रांता ने नहीं किया था।
“बच्चा, जवान, बूढ़ा, मर्द, औरत जो भी दिखाई दे उसे कत्ल कर दिया जाये। हवेलियों से लेकर झोंपड़ी तक जलाकर राख कर दी जाए। एक एक मवेशी और अनाज का एक एक दाना जब्त कर लिया जाये।”
घेरा तंग करती हुई पिशाचों की यह सेना लगातार आगे बढ़ रही थी।
राजपूत, भील योद्धा मुगलों की भयंकर क्षति भी कर रहे थे लेकिन बीस लाख की संख्या वाली एशिया की सबसे बड़ी सेना पर उसका क्या असर? मृत मुगल सैनिकों का स्थान लेने के लिये आगरे व अजमेर से और सैनिक आ जाते थे।
प्रतिदिन निरीह निःशस्त्र हिंदुओं का शिकार किया जाता और रात में मुगल पिशाच उन कटे सिरों को गिनाकर इ स्लाम की सेवा की डींगें हांकते।
स्त्रियां यूँ तो पहले ही प्राण दे देती थीं लेकिन अगर कोई अभागी चंगुल में फंस जाती तो रात भर वहशियों के बलात्कारों के बाद सुबह उसे चीर देना इन पिशाचों का रोज का शगल बन गया था।
हिटलर से बहुत पहले मेवाड़ ने औसविज कैम्पों का ये नजारा देखा था।
बस हिटलर की जगह इस कसाई का नाम था खुर्रम।
लेकिन राणा अमर सिंह अपने पिता को दिये वचन से पीछे हटने को तैयार नहीं थे।
घेरा कसता जा रहा था।
मेवाड़ का होलोकॉस्ट हो रहा था।
लगातार साकों के कारण जनसंख्या और विशेषतः राजपूत योद्धाओं की संख्या नाम मात्र की रह गई थी। सिसोदियों का तो नामशेष रह जाने वाला था।
खून पानी की तरह बह रहा था।
मेवाड़ पर गिद्ध और चील स्थायी रूप से मंडराते रहते थे।
हर मेवाड़ी की आंखों में आंसू और गोद में किसी अपने की लाश होती थी।
जिसको अग्निसंस्कार मिल जाता था वह भाग्यशाली था वरना लाशों को दिन में गिद्ध और रात में गीदड़ भँभोड़ते थे।
बच्चों व माताओं को गहरे जंगलों में भेज दिया गया ताकि प्रतिरोध के लिए अगली पीढ़ी तैयार हो सके।
कोई भी पड़ोसी शासक इस जेनोसाइड के विरुद्ध आवाज बुलंद न कर सका।
महाराणा की आन पर प्रजा के आँसू भारी पड़े।
खून का घूंट भरकर, प्रतिरोध के लिए समय की खातिर राणा अमरसिंह ने संधि पर हस्ताक्षर कर दिए और प्रायश्चित्त स्वरूप गद्दी छोड़कर नौचौकी पर अपने प्राण त्यागने चले गए।
लेकिन सिसोदियों का बहाया गया खून बेकार नहीं गया।
एक पीढ़ी बाद ही सुदूर दक्षिण में सिसौदियों की एक शाखा और मेवाड़ की मूल शाखा में दो शेर जन्मे जिन्होंने इन होलोकॉस्ट का हिसाब ब्याज सहित लिया।

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