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बात इतनी आसान नहीं है।

by Swami Vyalok
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बात इतनी आसान नहीं है।
बात हिजाब, बुर्का, परदा, हलाला, बहु-पत्नीत्व आदि कुप्रथाओं की है ही नहीं। बात बस इतनी सी है कि हमने गंदगी को लगातार कालीन के नीचे बुहारा है, भयानक घाव को गैंगरीन होने दिया है और अब भी उसका ऑपरेशन करने की जगह हम उस घाव पर खूब फूलदार, रंगीन पट्‌टी लगा दे रहे हैं, अंदर से मवाद रिस रहा है, हम धूप और लोबान जला रहे हैं।
समस्या मुसलमानों की है ही नहीं, इस्लाम की है। इस पर कोई बात तक करने को तैयार नहीं है। बात होती है, तो मुकदमे होते हैं, गिरफ्तारियां होती हैं और एक स्कूल से शुरू हुई बात को अंतरराष्ट्रीय बना दिया जाता है, सरमाएदार यूं पेश आते हैं मानो मुसलमानों को देश में बुर्का पहनने से मना किया जा रहा है। यह बातें मैं बारहां दोहराता रहा हूं।
एक पॉलिटिकल थॉट को मजहब का नाम देकर खूंरेजी और अत्याचारों के जरिए पूरी दुनिया में फैलाया गया। कबीलाई संस्कृति (अगर कोई होती हो) को एक ऐसा मानक बना दिया गया, जिस पर सभ्य समाज में चर्चा तक नहीं होगी। यही समस्या की जड़ है। भारत में तो इस समस्या को पेचीदा बनाने में न जाने कितनी नस्लों और लोगों का हाथ है। गनही महतमा ने तुर्की में खिलाफत का साथ क्या सोचकर दिया, ये वे ही जानें लेकिन सबका साथ, सबका विकास वे नहीं हासिल कर सके। नए वाले गनही बाबा भी नहीं कर पाएंगे। आप खिलाफत में कंधा लगाइए, वे मोपला करेंगे। आप गंगा-जमनी कीजिए, वे 1947 करेंगे।
इस्लाम हारे हुए लोगों का मजहब है। वह जहां कहीं भी हों। इसलिए, विजित लोग ज्यादा प्याज खाते हैं, ताकि विजेताओं के बराबर दिखें। यह दीगर बात है कि विजेता इनको तीसरे दर्जे का ही मानते हैं। इसीलिए, सऊदी के शेख या वहां के नागरिक हों, वे भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों को ‘असल’ मानते तक नहीं, इनके लिए एक डेरोगेटरी शब्द का भी इस्तेमाल करते हैं, एकसमान दुनिया बनाने की वकालत और दावा करनेवाला इस्लाम अपने जुलाहों, धुनियों, कलवारों, कसाइयों (यानी, पसमांदों) के साथ क्या सलूक करता है, यह भी देखने की बात है, लेकिन तथ्य और तर्क मायने रखें तब तो।
चुनाव के दौरान आपने अक्सर देखा होगा कि हमारे महान पत्रकार जब वोटों का बांट-बखरा करते हैं, तो मुस्लिम, ब्राह्मण, एससी-एसटी, ओबीसी जैसा तफरका करते हैं और फिर ओबीसी में 150 जातियां और एससी-एसटी में 350 जातियों की हमें जानकारी दी जाती है। यह कभी नहीं बताया जाता कि भारतीय उपमहाद्वीप का मुसलमान (कम से कम) तो दर्जनों फिरकों और डेढ़ हजार जातियों में बंटा ही हुआ है।
खैर, बात कहीं की कहीं और निकल गयी। लब्बोलुआब बस इतना है कि पृथ्वीराज चौहान से लेकर मराठों और गनही महत्मा से लेकर आज के गनही मोदीजीवा ने एक ही गलती की है–इस्लाम को कभी समस्या नहीं माना, उसे प्रॉब्लम के तौर पर एड्रेस ही नहीं किया। धूल चेहरे पर है, लोग आईना साफ कर रहे हैं। योगी और हेमंत बिस्व शर्मा जैसे मेनस्ट्रीम में ईंट को ईंट बोल रहे हैं, पत्थर को पत्थर, उससे एक उम्मीद तो है कि जल्द ही लोग इस समस्या पर भी चर्चा करने लगेंगे।

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