Home लेखकBhagwan Singh पुराणों का सच भाग -1

पुराणों का सच भाग -1

Bhagwan Singh

by Bhagwan Singh
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“मनु के पुत्र नाभाक के वंशज रथीतर क्षत्रिय थे। उनका पुत्र जन्मना क्षत्रिय था, पर वह आंगिरस बन गया, इसलिए उनकी गणना आंगिरसों में होती है। राजा भरत ने आंगिरस ऋषि भरद्वाज को अपना दत्तक पुत्र बना लिया जिससे वितथ पैदा हुए और उनसे पौरव वंश परंपरा चली । परिणाम यह कि भरत गण अपने क्षत्रियत्व या ब्राह्मणत्व या दोनों का दावा करते थे।”
इस अंश को पार्जिटर ने एक ऐतिहासिक पाठ के रूप में तैयार किया है, पर यह किसी विक्षिप्त के प्रलाप जैसा लगता है। प्रलाप के भी कुछ अकाट्य सच होते हैं। विक्षिप्त व्यक्ति अपने एकांत में जो कुछ बड़बड़ाता रहता है, उसे ध्यान से सुनें तो पाएंगे कि उनमें सच्चाई तो है परंतु वह इसे सही क्रम और सही अनुपात में रख नहीं पा रहा है। वह जिस मनोदशा में बक रहा है उसमें मिलावट नहीं हो सकती, इसलिए उसका सार सत्य पूरी सावधानी से तैयार किए गए बयान से अधिक विश्वसनीय है। ये उसके अनुभवों, आकांक्षाओं से जुड़े तथ्य हैं, पर अपने संदर्भ से कटे हैं, इसलिए बे-सिर-पैर के (incoherent) लगते हैं। स्मृतियां अंतर्विरोधी होने के कारण, उसके भीतर भी बेचैनी पैदा करती हैं और यह बड़बड़ाहट उसी की अभिव्यक्ति हैं। इस तरह बकवास में दो सच्चाइयां सामने आरही हैं। एक उसके वर्तमान मनोभग्नता का और दूसरा उसके विच्छिन्न अतीत का जिसके अंश गड्डमड्ड हो गए हैं।
व्यर्थ कुछ नहीं होता, अनर्गलता तक नहीं। बुरा कारीगर औजार को कोसता है और बुरा इतिहासकार सूचना के स्रोतों की अपर्याप्तता या अपवित्रता (मिलावट) को। चिकित्सक, विशेषतः मनोवैज्ञानिक किसी को नहीं कोसता। वह समस्या का सामना करता है।
हमें पौराणिक स्रोतों से सुलभ अव्यवस्थित और बेतुकी सूचनाओं का उपयोग एक मनोविश्लेषक की समझ से करना चाहिए। तभी इनका सार्थक उपयोग किया जा सकता है और इनको उतना ही विश्वसनीय बनाया जा सकता है, जितना पुरातत्व।
पुराणों के रचनाकारों द्वारा अतीत की खंडित और असंबद्ध सूचनाओं को विश्वसनीय बनाने के लिए या अपनी इच्छापूर्ति के लिए, कुछ तालमेल बैठाते हुए एक बोधगम्य पाठ तैयार किया गया है, जो पुराणों के लेखकों और कथावाचकों को संतुष्ट कर सकता था; क्योंकि इससे उनकी जरूरतें पूरी होती थीं, पर हमारी जिज्ञासा शांत नहीं कर सकता। यही स्थिति उन व्याख्याकारों की होती है जो पौराणिक परिधि में ही खींचतान कर संगति पैदा करने का प्रयत्न करते हैं जब कि महाकाल की झंझा से इसके खंड दूर दूर तक विखर चुके हैं और उनको दूसरे अनुशासनों में भी पाया जा सकता है।
अब हम उद्धृत अंश पर विचार करें तो इसका कोई कथन सही नहीं है, पर कोई निरर्थक नहीं है। मनु राजा नहीं हो सकते, क्योंकि वह जिस अवस्था के प्रतिनिधि हैं वह समाज बनने की प्रक्रिया में है, पर बन नहीं पाया है। कुल या परिवार की अवस्था में अवश्य है, जिसकी तुलना कम्यून से की जा सकती है। मनु उस अवस्था के प्रतीक है, जिसमें साध्यदेवों में से कुछ ने स्वयं अपने प्रयत्न से अन्न उत्पादन आरंभ किया, न कि किसी एक व्यक्ति का। इस सूझ और संकल्प को बहुत विवेकपूर्ण माना गया, इसलिए इस प्रतीकपुरुष को मनस्वी या बुद्धिमान – मनु संज्ञा दी गई। मनु नवचेतना का नाम है, यह तथ्य मन्वतरों और प्रत्येक मन्वंतर में एक विशेष मनु की कल्पना से भी सिद्ध है। इस मनस्विता के कारण ही दक्ष पितर/दक्ष प्रजापति/दक्ष सावर्णि मनु आदि संज्ञाएं अस्तित्वईं। प्रजापति – प्रजा का पालन करने वाला, आहार की समस्या से अर्थात् कृषि से संबंधित अवधारणा है, इसलिए संवत्सर भी प्रजापति, ऋतुएं भी प्रजापति, क्योंकि खेती के लिए सही ऋतुकाल व वर्षगणना जरूरी थी।
यही स्थिति दूसरे नामों की है। पृथु (वैन्य) या पृथी भूविस्तार के चरण के प्रतीक हैं या पृथक् जीविका की तलाश करने वालों के। यदि यह वेन के पुत्र हैं तो वेन के व्यक्तित्व को जिस रूप में दिखाया गया है वह मानसिक दारिद्र्य को प्रकट करता है। उस समय तक न तो राज सत्ता स्थापित हुई थी, न ही किसी की भुजाओं को मथ कर कोई संतान पैदा की जा सकती है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक सच्चाई है वह यह कि वेन और पृथु उत्पादन के लिए दो चरणों को प्रतीकबद्ध करते हैं। वेन का अर्थ है (कामना करने वाला) और यह संभवतः झूम खेती के चरण को प्रकट करता है जबकि पृथु उसके बाद के, उससे पृथक या व्यापक कृषि कर्म का प्रतिनिधित्व करता है। दोनों के बीच अपत्यार्थक प्रयोग और इसके बाद भी वेन्य द्वारा ब्राह्मणों के अपमान का बीज सत्य यह है जो किन रूपों में ढलने के बाद उसे चरण तक बचा रहा जब ब्राह्मणों को अपनी जातीय महिमा की रक्षा के लिए इसका उपयोग कर लिया गया।
संक्षेप में कहें तो पुराणों में नाम, संख्या, वंश, काल, आयु आदि काल्पनिक को प्रामाणिक और विलक्षण बनाने के प्रयत्न के कारण अधिक अविश्वसनीय है। वंशावलियों के आधार पर काल का निर्णय भरोसे का नहीं हे यहां तक कि वंशावलियां तक गलत हैं। इस मामले में पार्जिटर से भी कम गलतियां नहीं हुई। पार्जिटर वंशावलियों पर लगभग आंखें मूंदकर भरोसा करते हैं और यह तक नहीं देखते कि इनके अलग अलग स्रोतों से कितने भिन्न पाठ मिलते हैं।
अभी वर्ण व्यवस्था भी स्थापित नहीं हुई है, इसलिए वह किसी वर्ण के नहीं हो सकते। उनके पुत्र नाभाक नहीं क्षत्रिय नहीं हो सकते। वर्णविभाजन उसी समाज का हुआ था इसलिए उन्हें सभी वर्णों का प्रतिनिधि माना जा सकता है। मनु कृषि के अग्रदूत (वैश्य), पहले विधि-विधाता(ब्राह्मण) और पहले राजा (क्षत्रिय) एक साथ हैंं।
नाभाक एक वैदिक ऋषि हैं, काण्व वंशीय हैं और काण्व पौराणिक विवरणों के अनुसार ही आंगिरस है। इनके सूक्त [1] में प्रतिभा का असाधारण उत्कर्ष दिखाई देता है और बहुत से दावे अलौकिक हैं। संभवतः इसी के आधार पर मनु के पुत्र मान लिए गए हैं।
उपलब्ध पुराणों और महाकाव्यों के रचनाकारों ने ऋग्वेद का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया था और उसका अपनी रचनाओं में उपयोग किया था। उनका श्रम उनका श्रम तो दिखाई देता है, पर वेदों की समझ नहीं दिखाई देती। मनुस्मृतिकार ने यह सुझाया था कि वेदों की व्याख्या इतिहास और पुराणों की सहायता से ही की जा सकती है। यह किसी ने नहीं समझाया कि पुराणों को समझना भी वेद की सहायता के बिना संभव नहीं है, क्योंकि वेद में जौ संकेत है वे स्पष्ट हैं जब कि पुराणों में स्वप्नतंत्र काम करता है। कल्पना को खुली छूट दी जाती है, परंतु तर्क को स्थान नहीं दिया जाता।
नाभाक को उनकी प्रचारित महिमा के अनुरूप मनु का पुत्र बना दिया गया। पर वह तो काण्व हैं, काण्व आंगिरस हैं[2], यदि आंगिरस होना ब्राह्मण होना है तो नाभाक क्षत्रिय नहीं हो सकते। उनके वंशधर रथीतर को भी क्षत्रिय कहना ठीक नहीं। उसका पुत्र जिसका नाम नहीं दिया गया है, आंगिरस हो गया यह बेतुका है, वह तो पहले से आंगिरस या काण्व था।
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[1] तं ऊ षु समना गिरा पितृणां च मन्मभिः ।
नाभाकस्य प्रशस्तिभिः यः सिन्धूनां उपोदये सप्तस्वसा स मध्यमो नभन्तां अन्यके समे ।।
स क्षपः परि षस्वजे नि उस्रो मायया दधे स विश्वं परि दर्शतः ।
तस्य वेनीरनु व्रतं उषः तिस्रो अवर्धयन् नभन्तामन्यके समे ।।
यः ककुभो निधारयः पृथिव्यामधि दर्शतः ।
स माता पूर्व्यं पदं तद् वरुणस्य सप्त्यं स हि गोपा इवेर्याे नभन्तामन्यके समे ।।
यो धर्ता भुवनानां य उस्राणां अपीच्या वेद नामानि गुह्या ।
स कविः काव्या पुरु रूपं द्यौरिव पुष्यति नभन्तामन्यके समे ।।
यस्मिन् विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिव श्रिता ।
त्रितं जूती सपर्यत व्रजे गावो न संयुजे युजे अश्वान् अयुक्षत नभन्तामन्यके समे ।। ऋ.8.41.2-6.
वंशावली कहती है कि अंगिरसों में 15 दल थे, लेकिन 16 या 17 नाम दिए गए हैं, जैसे अय्य, उतथ्य (उकथ्य), यमदेव, औसिजा, भारद्वाज, संकृति, गर्ग, कण्व, ई-अथलतारा, मुद्गला, यिस्नुवर्धन, हरिता, कपि, रूक्ष (उरुक्षय पढ़ें), भाईध्वज, अर्शभा और कितु। मत्स्य 196 इन सभी को अंतिम दो को छोड़कर गोत्र के रूप में नामित करता है। इन दलों में से, हालांकि, नौ, संक्राति से उरुक्षय, मूल रूप से अंगिरस नहीं थे, बल्कि क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे और अंगिरसों में शामिल किए गए थे। कण्व सीधे ब्राह्मण बन गए, जैसा कि अब समझाया जाएगा, लेकिन ये सभी क्षत्रिय ब्राह्मण बन गए, जैसा कि अध्याय XXIII में समझाया जाएगा, और अंततः पूर्ण ब्राह्मण। इनमें से अधिकांश नामों का उल्लेख प्रसिद्ध अंगिरसा भजन-निर्माताओं के रूप में भी किया गया है।
अंगिरसों में कण्व थे, और वे पौरव वंश से एक शाखा थे, जैसा कि सभी अधिकारी सहमत हैं, लेकिन दो अलग-अलग खातों में उनकी शाखाओं को विभाजित करने के लिए दो अलग-अलग बिंदु दिए गए हैं। दोनों खातों में कहा गया है, कण्व का एक पुत्र मेधातिथि था, और मेधातिथि से कांवयन वंशज थे जो ब्राह्मण थे। 1922, 225

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