Home हमारे लेखकरिवेश प्रताप सिंह पुराने ज़माने में दुल्हन
पहले की शादियों में विदाई के वक्त, छोटे-बड़े बक्स, खूब मिला करते थे…. हांलांकि उसमें दुल्हन की रोजमर्रा जरूरतों का कोई सामान न के बराबर होता था।
लेकिन उन बक्स में ताले! पूछिए मत!!
जनाब अलीगढ़ वाले।
दुल्हन अपने साथ एक अदना सा दुल्हा और साथ में सत्रह चाबियों का गुच्छा लेकर पहुंचती थी ससुराल।
हांलांकि! उसके जवानी का महत्वपूर्ण वर्ष, सिर्फ इस मुगालते में वर्षों कुतर जाता था कि उसके सत्रह बक्से अधिक महत्वपूर्ण हैं न कि उसका बिन तालों वाला मरद!! इसलिए वो अपने चाबियों के गुच्छे को अपने पति से अधिक सम्भाल कर रखती थीं।
उन सत्रह बक्सों में उनके रोजमर्रा के जरूरतों के सामान नहीं होते थे इसलिए ऐसे बक्स के सालों-साल पड़े तालों का पड़े-पड़े जंग खा जाना लाजिमी है।
और हां! ऐसे ताले आसानी से खुलते भी नहीं थे लेकिन जब उन्हें खोलना होता था.…. तब बकायदा मिट्टी के तेल में डुबाकर, हिलाकर, यहां तक कि पीटकर, घन चलाकर खोलना पड़ता था।
मित्रों! अब तो मुझमें भी थोड़ी-बहुत समझदारी आ गयी। लेकिन मुझे बहुत पहले ऐसा लगता था कि जब यह बक्से खुलेंगे तब, हर तरफ से बत्तियां जल उठेंगीं। हर तरफ चमत्कार-हहाकार जैसा कुछ होगा।
आपको यकीन नहीं होगा! मैं ऐसे बहुत से तालेदार बक्सों का गवाह बना हूं लेकिन हर वक्त…. मैं नाउम्मीदी और नाकामी लेकर ही मौके से उठा हूं –
मित्रों!ऐसे बक्स जब मशक्कत के घंटों लगाने के बाद खुलते थे, तो आपको मालूम!!! की उनके शरीर से क्या निकलता था..
जी हां!! उसमें से निकलता था..
दूसुत्ती के कपड़े पर लिखा हुआ ‘स्वागतम’ वाला मेज पोश। कपड़े वाला बेना, फ्यूज ब्लब पर की गई ऊन की कलाकारी, मारकीन के कुछ कपड़े। प्लास्टिक का तोता। सीसे की बौनी ग्लास ,साबुनदानी, कंघी आदि।
मतलब पूरे बक्स में काम लायक सिर्फ ताला होता था और जो ताले के भीतर वर्षों से मौजूद था वो सिर्फ और सिर्फ एक प्रकार कौतूहल था…और ताले को तोड़कर बक्स के भीतर घुसने के लिए की गयी व्यूह रचना जैसा कुछ‌।
मित्रों! मुझे लगता है कि यही हाल फेसबुक पर Locked profile वालों का हैं। संभव है कि कुछ लोग बक्से के भीतर हीरे-मोती या तिजोरी की चाबियां भी छुपाकर रखते हों। लेकिन अधिकतम!!!
सत्रह बक्से में लैश, कबाड़ वाले.. तालाबंद लोग हैं।

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