Home हमारे लेखकरिवेश प्रताप सिंह बचपन गर्मियों की छुट्टिया और कॉमिक्स का कर्ज | प्रारब्ध

बचपन गर्मियों की छुट्टिया और कॉमिक्स का कर्ज | प्रारब्ध

लेखक - रिवेश प्रताप सिंह

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ग्रीष्मकालीन अवकाश में हम जैसों के लिए खेल तथा मौज हेतु जो चुनने के विकल्प होते थे… वो बहुत मामूली हुआ करते थे। यथा- गांव/नानी के घर का भ्रमण कुछ आउटडोर-इनडोर गेम तथा किराये पर कॉमिक्स!
गर्मी की छुट्टियों में कॉमिक्स के पाठक तथा लाइब्रेरी की एक बड़ी संख्या अनायास ही बढ़ जाती थी…उस बढ़ी संख्या में पाठक के तौर पर एक संख्या मेरी भी हुआ करती थी। आठ आने भुगतान करने पर किताब वाला एक दिन के लिए शब्दों का एक जादुई संसार, कुछ कड़ी हिदायतों के साथ आपको सुपुर्द कर देता था।
किताब लाने, पढ़ने तथा वापस करने में अपनी विश्वसनीयता इस स्तर पर पहुंच चुकी थी की अब सुरक्षा राशि तथा चौबीस घंटे के चक्र से मुक्त हो चुका था। लेकिन अतिरिक्त अधिकतम पांच-छह घंटे (वो भी धूप एवं गर्मी का हवाला देकर)।
एक बार गर्मी की छुट्टी में, सुबह एक कॉमिक्स लाया! शाम तक हम चार- पांच लोग पढ़ भी चुके लेकिन उसी दिन रात…. अगली सुबह नानी के घर जाने का कार्यक्रम बन गया… खुश भी हुआ लेकिन कॉमिक्स के वापसी को लेकर चिंतित भी!
सुबह सब लोग तैयार हो गये! तैयार मैं भी था। कपड़े से भी तथा कॉमिक्स वापसी को लेकर भी। सुबह सात से साढ़े सात बजे तक कुल तीन बार लाइब्रेरी वाले के घर/दुकान पर गया। लेकिन उधर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर कॉमिक्स शर्ट के नीचे पेट में दबाकर वापस घर लौट आया। इधर आठ बजे तक जीप भी पकड़नी थी…घर में कॉमिक्स वापसी की बात बताकर जीप रोकने की हिम्मत न हुयी इसलिए भरे मन से कॉमिक्स स्कूल बैग में छुपा.. जीप में सवार होकर एक भारी चिंता के साथ चल नानी के घर चल दिया। नानी के घर मौज के साथ घड़ी भी धकाधक दौड़ रही थी तथा कॉमिक्स का सूद भी इसी रफ्तार से। न खेलने में मन लगे और न आम चूसने में। हर दिन अठन्नी बढ़कर मेरे मौज को घटाकर चवन्नी कर देता था। वो पहली बार था जब मैं अम्मा से अपने पैतृक निवास पर लौटने का दबाव बनाने लगा। हांलांकि जो निर्धारित कार्यक्रम था उसमें कोई फेर बदल नहीं हुआ तथा हम कुल सोलह दिन तथा आठ रूपए के भारी क़र्ज़ के साथ अपने पैतृक निवास पहुंचे। मुझे घर पहुंचाते वक्त जिस रफ्तार से जीप दौड़ रही थी यकीं मानिए उसी रफ़्तार से मेरी धड़कन भी!! ऐसा लग रहा था कसाई बकरे को खींच कर….. खैर!!!
नानी के घर से लौटने के बाद उदास होना सामान्य बात थी। लेकिन इस बार मेरी उदासी कर्जदारी को लेकर थी। उस शाम तक आठ रुपये का भारी कर्ज मुझे सोने नहीं दे रहा था। पहली बार नानी के घर से दुबला होकर लौटा था। हांलांकि नानी के घर से इतने रुपये मिले थे कि वैसी पांच सात कॉमिक्स की रजिस्ट्री करा लेता लेकिन माताओं के भीतर का एक भय कि कहीं ऐसा न हो कि पैसा इसके हाथ फिसलकर कहीं गुम हो जाये। इसलिए जीप के स्टार्ट होने के पहले ही अम्मा द्वारा पूरा पैसा ज़ब्त करके ‘मातृ स्विस बैंक’ में जमा कर लिया गया।
घर पहुंचते ही बिना कॉमिक्स लिए तेज़ क़दमों से कॉमिक्स की दुकान पर पहुंचा। दुकानदार की आंखें मुझे देखते ही चमक उठी। मैंने अपनी व्यस्तता, बाध्यता एवं किताब जमा करने की व्यग्रता को ईमानदारी से बताना चाहा लेकिन उससे पहले बिना मुरव्वत के उसके आठ रुपये के हिसाब ने मेरी सम्पूर्ण भावनात्मक कार्ययोजना पर पानी उड़ेल दिया। ऐसा नहीं कि मैंने आठ रुपए प्रबंधन हेतु प्रयास नहीं किया लेकिन उस दौर में मेरे लिए वह राशि वैसे ही थी जैसे विजय माल्या, सहारा श्री तथा नीरव मोदी द्वारा बैंक से लिया गया क़र्ज़!!
मैं,आठ रुपए जोड़ने की दिशा में लगभग साढ़े पांच जोड़ चुका था लेकिन जोड़ते जोड़ते कामिक्स वाले के बहीखाता का हिसाब बढ़कर चौदह रुपए तक पहुंच गया। अब वो राशि मेरे लिए उचक कर चांद छूने जैसी थी इसलिए मैंने पैसे जुटाने तथा कॉमिक्स वापसी का फैसला उतना भीतर दबा लिया जितना ताबीज के भीतर दुआ की पर्ची छुपाकर बाहर से मोम या लाख भर दिया जाता है।
अब माल हजम करने के बाद का जीवन बेहद तनावग्रस्त एवं जोखिमपूर्ण हो चला था। हर वक्त सिर्फ एक ही चिंता…. कहीं लाइब्रेरी वाला एक लम्बा-चौड़ा हिसाब बनाकर घर पर न आ धमके। कहीं रास्ते में पकड़ कर गिरफ्तार करके कुर्की का आदेश न जारी कर दे। ऐसा न हो की पूरे लाइब्रेरी समाज के डिफाल्टर लिस्ट में मेरा नाम चस्पा कर दिया जाये। ऐसी तमाम अनहोनी एवं चिंताओं के बीच मैंने लगभग दो साल गुजारे। उस रास्ते से लगभग पांच साल तक गुजरना छोड़ दिया…एक दो बार आमना-सामना भी हुआ लेकिन इतना चौकन्ना रहता था कि कभी उस लाइब्रेरी वाले के हाथ न लगा। कुल मिलाकर क़र्ज़ और सूद के मकड़जाल ने मेरे बचपन के बड़े हिस्से पर ग्रहण तथा हथकड़ी लगा दी।
मित्रों! उस घटना के बाद जीवन में जो बदलाव आया वो यह कि जब भी कोई बैंक का कर्जदार पैसे जमा न कर पाने की दशा में देश छोड़ कर विदेश भाग जाता है तो मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती.. क्योंकि मुझे मालूम है कि जब कोई कर्ज, कर्जदार के लिए उसके सक्षमता के बहुत ऊपर हो जाता है तो उसके लिए भागने तथा छुपने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता।

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