बनारस की सोचिए बुद्ध भी हुए तुलसी भी,कबीर भी हुए रैदास भी। इस बनारस की भूमि का बड़ा रूप है। एकदम सनातनी और एकदम लोकायती, सभी फले फूले।
इस क्षेत्र के लोगों ने सबको धारण किया। अब ऐसा लोकतांत्रिक जनमानस और कहां होगा जो पूरब और पश्चिम दोनों को, धरती और आकाश जैसी विविधताओं को एकसा माहौल देता हो।
बिस्मिल्लाह खान को लुंगी में घूमते देखना, रविशंकर को भांग घोलकर पीते देखना सब इस क्षेत्र की विशेषताएं हैं। बाहर वाले जिन-जिन बनारसियों को प्रकांड पण्डित मानते हैं वे असल में बनारस में आमलोगों से रिक्शे पर, पैदल, घाटों पर, चाय दुकानों पर,भंग छानते दिखाई पड़ जाते हैं। काशीनाथ सिंह तो कहते हैं महादेव और काशी नरेश को छोड़कर यहाँ कोई मुख्य नहीं।
कथा तो कहती है दयानन्द सरस्वती एकबार बनारस गए और बनारसी पंडितों(यहाँ पण्डित से अर्थ बनारसी जनमानस ही है) को फटकारते हुए कहा कि ‘आपलोग मूर्तिपूजा करते हैं, यह ढकोसला है। वेदों में मूर्तिपूजा की कहीं चर्चा नहीं और जो वेदों में नहीं वह हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं। कम-से-कम मैं उसे हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं मानता।’
इसपर बनारसी पंडितों ने पान चबाते हुए कहा ‘क्या यह वेदों में लिखा है कि जो वेदों में नहीं,वह हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं ?’
कथा कितनी सच है कितनी झूठ ,कह नहीं सकते लेकिन इतना ज़रूर कह सकते हैं कि बनारसी अंदाज़ सबसे निराला है। यहाँ सारे विरोधी कोण एकसाथ एकसी ठाठ में रहते हैं।
एक मेरा शहर है बंगाल.!
यहाँ विरोधी मत का व्यक्ति शत्रु माना जाता है। मैंने हिंदी प्रदेश में विरोधी विचारधारा के लोगों को अपनी विचारधारा के लिए लड़ते(विचारिक/बहस) देखा है लेकिन सिर्फ बहस के स्तर पर, बाद में सभी मित्र हैं, सुख दुख के साथी लेकिन बंगाल में इसके ठीक उलट विरोधी विचारधारा का व्यक्ति शत्रु है जिससे कोई संवाद नहीं रहता।
हम सभी बनारस से सीख सकते हैं। बनारस दुनिया के वैचारिक विरोधों और लोकतांत्रिक अवस्थिति का सबसे आदर्श उदाहरण है और इस बनारस को ऐसे ही लोगों ने बनाया है। वैदिक और लोकायती दोनों ही बनारस की निर्मिति के आधार हैं। बनारस अजब है। बनारस गज़ब है।