Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय बलेसरा काहें बिकाला

बलेसरा काहें बिकाला

दयानंद पांडेय

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जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख हो। एक गुल्ला छीलिए तो पोर खुल जाए। कुछ वैसे ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बलेसरा की है। अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए। बलेसरा मतलब बालेश्वर ।
आठवीं तक पढ़े बालेश्वर का नाम आज की तारीख में भोजपुरी लोक गायकी में शिखर पर है। उन की गायकी में ही कहें तो, ‘आज बलेसरा बिकाला।’ इसी बलेसरा से जब पूछा कि, ‘तू गायक नाईं होत न का होत ?’ तो वह बोले, खेती मजूरी करतीं और का होतीं? दरअसल तथ्य भी यही है कि बलेसरा की लोक गायकी की यात्रा सुविचारित तो नहीं है। वह छूटते ही कहते हैं, ‘कोई गुरु नहीं।’
तो सीखा कैसे?
-बस गाते गाते।
और शिष्य?
-शिष्य मानता ही नहीं किसी को।’ फिर भी हमारे गाने बहुत लोग गाते हैं।
‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी/आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ जैसे तल्ख गीत लिखने और गाने वाले बलेसरा ने बचपन में गायकी की यात्रा शुरू की नकल कर-कर के। वह कहते हैं, ‘गांव में शादी ब्याह में, रामलीला, नौटंकी में गाना शुरू किए। कलाकारों की कॉपी करना शुरू किया।’
किन कलाकारों की?
-भोजपुरी लोक गायकों की। जैसे वलीउल्लाह थे, जयश्री थे। हमने न सिर्फ़ इन की कॉपी की, बल्कि कोशिश की कि इन की टीम में आ जाऊं। पर इन लोगों ने अपनी टीम में हमें नहीं लिया। लेकिन मैं ने हिम्मत नहीं हारी। गावों के मंचों पर चंग बजा बजा कर अकेले ही गाना शुरू किया। पैसे कुछ भी नहीं मिलते थे। खाली वाहवाही मिलती थी।’ जिला पोस्ट मधुबन गांव बदनपुर में 1 जनवरी, 1942 में जनमे बालेश्वर इस वाहवाही से ही खुश थे कि उन का नाम होने लगा था। बालेश्वर ने अपनी गायकी का दौर नकल से शुरू ज़रूर किया। पर शुरू ही से खुद का ही लिखा गाना गाया। हालां कि वह इसे गाना ‘बनाना’ बोलते हैं। उन के बनाए गानों में तंज और तल्खी तब भी बोलती थी। नतीज़तन कई बार मार पीट की भी नौबत आ गई। वह बताते हैं, ‘हमारे गांव में एक बारात आई। बारात को गांव वालों ने ही लूट लिया। इस पर गाना बनाया और गाने लगा तो गांव वाले नाराज हो गए। कि गांव की बेइज्जती कराते हो। ऐसे ही एक डॉक्टर ने हमारे गांव के एक गजराज यादव को सुई लगाई तो वह मरते-मरते बचा। बाद में पता चला कि उस की ज़मीन लोगों ने फर्जी बैनामा करवा लिया था। इस साजिश पर गाना बनाया और गाने लगा तो जवार के ठाकुर लोग नाराज हो गए। मार खाते-खाते बचा। घर में दो चार चोरी करवा दी इन लोगों ने। क्यों कि उन दिनों ठाकुरों के जुल्म के खिलाफ लिखता था। मैं अपने क्षेत्र के सामंतवादी ठाकुरों की आंख का कांटा बन गया। अब उन लोगों को मैं कैसे समझाता कि मैं ठाकुर जाति के खिलाफ नहीं, उन के ज़ुल्म, उन की ज़्यादतियों के खिलाफ गाता था। लेकिन बात ज़्यादा बढ़ गई। पर मेरा सौभाग्य था कि तभी 1962 का चुनाव आ गया। संयोग से मधुबन के पूर्व विधायक और स्वतंत्रता सेनानी विष्णुदेव गुप्ता ने दोहरीघाट भेज दिया। सोसलिस्ट पार्टी का प्रचार करने। मैं वहां चुनाव के गाने बना बना कर गाने लगा। वहीं कम्युनिस्ट पार्टी के झारखंडे राय ने हमारी प्रतिभा को पहचाना और घोसी ले गए अपने चुनाव प्रचार के लिए। वहां झारखंडे राय की विजय के लिए गाना बना-बना कर गाने लगा। झारखंडे राय जीत गए तो हम को भी अपने साथ लखनऊ ले आए। लखनऊ आ कर काफी भटका। इधर भटकाव था उधर ठाकुरों का ज़ुल्म। मैं ने लखनऊ में ही गली चौराहों पर भटकना ठीक समझा। इधर-उधर घूम-घाम गाता रहा। 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने के लिए इम्तहान दिया। लेकिन फेल हो गया। अनुभव नहीं था। मेरी परेशानी बढ़ती गई। तभी एक छोटी सी नौकरी कर ली। गाना फिर भी नहीं छोड़ा। बाद में सूचना विभाग के के.बी.चंद्रा ने बताया कि आकाशवाणी का इम्तहान कैसे दूं। फिर दस बरस बाद दोबारा आकाशवाणी लखनऊ में इम्तहान दिया तो पास हो गया। आकाशवाणी पर हमारी बुलंद आवाज़ जब छा गई तो कई और लोग भी मौका देने को तैयार हो गए। हरवंश जायसवाल ने सरकारी प्रोग्राम में हम से चार साल तक कार्यक्रम करवाया। अब कार्यक्रमों से पैसा तो मिलने लगा था, नाम-मात्र का ही सही पर वाहवाही खूब मिलती थी। और मैं खुश था। बाद में रिकार्ड बनवाने की धुन समाई।
दो साल तक एच.एम.वी. के मैनेजर जहीर अहमद दौड़ाते रहे कि तुम्हारा रिकार्ड बनाऊंगा। यह 1978 की बात है। लेकिन वह हम को कमज़ोर समझ कर, वादा कर के छोड़ देते थे। हरवंश जायसवाल के बहुत कहने पर कि बालेश्वर को एक मौका दो, रिकार्ड बिकेगा। तो जुलाई, 1979 में एच.एम.वी. ने दो रिकार्ड बनाए। एक ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के’ और दूसरा ‘बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी।’ 1980 में यह रिकार्ड बाज़ार में आ गया। 1982 आते-आते मेरी मार्केट हाई हो गई। देश के कोने कोने में प्रोग्राम होने लगे। मेरे कार्यक्रमों में टिकट के लिए मार होने लगी। मैं हीरो हो गया भोजपुरी लोक-संगीत का।
‘1988 में पश्चिम बंग भोजपुरी परिषद ने कलकत्ता के इनडोर स्टेडियम में भोजपुरी सम्राट की उपाधि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल से दिलवाई। दिल्ली में अखिल भारतीय भोजपुरी गायक सम्मेलन में 1991 में पूर्व मंत्री के.के. तिवारी ने भोजपुरी रत्न उपाधि से सम्मानित किया। इस के पहले 1990 में दिल्ली में ही बिहार प्रवासी मजदूर संघ ने भोजपुरी पुत्र की उपाधि दी थी। इस के भी पहले मई, 1989 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति और वर्तमान में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के साथ जर्मनी, हॉलैंड, सूरीनाथ, गुयाना, दक्षिण अमेरिका भी घूमे।’
बात अब की चली तो बालेश्वर का कहना था, ‘अभी तो स्टेज कार्यक्रमों से ही फुर्सत नहीं। वैसे स्टेज कार्यक्रमों के अलावा आकाशवाणी, दूरदर्शन के लिए भी गाता हूं। और इस से भी ज़्यादा सुपर कैसेट्स की टी सीरीज में गाता हूं। हालां कि इस के पहले एच.एम.वी. से अनुबंध था मेरा। पर एच.एम.वी. ने रायल्टी देने में देर की तो मैं टी सीरीज में गाने लगा। 1985 में एच.एम.वी. ने मेरे ऊपर अनुबंध तोड़ने का मुकदमा कर दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय में। अब यह मुकदमा टी सीरीज वाले लड़ रहे हैं हमारी ओर से।’ बालेश्वर के अब तक कोई 12 रिकार्ड और 25 कैसेट्स बन चुके हैं। इधर हर साल कोई चार या पांच कैसेट आ जाते हैं। दो किताबें भी उन के गानों की छपी है।
‘बुलंदी पर होने के बावजूद कैसेट्स बाजार में आने की गति इतनी धीमी क्यों है?’ पूछने पर वह बोले, ‘हम वैसे भी कैसेट के लिए कम गाते हैं। इस लिए कि स्टैण्डर्ड मेनटेन रहे।’
और सच भी शायद यही है कि कल के बालेश्वर और आज के बालेश्वर में काफी फ़र्क आया है, कई अंतर्विरोध जनमे हैं। कई चीज़ें बदली हैं। ठीक वैसे ही जैसे उन्हों ने गांव बदल दिया। अब उन का गांव बदनपुर, पोस्ट मधुबन, ज़िला आज़मगढ़ नहीं है। अब उन का गांव ज़िला मऊ में कल्पनाथ राय रोड पर चचाईपार है। पिता अर्जुन तो अब जीवित नहीं हैं। तीन भाइयों में एक भाई भी नहीं रहा। पर दूसरा भाई नगेसर में नागलैंड में ठेकेदारी करता है। तीन बेटों में दो नौकरी करते हैं। एक सचिवालय में, एक कोआपरेटिव बैंक में। एक पढ़ रहा है आठवीं में। दो बहू, एक नातिनी, एक नाती, भतीजा, भाई है परिवार में।
और बलेसरा ?
-कभी शौकिया और सिर्फ़ वाहवाही के लिए गाने वाला बलेसरा व्यावसायिकता का शिकार हो अब बालेश्वर हैं। अब वह नकल नहीं करते किसी की। लोग उन की नकल करते हैं। अपने बनाए औऱ गाए गानों में हालां कि अब भी बालेश्वर ‘बलेसरा’ ही को बेचते हैं पर हैं वह अब बालेश्वर ही।
1962 और 1992 के बालेश्वर का फ़र्क सिर्फ़ यही नहीं है। बालेश्वर की गायकी का फलक भी अब विस्तार पाया दीखता है। वह कहते भी हैं, ‘मेरा दिमाग अब मंडल कमंडल, मंदिर मस्जिद के झगड़े में अधिक लगता है। मंदिर मुद्दे पर बालेश्वर का यह गाना कुछ ज़्यादा ही ज़ोर पकड़े हुए है: ‘मंदिर बनी लेकिन महजिद गिराई न जाएगी/ आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ कुछ समय पहले जब मिली जुली सरकारों का दौरा चला था तो बालेश्वर गाते थे, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले/ हिटलरशाही मिले मगर मिली जुली सरकार न मिले। मरदा एक ही मिले, मगर हिजड़ा कई हजार न मिले।’
आरक्षण पर भी बालेश्वर स्टेजों पर ललकारते हैं, ‘जिन्ना ने हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा करा दिया/बुखारी आडवाणी ने मंदिर मस्जिद को लड़ा दिया/ वी.पी. सिंह शरद यादव ने मंडल कमंडल खड़खड़ा दिया/पासवान काशीराम ने हरिजन और सवर्णों को जुझा दिया।’
बालेश्वर अपने अंतर्विरोधों को भी अच्छी तरह जानते हैं और स्वीकारते हैं: ‘कैसेट में श्रृंगार रस और सामाजिक गाने गाता हूं। पर स्टेज पर राजनीतिक गाने ज़्यादा गाता हूं।’ यह पूछने पर कि किस राजनीतिक पार्टी से संबंध रखते हैं बालेश्वर कहते हैं, ‘न किसी राजनीतिक पार्टी से मेरा संबंध है न ही जातिवादी हूं मैं। हालां कि जातिवाद आज समाज में ‘ओभर’ हो गया है। खास कर गांवों में यह ठीक नहीं है।’
बात उन के रचनाकार पक्ष की चली तो यह अंतर्विरोध भी वह बड़ी ईमानदारी से स्वीकार गए। पूछा उन से कि, ‘कवि सम्मेलनों में क्यों नहीं जाते?’ वह बोले, ‘कवि सम्मेलनों में जाने की सोचता तो हूं। पर यह भी जानता हूं कि कवि सम्मेलनों में जाऊंगा तो फ्लाप हो जाऊंगा।’
क्यों?
-क्यों कि बिना साज के और टीम के मैं गा नहीं सकता। और वहां अकेले गाना पड़ेगा। इस लिए कवि सम्मेलनों में मैं नहीं जा सकता। हालां कि लिखता वही हूं जो समाज में देखता हूं।’ फिर जैसे उनका असंतोष भी उभर आता है,‘मेरी अच्छी बैकिंग चूंकि नहीं है सो कीचड़ में पड़ा हूं। इतना लिखने-पढ़ने, गाने के बाद भी क्या मिलता है ?’ वह पूछते हैं और कहते हैं, ‘भोजपुरी लोकगीतों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया पर पद्मश्री पा गई शारदा सिनहा।’ बालेश्वर यह भी जोड़ते हैं, ‘सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार मिलना असंभव भी है। क्यों कि मक्खनबाजी का ढंग मुझे नहीं आता। मेरे गाने क्रांतिकारी हैं, आलोचनात्मक हैं। दलबदलुओं के खिलाफ लिखता हूं। तो कौन नेता इस को पसंद करेगा? किस पार्टी में दलबदलू नहीं हैं।’
बात भोजपुरी गायक कलाकारों की चली है तो बालेश्वर बिफरे हैं, ‘भोजपुरी गाना गाने वाले कलाकारों पर सरकार की निगाह बिलकुल नहीं है। कलाकार बहुत हैं। पर पर्दे पर जो आता है वही कलाकार हो जाता है।’ बालेश्वर स्वीकारते हैं, ‘ हम से भी अच्छा गाने वाले हैं। पर उन्हें मौका ही नहीं मिलता। स्टेज प्रोग्रामों से फुर्सत मिले तो यह सब बातें उठाता हूं। उ.प्र. सरकार ने अभी तक भोजपुरी के लिए कुछ किया नहीं। पर हमने भोजपुरी अकादमी गठित की है। मैं इस अकादमी का संस्थापक और सचिव हूं, जय प्रकाश शाही अध्यक्ष हैं।’
बालेश्वर बताते हैं, ‘पंद्रह बरस पहले तक भोजपुरी गाने वाले कलाकारों की बड़ी हीन स्थिति थी बाहर। लोग मजाक उड़ाते थे। मेरा भी मजाक बनाते थे लोग। पर अब ऐसा नहीं है।’ बताते बताते वह फिर पुरानी बात पर आ गए हैं, ‘अभी तक विश्व में सब से अधिक भोजपुरिया हैं जो मेहनत करते हैं। पर दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भोजपुरी कलाकारों को मौका नहीं दिया जाता। यह भोजपुरी के साथ अन्याय है।’ बालेश्वर से मैं ने पूछ लिया कि, ‘क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि अगर आप की पढ़ाई लिखाई पूरी होती तो आप और अच्छी रचनाएं कर सकते थे।’ बालेश्वर लगभग बौराए और बोले, ‘पढ़ाई लिखाई पूरी और बढ़िया होती, और कि मैं सवर्ण परिवार में पैदा हुआ होता तो मैं शायद बहुत आगे जाता। तब शायद उच्च कोटि का साहित्यकार होता मैं।’ वह बात फिर बदलते हैं, ‘फिर भी हमें गर्व है कि पिछड़े वर्ग में भी रह कर मैं समाज की सारी बातों को ललकार कर कहता हूं।’
यह टोकने पर कि, ‘अगर सवर्ण परिवार में पैदा होते तो क्या ऐसे ही गा पाते?’ सवाल सुन कर बालेश्वर भकुआ जाते हैं।
‘हां यह भी हो सकता था। हो सकता था कि तब न गा पाते।’ फिर वह जैसे सफाई देने लग जाते हैं, ‘जाति-पाति में मेरा विश्वास नहीं है। हम तो सभी के प्रोग्राम में जाता हूं।’
राजनीतिक और सामाजिक तंज कसने, रचने और गाने वाले बालेश्वर के गाए द्विअर्थी गानों की बात चली तो बालेश्वर ने बगलें नहीं झांकी। बोले, ‘हां गाता हूं। क्या बुरा है। लोग सुनते हैं तो गाता हूं। फिर वह खुद कुछ द्विअर्थी गानों की फेहरिस्त खोल बैठते हैं। ‘कटहर के कोआ तू खइबू, त मोटका मुअड़वा का होई, नैहरे में हो गई अधेड़, दारू बदनाम है, नशे में सारी दुनिया, कचहरिया में गोरी से पूछता सजनवा, जब खिलल कली से तू खेलल, अब लटकल अनरवा का होई।’
फ़िल्मों में गाने की बात चली तो वह कहने लगे, ‘फ़िल्मों में ट्राई करने का मौका नहीं मिला। स्टेज प्रोग्राम में ही एतना व्यस्त रहता हूं कि बंबई, दिल्ली का चक्कर नहीं लगा पाता हूं।’ फिर वह बताने लगे कि, ‘तो भी सुजीत कुमार ने अपनी भोजपुरी फ़िल्म ‘पान खाएं सइया हमार’ में हम से बिना पूछे हमारे गाए तीन गाने हमारी ही आवाज़ में कैसेट से ले कर इस्तेमाल कर लिए। एक तो सब से मशहूर गाना हमारा, ‘बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी’ और दूसरा ‘मोटका मुअड़वा का होई’, और तीसरा ‘कजरवा हे धनिया’ गीत ले लिए फ़िल्म में। पर न तो हम से पूछा, न पैसा दिया और न ही फ़िल्म में कहीं हमारा नाम दिया।
आप ने एतराज नहीं जताया सुजीत कुमार से?
-का एतराज जताएं? भोजपुरी के नाम पर संतोष कर गए। हम तो पिक्चर भी नहीं देख पाए। फिर भी फ़िल्म में हमारा गाना उन्हों ने हमारे कैसेट से लिया इस का खुशी है। बस अफसोस एही है कि पैसा न दिया न सही नाम तो दे दिए होते। पर चलिए कोई बात नहीं। अब कौन बवाल में पड़े। पब्लिक तो जानती ही है, कि वो हमारा गाना है।’ फिर वह एक घटना सुनाने लगे, ‘यह 1986 की बात है। आसाम हम गए हुए थे। तिनसुखिया में बालेश्वर नाईट मनाई जा रही थी। पर तिनसुखिया के आगे दुमदुमा में भी हमारी नाईट थी। हम को मालूम भी नहीं था। बाद में पता चला कि वहां कोई नकली बालेश्वर पहुंचा हुआ था। लेकिन जब वहां की जनता ने, ‘बलिया बीच बलमा हेराईल सजनी’ की फर्माईश कर दी तो वह नकली कलाकार हथियार डाल गया। बोला मैं तो बालेश्वर नहीं हूं फिर तो वहां कुर्सियां टूटने लगीं। हंगामा हो गया। टिकट लोगों के वापस हुए तभी शांति बन पाई।’
बालेश्वर की टीम में पहले पांच लोग थे पर अब बीस लोग हैं। वह कहते हैं,‘मांग बढ़ती गई तो टीम बड़ी करनी पड़ी। बालेश्वर की टीम लोकगीत और लोकनृत्य का 5-6 घंटे का कार्यक्रम बड़े आराम से करती है। वह भोजपुरी में बिरहा, कहरवा, सोरठी, लाचारी, झूमर, चैता, फगुवा, गारी, कजरी, विदेशिया आदि सभी तरह के गीत गाते हैं। राजनीतिक और सामाजिक गाने इन दिनों उन के स्टेज प्रोग्रामों में अनायास ही छा जाते हैं। आजकल वह नया गाना बनाए हुए हैं: ‘पैसा ये पैसा कैसा ये पैसा /पैसे के लिए सुख चैन बेच दिया।/ कोई बेचे लोटा कोई बेचे थाली/ हर्षद मेहता ने इंडिया का बैंक बेच दिया।/ कोई बेचे बेटी कोई बेचे बहू/ कृष्णमूर्ति ने पद्मश्री बेच दिया।/ कोई बेचे मंदिर कोई बेचे महजिद /बालेश्वर ने बिरहा बेच दिया।’
बालेश्वर समकालीन भोजपुरी गायकों में हीरा लाल यादव, बुल्लू यादव, बेचन राम, परशुराम यादव और बिहार के मुन्ना सिंह, रत्ने सिंह तथा शारदा सिनहा का नाम गिनाते हैं। नए भोजपुरी गायकों की चर्चा चली तो वह श्यामा यादव, प्रेमी प्रसाद, जे.डी. श्रीवास्तव, कुमारी सोना सिंह और श्रीमती रागिनी पाण्डेय के नाम गिना गए। और बताने लगे, ‘इस में कुछ तो हमारी टीम में हैं और कुछ बाहर भी हैं।’ बात ही बात में वह कहने लगे, ‘मेरा लक्ष्य है कि भोजपुरी और अवधी लोकगीतों का डिस्को की होड़ में झंडा ऊंचा रहे।’
फिर बालेश्वर की नौकरी-चाकरी की बात चली तो वह टाल गए। कहने लगे‘नौकरी चाकरी से अब क्या लेना देना।’
‘एक प्रोग्राम का कितना लेते हैं?’ जैसे सवाल भी वह इनकम टैक्स की आड़ में टाल गए। पूछा कि गांव कब जाते हैं तो कहने लगे, ‘गांव कभी काल जाता हूं। 6 महीना हो गए। जब उधर प्रोग्राम लगता है तो ज़रूर जाता हूं।’
खेती बारी?
-खेती बारी एक भतीजा देखता है।’
लखनऊ में दारुलशफा बी ब्लॉक के एक गैराज में बैठकी जमाने वाले बालेश्वर के चाहे जितने अंतर्विरोध हों, वह चाहे जितने बदल गए हों, बलेसरा से बालेश्वर हो गये हों, गांव भी भले ही कभी-कभार जाते हों पर एक बात वह अभी भी नहीं भूले हैं। वह है चुनाव प्रचार। और वह जिस भी किसी के चुनाव प्रचार में गाने गाते हैं वह जीत जाता है। फ़र्क बस यही है कि पहले वह झारखंडे राय सरीखों का चुनाव प्रचार करते थे और अब कल्पनाथ राय जैसों का।
तो का बलेसरा के बिकाने का राज यही है?
-लेकिन बलेसरा के बिकाने का मर्म चुनाव प्रचार नहीं है। वह तो बिकाता है हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले मजूरों, मेहनतकशों और खेतिहरों के बीच।
शहरी ड्राइंग रूमों की शोभा बलेसरा न हो, न सही। वह तो खेतों की मेड़ों, मेलों बाज़ारों, गांव की गलियों और मद्धिम रौशनी वाले मटियारे घरों में मकलाता गाता बजाता है, ‘समधिनिया का पेट जइसे इंडिया का गेट!’ बिलकुल मीठी नरम ऊंख की तरह। पोर-पोर खोलता हुआ एक ही गुल्ले में, ‘समधिनिया का बेलना झूठ बोलेला।’ भद्रलोक नहीं सुन पाता तो नहीं सुने। बलेसरा तो, ‘रई-रई-रई’ करते हुए गाएगा, बिकाएगा और ललकारेगा भी, ‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी/ आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ बालेश्वर की गायकी का यह अंतिम बिंदु नहीं है। बदलाव के कई पड़ाव अभी बाकी हैं।
[1992 में लिया गया इंटरव्यू]

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