13 का दिन मेरे लिए सौभाग्यशाली दिन था। मेरे अनुज जनार्दन सिह के स-फल वैवाहिक जीवन की पचासवीं वर्षगांठ थी। जो लोग वर्षगांठ का प्रयोग करते हैं उनमें से शायद ही कोई इसका इतिहास जानता हो। यह उस जमाने का शब्द है जब मनुष्य ने बड़ी संस्थाओं के लिए नाम निर्धारित न किए थे। लेखन अर्थात् किसी भाव या विचार को बोलकर नहीं, रेखा से प्रकट करने की कला, का आरंभ गणना से हुआ था। गणना के लिए किसी छड़ी पर , हड्डी पर रेखा (बार) के साथ नया बार खींच कर संख्या बढाई जाती थी और उसमें आने कमी आने पर उतनी रेखाओं को काट देते थे। इसकी प्राचीनता दसियों हजार साल पीछे तक जाती है पर संख्यामानों के अनुसार चिन्हों के विकास के बाद भी यह लगातार प्रयोग में आता रहा और आज गणना की सबसे उन्नत पद्धति यही है जिसका उपयोग कंप्यूटर में होता है। बयपन में हम “चिल्हिया कै बार” खेलते थो। दो दल किसी संकेत के बाद दो दिशाओं में एक दूसरे से ओझल हो कर किसी पेड़ की जड़ों के पास, बरतन के ठीकरे पर, मेड़ के ढलान पर अर्था जितने भी अकल्पनीय-कल्पनीय साधन हो सकते थे, बार खींचते और छिपाने का प्रयत्न करते। फिर आवाज होती ‘जिल्हिया कै बार’ और इसके बाद दोनों दल एक दूसरे के क्षेत्र में बारों की तलाश करके उन्हें काट या मिटा देते। फिर दोनों पक्षों के ऐसे बारों की गिनती होती जो कटने-मिटने से बच गए थे। जिसके बार संख्या में अधिक होते उसकी जीत होती। पर हम ‘चिल्हिया’ और ‘बार’ का अर्थ नहीं जानते थे। एक पर एक बार खीचने के बारंबारता निकला है। खैर, इससे संख्या चिन्ह, बार, (।), ऋण (-) और धन (+) के संकेतचिह्न जुड़े हैं। गिनने का एक दूसरा तरीका था किसी रस्सी में गांठ लगाते जाना या किसी धागे में कुछ गूंथते जाना। जिसने मनके और रोजरी का रुप लिया। बड़ी संख्याएं कम समय में गिनी जा सकें इसके लिए नियत कुलकों (गंडा=4, पंजा=5) के बाद भेदक पर्व या गांठें या (स्पेसर) लगाए जाते थे। इस तरह लिपिचिन्हों से बहुत पहले से पक्ष मास और वर्ष की गणना आरंभ हुई। इतिहास कितने रूपों में बचा रहता है, या सामाजिक इतिहास के सूत्र कितने नगण्य कोनों से तलाशे और संजोए जा सकते हैंं इसका एक नमूना तो वर्षगांठ और मासिक पर्व हैं, और दूसरा ‘चिल्हिया कै बार’ है जो जिसका बार शब्द देववाणी का रहा हो सकता है, पर किसी बोली में देववाणी के चीन्हा की जगह चील्हा चलता था, और उसका संभवतः लोप या देववाणी में विलय हो गया। जिसका संदेश यह कि हमारे एक एक शब्दों के निर्माण में एकाधिक भाषाओं का योगदान हो सकता है।
भारतीय गल्पों की रचना कब आरंभ हुई थी, यह तय करना हमारे वश का नहीं है। यदि बहुत प्राचीन समय से ही इसका सहारा न रहा होता तो वे दुर्लभ सूचनाएं लुप-दुप करती हुई ही सही, दसियों हजार साल तक बची न रही होतीं, जिनके आधार पर हमने यह दावा किया है कि भारतीय आबादी की एक बहुत प्रभावशाली शाखा हिम युग के उग्र होने के साथ साइवेरिया से दक्षिण की दिशा में बढती हुई भारत तक पहुंची थी। तात्पर्य यह कि हम जिन कथाओं को आज तक सुनते आए थे और नई पीढ़ियां जिनसे वंचित कर दी गई हैं और वंचित रहने को अभिशप्त हैं, क्योंकि हमारे इक्के दुक्के (रामनरेश त्रिपाठी, देवेन्द्र सत्यार्थी) नामों को छोड़ कर लोकसंग्रह की दिशा में कोई पहल तक न की गई, प्रोत्साहन की तो बात ही दूर, जब कि संस्कृत से सगापन अनुभव करने के बाद यूरोप में ग्रिम बंधुओं से लोककथाओं, गीतों, लोकोक्तियों और पुराणकथाओं का अध्ययन करनेवाले अनगिनत विद्वान तो पैदा हुए ही, इनके अध्ययन के लिए ब्रिटेन, अमेरिका, मेक्सिको, फिनलैंड, स्लाविया, लिथुआनिया आदि में अकादमियां स्थापित हो गईं। कितने उत्साह से यह काम किया गया, इसे इस बात से ही समझा जा सकता है स्काच ऐंड्रू लैंग (The Scotsman Andrew Lang) परीकथाओं के 25 खंड प्रकाशित करके विश्वविख्यात हो गए। स्कैंडिनेविया. लिथुआनिया और यूगोस्लाविया मैं लाखों द्विपदियां संकलित की गईं जिनको दायना (ध्यान) की संज्ञा दी गई थी। वहां के राष्ट्रीय कवि ने पुराकथाओं के आधार पर एक महाकाव्य लिखा था। यह ऐसी अकेली काव्यकृति न थी। फ्रांसिस जेम्स नामक अमेरिकन ने अंग्रेजी, स्कॉट लोकगीतों का संग्रह करके उनके आधार पर बालकाव्य रचा था। मार्क ट्वेन और वाशिंगटन ईर्विन ने इन्हें आधार बना कर कहानियां लिखी थीं। स्लावियाई काव्य में कहा गया था कि उनके बीच ज्ञान का प्रसार करने वाले वेदविद (वेदवुद्स) कांगदीव (गंगाघाटी) से वहां पहुंचे थे और उनके साथ समस्त ज्ञानविज्ञान वहां पहुंचा था। और इस स्पष्ट कथन के बाद भी हमारे भारतजयी भाषाशास्त्री (सुनीति कुमार चटर्जी ) झट सुझाए हुए नतीजों पर पहुंच जाते हैं कि यही आर्यों का मूल निवास था [[बाल्ट्स और आर्य अपनी इंडो-यूरोपीय पृष्ठभूमि में। सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा;. प्रिंट बुक। अंग्रेज़ी। 1968. शिमला : भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान]
इतना सारा ज्ञान जिसके बल पर वह भाषा विज्ञान के क्षेत्र में तानाशाह की तरह काम करते रहे, परंतु दिमाग का खुलापन ऐसा कि यह तक नहीं देख सके कि सुमेर, मिस्र, ईरान, इंडोनेशिया सभी की परंपराएं यह कहती हैं समस्त ज्ञान विज्ञान के साथ कोई एक व्यक्ति अथवा एक समुदाय वहां पहुंचा था और उसने वहां के लोगों को पहली बार हैवानियत से उठाकर सभ्य बनाया था। भारत अकेला था जो इस बात का दावा करता था हमने सभ्यता का निर्माण किया और इसका प्रचार किया। दोनों सिरे इतने निर्भ्रांत रूप में मेल खाते हैं और उसके बाद भी जो समझदार थे हमारे समझदारों को जो कुछ सिखा देते थे उसे ही वे बिना जांचे परखे दोहराते हुए ऊपर उठते चले जाते थे और हमारी नजर उनकी कुर्सियों पर लगी रहती थी। हम धर्म श्रद्धा से उनकी बातें, बेतुकी बातें भी स्वीकार करते हुए अपना ज्ञान वर्धन करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है।
सबआल्टर्न इतिहासकारों के नाम और उन पर पड़ती चकाचौंध पैगा करने वाली रोशनी देखें और पता लगाएं इनमें से किसी को अपने पुराणों, मिथकों, जंतुकथाओं, रीति-विधानों, मुहावरों आदि के अक्षय भंडार का पता है तो रोशनी बुझ जाएगी और नामों पर कालिख पुत जाएगी।