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मान लीजिये शाम का वक्त है,

by आनंद कुमार
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मान लीजिये शाम का वक्त है, सूरज डूबे थोड़ा वक्त हो चला है। चाँद निकलता है और कोई चाँद की तरफ इशारा करे तो मेरे पास क्या विकल्प होते हैं ? जाहिर है दो विकल्प हैं मेरे पास –
पहला विकल्प तो ये है कि उसने चाँद दिखाया और हम चाँद देख लें, बस। एक दूसरा विकल्प भी है, जिस हाथ से चाँद की तरफ इशारा किया जा रहा है वो हाथ भी तो है देखने को ! हम वो पतली सी उँगलियाँ देख सकते हैं। हलके से बढे हुए नाखून देख सकते हैं। उनमें एक-आध पे डिजाईन से लगाया हुआ नेल पेंट देख सकते हैं। शायद कोई अंगूठी भी पहनी हो।
जब हम भारत में “वाद” को देखते हैं तो यही नजर आता है।
चाहे फिर वो ‘गांधीवाद’ हो या कि ‘मार्क्सवाद’, वो ‘लोहियावाद’ हो या फिर ‘आंबेडकरवाद’ हर जगह ये चाँद दिखने पर चाँद देखने के बदले हाथ थाम लेने की समस्या है। ये सारे बड़े लोग थे। वो अपने अपने हिसाब से आपको चाँद दिखा कर निकल लिए हैं। आप हाथ की उँगलियाँ देखते हैं कभी, कभी अंगूठी पहनी या नहीं ये ढूँढने में लगे हैं!
जब ‘गांधीवादी’ बात करते हैं तो कब ग्राम-स्वराज के आदर्शों को आगे लाने की बात करते हैं? कई दशक पहले ही महाराष्ट्र के वर्धा नाम के जिले को पूर्ण गांधीवादी जिला बना देने की बात चली थी। वहां दर्ज़नो आश्रम मिल जायेंगे आपको लेकिन इन सबने मिलकर जिले को पूर्ण आत्मनिर्भर बना दिया है क्या? 40-50 साल में अगर ये परिवर्तन धरती पर उतरता नहीं दिखता तो क्यों नहीं हम आपकी बातों को कोरी लफ्फाज़ी मान लें? आप ऊँगली की व्याख्या करने में लगे हैं जब जरूरत चाँद की तरफ देखने की थी।
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद गांधी जी महाराष्ट्र के वर्धा में रहने लगे थे और उन्होंने वहां “आल इंडिया विलेज इंडस्ट्रीज एसोसिएशन” (All India Village Industries Association) स्थापित की थी। अप्रैल 1936 से जब से वो वर्धा में रहने लगे तो अपने ग्राम स्वराज की शैली पर उन्होंने कई युवाओं को प्रशिक्षित भी किया। यहाँ कई आश्रमों में अभी भी ऐसा प्रशिक्षण का काम होता है।
इसके करीब पचास साल बाद जिस कांग्रेस को गांधी जी छोड़ गए थे उन कांग्रेसियों को याद आया कि महाराष्ट्र के इस जिले को “गांधीवादी जिला” बनाया जाए ! अब ये गांधीवादी जिला क्या होता है ये कोंग्रेसियों को तो छोड़िये, मुझे भी नहीं पता ! लेकिन 1980 के दशक में इस जिले को गांधीवादी बनाने के लिए काफी पैसे भी सरकारी खजाने से जारी हुए। शरद जोशी ने तो उसी दौर में इसपर व्यंग लिखने शुरू कर दिए थे क्योंकि ये कई विचित्र प्रश्नों को जन्म देने वाला निर्णय था। 1985 के सितम्बर महीने में महाराष्ट्र के वर्धा में गांधी जिला बनाने की बात हो रही थी। इसके लिए केंद्र से 187 करोड़ रुपये आने थे। शुक्र है किसी ने नेहरु जिला, इन्दिरा जिला आदि बनाने की नहीं सोची, जाहिर है नेहरु जिला बनाना, गांधी जिला बनाने से तो महंगा ही होता।
कहीं भी जिले से अर्थ क्या होता है? एक कलेक्टर के प्रशाषण में एक क्षेत्र होगा, जिसमे तहसिलें और उनके तहसीलदार होंगे। गांधीवादी जिले का क्या मतलब होगा? वहां का कलेक्टर-डीएम गांधीवादी होगा? तहसीलदार नहीं होंगे, उसके कार्यकर्त्ता होंगे। वो सभी लोग खादी के कपड़े पहनेंगे। कलेक्टोरेट और डीएम ऑफिस या कचहरी वगैरह में सूत काटा जायेगा, शाम को प्रार्थना सभा आयोजित होंगी और जिले का काम ढीला होने पर अनशन पर बैठ जाया जायेगा। जिला एक प्रशासनिक इकाई है और गांधी के अनुसार जो कुछ किया जाना चाहिए, वह एक जिले में सिमित स्तर पर कैसे हो सकता है? उसके लिए तो पूरा देश चाहिए।
चलिए मान लिया की एक आदर्श गांधीवादी जिला है तो क्या वहां थाने, जेल, सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स नहीं होंगे? क्योंकि गांधीवादी होने की वजह से जिले के निवासियों को न तो इनकी जरूरत होगी न ही गांधीवाद कहीं से भी इनका समर्थन करता दिखता है। अपनी आवश्यकता से अधिक कमाएगा ही नहीं तो काहे का टैक्स? कोई अपराध हो भी जाए\ तो थाना-पुलिस-कचहरी इत्यादि से क्या मतलब? अपने आप पश्चाताप कर लो। सरकारी सहायता से 187 करोड़ के गांधी जिले की योजना बनाना और सहायता न मिलने पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना गांधीवाद के श्रम, सहयोग और आत्मनिर्भरता का सबसे बड़ा मज़ाक था।
यूँ भी किसी जिले में 187 करोड़ घुस जाये तो क्या ख़ाक गांधीवाद रहेगा वहां ? या तो पूँजी आते ही पूँजी वाद हो जायेगा या सबको बराबर हिस्से मिलने के नाम पर मार्क्सवाद आएगा, गांधीवाद कहाँ से आयेगा? आज मोदी जी जब सफ़ाई अभियान के नाम पर पैसा देने के बदले खुद ही झाड़ू उठा रहे हैं तो लोगों को आश्चर्य हो रहा है। इतने सालों में तो पैसा ही गांधीवाद को लीलता रहा। इसलिए मोदी जी ने पैसे नहीं दिए! आज भी लोगों को छुट्टी न मिलने की शिकायत थी, और हमें शर्म आ रही थी। बेचारे छुट्टी न मिलने का गम ग़लत करने भी कहीं नहीं जा सकते! आज तो वो एक “सूखा दिवस” होता है न?
गांधी जिले यानि वर्धा की अभी की हालत भी बता दे एक गांधी जी के नाम की यूनिवर्सिटी भी है वर्धा में। इस विश्वविद्यालय के नाम में अंतर्राष्ट्रीय और हिन्दी दोनों ही शब्द जुड़े हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर तो छोड़िये राष्ट्रिय स्तर पर ही हिन्दी की दशा ऐसी है कि आप माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अपना मुकदमा कोई पूरी तरह हिंदी में नहीं लड़ सकता। यहाँ मुकदमा शब्द भी उर्दू का है जो अरबी से आता है। सोचने पर भी आपको मुक़दमे के लिए जो कोई हिंदी शब्द नहीं सूझता, वो आपको हिंदी की दशा तो बता ही देता है।
वैसे देखा जाए तो गांधी ने भले ही अपने जीवन के अंतिम दशकों में कांग्रेस को छोड़ दिया था, लेकिन कांग्रेस ने गांधी का नाम नहीं छोड़ा। कांग्रेस के ही नक्शेकदम पर चलते हुए अब तो दूसरे कई दलों के नेता भी गांधी नाम की माला जपते नजर आ जाते हैं। इन लोगों ने सांसदों को कहा कि गाँव गोद ले लें और उनका गांधी जी के सपनों जैसा विकास कर डालें। गावों तक बिजली पहुंचाकर उनसे शहरों की ओर पलायन रोकने के प्रयास किये गए। गावों में घर-घर शौचालय बनवाकर गांधीजी के सपनों जैसा स्वच्छता और सर पर मैला ढोने की प्रथा ख़त्म करने का अभियान भी चलाया गया। इनका नतीजा क्या हुआ है ये देखना है तो जिन ग्रामों को सांसदों ने गोद लिया था उनकी अवस्था देखने पर पता चल ही जाता है।
बाकी जबतक आप नए वाले राजनेताओं को गांधी के सपनों का भारत बनाने का प्रयास करते देखते हैं, तबतक मुझे किसी भी “वाद” को चाँद दिखाने पर ऊँगली पकड़ना कहने की इजाजत दी जाये। माना नेहरु जी ने इसे सीमित कर दिया था, लेकिन “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर थोड़ा सा मेरा भी तो हक़ है!

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