Home विषयलेखक के विचार यात्राएँ दो सभ्यताओं को जोड़ती हैं

यात्राएँ दो सभ्यताओं को जोड़ती हैं

by Pranjay Kumar
410 views

यात्राएँ जोड़ती हैं, मोहती हैं, माँजती हैं। यात्राएँ दरिया हैं, पता नहीं कब सागर से मिला दे और अखण्ड के, कुल के एहसास से सराबोर कर जाए। यात्राएँ मन-मस्तिष्क पर छाए वे स्मृति-बादल हैं जो बरसकर आपका पोर-पोर भिंगो जाते हैं। और यात्रा वह भी भारत के छोटे-बड़े नगरों-महानगरों, गाँवों-कस्बों, गली-मोहल्लों की……………. अद्भुत-अनिर्वचनीय! सोचता था कि आदिगुरु शंकराचार्य, संत कबीर, बाबा तुलसी, गुरुनानक देव जी, स्वामी विवेकानंद जी और अन्य तमाम संतों-मनीषियों ने अपने छोटे-से जीवन में भारत-भ्रमण कर कितना कुछ पाया और दिया। हर बार यात्रा के पश्चात अपने अनुभव-जगत को पहले से ज्यादा समृद्ध पाता हूँ और फिर यक़ीन पुख़्ता हो जाता है कि यदि खुशबू की तरह फैलना चाहते हैं, आकाश-सा विस्तार चाहते हैं, सागर-सी गहराई चाहते हैं तो निकल पड़िए, तमाम लोभ-मोह-अहम का आवरण उतारकर, ‘क्लास’ के नकली ‘सलमे-सितारे’ जो आपने अपने सीने से चिपका रखे हैं, उसे उतार फेंकिए, घुलिए-मिलिए-जुड़िए-जोड़िए, भूल जाइए कि लोग क्या कहेंगे, यदि आप स्नेह देंगे तो स्नेह पाएँगे, चंदन-सी शीतलता बाँटेंगें तो आपके जीवन का भी शाप-ताप कटेगा, बाँटने वाला ही सुखी रह सकता है, सिमटा-सिकुड़ा-आत्ममुग्ध एक दिन सूखकर ठूँठ हो जाएगा, हरा-भरा रहना है तो बाँटना सीखिए, सिमटना नहीं, फैलना सीखिए; जटिलता नहीं, सरलता अपनाइए, जो तथाकथित सभ्य समाज में बहुत कम देखने को मिलती है- हाँ, वह मिलेगी आपको भारत की यात्राओं में, नगरों-महानगरों से भी अधिक भारत के छोटे-मंझोले शहरों, गाँवों-कस्बों, कूलों-कछारों में। और याद रहे, यात्रा अपने पाँव चलना है, बाकी सब कदमताल है, देखना अपनी आँखों देखना है बाकी झलकन-उलझन-परसेप्शन है और बोलना हृदय का बोलना है, बाकी सब वाग्जाल है।

 

भारत के किसी नदी, किसी पहाड़, किसी शहर, किसी गाँव, किसी जंगल से गुजरते हुए आपके मन-मस्तिष्क में किसी पौराणिक संदर्भ या प्रेरणा-पुरुषों की स्मृतियाँ कौंध जाएँगीं, कुछ कहानियाँ मिल जाएँगीं, कहानियाँ केवल किताबों में थोड़ी होती हैं, हर नगर, हर डगर, हर बाग-बगीचा, हर चौक-चौराहा अपने भीतर ढ़ेरों कहानियाँ छुपाए हुए है और यक़ीन मानिए उन कहानियों में जीवन है, रवानगी है, ठहरे हुओं को चलाने और भटके हुओं को दिशा देने की ताक़त है। भारत की किसी पर्वत-शृंखला या चोटियों को देख-निहार कभी पहाड़ों का सीना चीर धरती पर गंगा उतार लाने वाले पौरुष-प्रतीक भागीरथ याद आएँगे तो कभी शाश्वत सत्य की खोज में सुख-सुविधाओं को ठोकर मार सत्य के शोधन के लिए निकले ध्यानस्थ भगवान बुद्ध तो कभी हिंसा एवं कलह से पीड़ित मानवता को त्राण देने के लिए त्याग और अहिंसा की प्रतिमूर्त्ति भगवान महावीर याद आएँगें तो कभी कहीं किसी अरण्य से गुजरते हुए पांडवों के पांडव बनने या अवधपति श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम बनने की व्यथा-कथा याद आएगी,..फिर उनकी कहानी-कहानी कहाँ रहती, आपके जीवन का हिस्सा हो जाती है, उनकी व्यथा केवल उनकी कहाँ रहती, आपकी हो जाती है, सरयू में डुबकी लगाकर प्राणप्यारी सीता के चिर वियोग में जल-समाधि लेते राम याद आते हैं तो यमुना का स्पर्श करते ही राधा-कृष्ण के आत्मिक प्रेम की सुध हो आती है, ग्वाल-बाल याद आते हैं, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर के चरण जहाँ-जहाँ पड़े वे पुण्य-तीर्थ याद आते हैं, यों कहिए कि संपूर्ण प्रकृति से ही एक गहरा रिश्ता, गहरा रागात्मक संबंध जुड़ जाता है और फिर ‘मैं’ की यात्रा ‘हम’ में रूपांतरित हो जाती है, फिर आप ‘खंड’ नहीं रहते ‘कुल’ का हिस्सा बन जाते हैं बल्कि ‘कुल’ हो जाते हैं, फिर आप ‘क्षण’ नहीं ‘अनंत’ को जीते और प्राप्त होते हैं।

 

स्पेस और स्मृतियों का गहरा रिश्ता होता है और इसीलिए भारत के किसी स्थान से गुजरते हुए, किसी पत्थर-पहाड़ को छूते हुए, किसी नदी में डुबकी लगाते हुए आप अनायास पवित्रता के एहसास से भर उठते हैं, अनंत का हिस्सा हो उठते हैं, फिर डगर-नगर तीर्थस्थल हो जाता है, कंकड़-कंकड़ शंकर हो उठता है, बूँद-बूँद गंगा-जल हो उठता है, सामान्य क्रिया-कलाप भी पुण्य बटोरने और बाँटने का जरिया बन जाता है! गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में ”किसी राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी और अभ्रभेदी क्यों न हो-वह अपने-आप में पूर्ण और समाप्त नहीं है, असली सौंदर्य तो उसके पार जाने में है।” इसलिए रुकिए नहीं, चलते रहिए। भारत के इस जीवन-मंत्र को सही मायने में चरितार्थ कीजिए…..चरैवेति-चरैवेति……….!

 

 

इन दिनों मेरा पश्चिम बंगाल प्रवास चल रहा है। यात्रा की शुरुआत सिल्लीगुड़ी से हुई। सिल्लीगुड़ी जीता-जगता शहर है। बिलकुल ज़िंदा शहर और लोग भी यहाँ के बड़े जिंदादिल हैं। इस बार की यात्रा में पिछले तीन-चार दिनों में मैंने एक सकारात्मक बदलाव पाया। अभिवादन में लोग आग्रहपूर्वक ”राम-राम” बोल रहे हैं। लगभग सभी। यह भारत की शक्ति है। लोगों के हृदय और विचारों में स्पंदन की तरह समाए नाम को कोई ताक़त मिटाना तो दूर, उसके प्रभाव तक को कम नहीं कर सकती।

 

इस यात्रा को अविस्मरणीय बनाने के लिए मेरे युवा साथी जितेंद्र, मोहित, ध्रुव, राहुल के साथ-साथ श्री संजय अग्रवाल जी, श्री सुनील अग्रवाल जी, सुराणा जी, श्री अशोक जी, डे साहब, अजीत जी जैसे तमाम अति प्रतिष्ठित एवं सम्मानित व्यक्तित्वों का भी हार्दिक आभार। आपके यहाँ होने मात्र से हमें घर से दूर अपनेपन और आत्मीयता का एहसास बना रहता है।

 

इस यात्रा के दौरान एक और रोमांचक अध्याय तब जुड़ गया जब मैंने पाया कि मैं जहाँ ठहरा था, उस होटल के रिसेप्शन में वहाँ के मैनेजर ‘#दैनिक_जागरण’ में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ रहे हैं। उनसे मुझे अख़बार की वह प्रति भी प्राप्त हुई, जो राजस्थान रहते नहीं मिल पाती है। और यह रोमांच तब और बढ़ गया जब आज #सिल्लीगुड़ी, में ख़ूब पढ़े जाने वाले अख़बार ‘#जनपथ_समाचार’ में प्रकाशित मेरे लेख पर सुबह-सुबह एक पार्क के बाहर स्थानीय लोग #चाय_की_चौपाल पर चर्चा कर रहे थे।

 

 

अब अगला पड़ाव इस्लामपुर, बायसी, दलकोला, किशनगंज, मालदा टाऊन आदि अनेक शहरों का होगा। शहर-शहर मिलता मित्रों-परिचितों, सहयोगियों का साथ-स्नेह और सहयोग इस यात्रा की सबसे बड़ी पूँजी, सबसे बड़ा संबल है।

 

Related Articles

Leave a Comment