Home राजनीति यूनान के ग्रीस हो जाने की तर्ज पर श्रीलंका का श्री-हीन होना

यूनान के ग्रीस हो जाने की तर्ज पर श्रीलंका का श्री-हीन होना

Awanish P. N. Sharma

by Awanish P. N. Sharma
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आज वामपंथी चीन के आशीर्वाद से श्रीलंका को दिवालिया होते हुए देख रहे हैं हम।… साल 2015 में इसी तरह ग्रीस दिवालिया हुआ था। ग्रीस और श्रीलंका के दिवालिया होने की वजहें वैचारिक स्तर पर मोटे तौर पर एक जैसी हैं, साथ ही भौतिक-राजनैतिक कारण अलग-अलग भी हैं। आज श्रीलंका… ग्रीस जैसी हालत में कैसे पहुँचा इसे अलग से जरूर देखा जाएगा, इस पर लिखा भी जाएगा लेकिन तब तक ग्रीस के दिवालिया होने के साल 2015 में लिखे इस आर्टिकल को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए।

ग्रीस में बाल काटने का काम, खतरे के काम करने (रिस्की) की श्रेणी में आता है।
यूनान (ग्रीस) के दिवालिया होने की खबर को हम केवल एक ‘घटना’ मानकर इससे सिर्फ इतना वाकिफ हैं कि ग्रीस कर्ज न चुका पाने के कारण दिवालिया हो रहा है। इससे अधिक जानने को न तो कोई इच्छुक है और न ही कोई मूल कारण जानना चाहता है। सच्चाई यह है कि इन दिनों यूनान में जो हो रहा है वह सोशलिज्म का ही विकृत हुआ रुप है। दुनिया में जहां भी हुक्मरानों ने अपने नागरिकों को राहत, सब्सिडी और रियायती रेट की खैरात बांटी है, वहां उसे हमेशा सामाजिक बदलाव के क्रांतिकारी रूप की मार झेलनी पड़ी है। यूनान के सोशलिस्ट व वामपंथी राजनीतिक दलों की एक दूसरे से वन-अप होने की होड़ और एक से बढ़कर एक रियायतों और पैकेज से लुभावन गुलदस्ते की स्पर्धा ने देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर रख दी।
ग्रीस संकट की मूल जड़ 1999 का भीषण भूकंप और उसके बाद हुए 2004 ओलिंपिक खेल में है। भूकंप में देश की 50 हजार इमारतें क्षतिग्रस्त हुईं और लोकप्रियता पाने के लिए सरकार ने अपने खर्च से इन्हें बनवाने की घोषणा कर दी।ओलिंपिक सिर्फ पांच साल दूर थे और सरकारी खजाना खाली। तब तत्कालीन सरकार ने यूरो जोन में जुड़ने पर आसानी से कर्ज मिलने की राह देखकर 2001 में इसमें शामिल होने का फैसला किया। ओलिंपिक खेलों के लिए मिले 12 अरब डॉलर के कर्ज की ‘लूट’ ने गड़बड़ियों का रेकॉर्ड तोड़ दिया। इसके बाद दशक तक यूरोपियन सेंट्रल बैंक (ECB) और इंटरनैशनल मॉनिटरी फंड (IMF) के पैकेजों से ग्रीस की इकॉनमी को मदद तो मिली लेकिन स्थिति बदतर होती रही।
ऐसे में भारतीय राजनीतिक पार्टियों की तरह लोकलुभावन वादे कर सत्ता में आई वामपंथी सिरिजा पार्टी ने बेलआउट और पैकेज की शर्तों को ठुकरा दिया और यहीं से समस्याओं का सैलाब आ गया।
एक ओर जहां सारी दुनिया वामपंथ से छुटकारा पाने का जश्न मना रही थी तो दूसरी ओर सिरिजा पार्टी ने देश में पैदा होने वालों को शाही जिंदगी का पासपोर्ट दे दिया। उसने देश में 57 साल का होने वाले हर नागरिक (वह निजी जॉब में हो या सरकारी) को सरकार की ओर से पेंशन देने का नियम बनाया। अगर कोई यूनानी देश के ‘खतरे’ भरे 450 जॉब करता है तो उसे यह सुविधाएं और पूरी पेंशन 50 वर्ष से ही मिलनी शुरु हो जाती है।
‘हेयरड्रेसर’ जैसे ‘खतरे भरे’ जॉब्स सहित इन कामों की सूची बहुत लंबी है जिसके कर्मियों को पेंशन के अलावा हेल्थकेयर (जिसमें बड़े से बड़े चिकित्सा और ऑपरेशन शामिल हैं), संपूर्ण शिक्षा, बेरोजगारी का भारी भरकम भत्ता, मुफ्त घर जैसी सुविधाएं भी जीवनभर तक मिलती हैं। ये सुविधाएं पाकर तो यूनानी भी दूसरे कई यूरोपीय देशों की राह पर चलते हुए पारिवारिक ‘झंझट’ से बचने लगे। उन्हें लगा कि जब सरकार ‘पालने से लेकर अर्थी’ तक का खयाल रख रही है तो क्यों परिवार पालने और बच्चे बड़े करने की जिम्मेदारी ली जाए! जब बदहाली की सचाई सामने आई है तब सरकारों को भान हुआ कि जब टैक्स देनेवाले ही नहीं होंगे तो सरकार की आय कहां से होगी? आलसी और काहिल बन चुके यूनानियों को मिल रही इस सब्सिडी और सरकारी मदद बनाए रखने की रट को मानने से यूरो जोन ने इंकार कर दिया और आज परिणाम सामने है।
वास्तव में तो इसके लिए समाजवाद का बदरंग टैग ही जिम्मेदार है जो दावा करता है कि -‘नागरिकों का हर ख्याल देश रखेगा’।
आज ग्रीस में जो हो रहा है वह आगे इसी तरह कई अन्य देशों में होने ही वाला है जो वैचारिक आदर्श और काम की हकीकत के फर्क को समझने में देर करेंगे। अपने नियंत्रण वाली मीडिया के माध्यम से ये देश चाहे जितना सही चेहरा दिखाएं लेकिन बाजार से अधिकाधिक कर्ज लेकर ये सभी बर्बादी के मुहाने पर खड़े हैं। वे कर्ज चुकाने के लिए बड़े कर्ज ले रहे हैं। उनकी कर्ज लेकर घी पीने की इस आदत से कई सारे कर्जदाता भी बदहाली में पहुंच चुके हैं।
कुल मिलाकर हाल यह है कि… किताबी समाजवादी और वामपंथी वैचारिक आदर्शों को जमीन पर उतारने के इस उदाहरण ने, आसमानी बातों और जमीन पर उसे करने के अंतर को शेष विश्व के सामने रख दिया है।
यह मौका है हम भारतीयों के लिए, जब हम इन स्थितियों का खुद से मिलान करें और सोचें कि खैरात की नीति या लेन-देन की राजनीति कहीं हमारे कर्मशील हाथों को भी ग्रीस की जनता में तो नहीं बदल रही। संतोष होना चाहिए कि वर्तमान भारत सरकार की नीतियां ‘खैरात सबके लिए’ कि बजाय ‘मदत जरूरतमन्दों को’ के सिद्धान्त पर चलती दिख रही है।

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