जैसे धीरज के पी.सी.एस. होने पर बांसगांव झूम गया था, अख़बारों में ख़बर छपी थी, वैसा कुछ रमेश के एच.जे.एस. होने पर तो नहीं हुआ पर मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट ज़रूर मुनक्का राय के घर आए।
देने। रमेश से वह ‘सर-सर’ कर के मिले और बोले, ‘क्या पता सर कभी आप के साथ काम करने का मौक़ा मिले हमें भी।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ रमेश भी उन से पानी की तरह मिला। भाइयों को जब पता चला तो सब ने फ़ोन कर के रमेश को
दी। विनीता ने भी थाईलैंड से फ़ोन किया। भाई सब बाद में बांसगांव भी आए। फिर रमेश ने एक दिन पत्नी से कहा कि ‘चलो अब गोला चलें।’
लेकिन दिल्ली थी कि दूर होती जा रही थी। ट्रेनिंग में बुलावे का इंतज़ार लंबा होता जा रहा था। माली हालत निरंतर बिगड़ती जा रही थी। जज होने का उल्लास पैसे के अभाव में टूटता जा रहा था। ख़ैर, कुछ महीने बाद ट्रेनिंग का लेटर आ गया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग भी हो गई। रमेश गया गोला परिवार और सामान लेने। गाढ़े समय में सब को मदद के लिए धन्यवाद दिया। पत्नी के स्कूल वाले चाहते थे कि वह उस के स्कूल भी आ जाए। वह गया भी। एक छोटा मोटा
समारोह हो गया। उस ने अपने संबोधन में अपनी सफलता के लिए इस स्कूल का योगदान रेखांकित किया। कहा कि, ‘मेरी प्रैक्टिस तो कुछ ख़ास चलती नहीं थी। बाद के दिनों में तो मैं ने कचहरी जाना तक बंद कर दिया था। तो इस स्कूल में मेरी पत्नी की नौकरी से ही हमारी गृहस्थी, हमारी रोटी दाल चली। इस स्कूल के कारण ही हम सीना तान कर जी पाए। और यहां तक पहुंच पाए। इस स्कूल को मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा। आप लोग जब भी, जैसे भी याद करेंगे, बुलाएंगे मैं हमेशा-हमेशा आप के पास आऊंगा, आप के साथ रहूंगा।’ बोलते समय उस ने मंच पर बैठी पत्नी की ओर कनखियों से देखा, उस की आंख डबडबा आई थी। शायद मारे ख़ुशी के। स्कूल से चलते समय पत्नी ने प्रिंसिपल को इस्तीफ़ा सौंप दिया था।