Home नया #लोकवृत्ति_लोकप्रचलन प्लेटो!
सुकरात का शिष्य और विश्वप्रसिद्ध सिकंदर के गुरु अरस्तू का गुरु जिसकी लिखी ‘रिपब्लिक’ जो साम्यवादियों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को प्रेरणा देती है।
एक महान दार्शनिक।
पर जरा रुकिये, वह दासप्रथा के समर्थक भी थे। उनका कहना था कि दासों के बिना सिस्टम काम कैसे कर पायेगा।
अब आप ‘रिपब्लिक’ का मूल्यांकन उनके दासप्रथा संबंधी विचार से करेंगे?
क्या रिपब्लिक को सिर्फ इसलिए जलाया जाए कि प्लेटो ने दासप्रथा का समर्थन किया?
नहीं हम उसे अतीत की घृणास्पद बुराई और वर्तमान में अप्रासंगिक मानकर रिपब्लिक को पढ़ते हैं।
‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’
कवि भूत और भविष्य को अपनी रचनाओं में वर्तमान की मान्यताओं से देखता है।
बिना किसी किंतु, परंतु को मैं मानता हूँ कि ताड़ना का अर्थ वही है, जो है और उस युग में प्रचलित था।
प्रश्न इसलिये खड़े हो रहे हैं कि हिंदू समाज के एक बड़े वर्ग में यह धारणा अभी भी है और इसके मूल में है जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावाद।
जबतक यह भावना रहेगी जन्मनाजातिगतहीनतावाद भी रहेगा।
वे इन चौपाइयों पर प्रश्न उठाते रहेंगे और ऐसे लोग सफाई देते रहेंगे।
शब्द, चौपाइयां, अर्थ बदलने से कुछ न होगा, पूरे पुराणादि ऐसे शब्दों श्लोकों से भरे पड़े हैं।
कुरान में मूर्तिपूजकों के विरुद्ध लिखी गयी घृणात्मक आयतों के प्रति रोष इसलिये नहीं है कि मुहम्मद ने उस युग में ऐसा क्यों लिखा बल्कि इसलिए है कि मुस्लिम आज भी मूर्तिपूजकों के प्रति घृणा रखते हैं।
चौपाई, श्लोक, ऋचा, सूक्त हटाने की अंतहीन मांग करना और उसे मानना निरी मूढ़ता और तत्कालीन समाज की वृत्ति के इतिहास के स्रोत को नष्ट करना भर है।
मानस एक धार्मिक सामाजिक ग्रंथ है न कि ऐतिहासिक इसलिये तुलसीदास जी ने भी समाज की प्रवृत्तियों को रेखांकित भर किया है। उनके निजी जीवन में उन पंक्तियों में लिखी भावना रंच मात्र भी नहीं थी।
अगर आलोचना ही करनी है तो तत्कालीन सामाजिक वृत्ति की की जानी चाहिए।
बदलना है तो मूल वृत्ति बदलें ऊपर वाले भी और नीचे वाले भी जिसके बाद ये चौपाइयां केवल शाब्दिक पंक्तियां रह जाएंगी और शेष रह जाएंगे केवल —-“#राम
दोंनों ओर के सामाजिक विखंडनवादी लोगों को डर तुलसी से नहीं ‘राम’ से लगता है जो सबको जोड़ते हैं इसीलिये ‘राम’ सबके निशाने पर हैं।
करपात्रीजी जैसे जन्मनाजातिवादी लोग ‘राम की मूर्ति’ को शास्त्रों की दीवारों में कैद करते हैं और स्वामीप्रसाद मौर्य जैसे लोग ‘राम की मूर्ति’ को तोड़ना चाहते हैं
तुलसी तो अपने राम की मूर्ति को अंक में भरे दोंनों ओर के लोगों के पत्थर खाने पर विवश हैं, तब भी और आज भी।

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