Home विषयजाति धर्म वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 37
उधर गंगा-तट पर जब श्रीराम जब नाव में बैठे, तो गुह और सुमन्त्र बहुत देर तक किनारे पर खड़े होकर उन्हें देखते रहे। जब नाव गंगा को पारकर दक्षिणी तट पर उतर गई, तो सुमन्त्र को लेकर निषादराज गुह अपने घर लौट गए, किन्तु गुह के गुप्तचर चुपचाप छिपते-छिपाते हुए श्रीराम, लक्ष्मण व सीता के पीछे-पीछे चित्रकूट तक गए। वहाँ से श्रृंगवेरपुर लौटकर उन्होंने गुह को श्रीराम के प्रयाग में भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाने और फिर वहाँ से चित्रकूट पर्वत पर पहुँचने तक का पूरा वृत्तान्त सुनाया।
सुमन्त्र जी इतने दिनों तक गुह के घर में इस आशा से ठहरे हुए थे कि शायद श्रीराम फिर उन्हें बुला लें। लेकिन जब गुह के गुप्तचरों से जानकारी दी कि श्रीराम ने अब चित्रकूट पर्वत पर ही अपने निवास के लिए कुटिया बनवा ली है, तो अब उनकी आशा समाप्त हो गई। अतः वे गुह से विदा लेकर अयोध्या लौट आए।
श्रृंगवेरपुर से निकलकर दूसरे दिन शाम को सुमन्त्र अयोध्या पहुँचे। उस समय सारी अयोध्यापुरी नीरव तथा उदास थी। जैसे ही उन्होंने नगर के द्वार से भीतर प्रवेश किया, उन्हें देखते ही सैकड़ों नागरिक उनकी ओर दौड़े चले आए तथा श्रीराम के बारे में पूछने लगे।
सुमन्त्र ने उन्हें बताया, “सज्जनों! मैं गंगाजी के किनारे तक श्रीराम के साथ गया था। वहाँ से उन्होंने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी और वे तीनों गंगा के उस पार चले गए हैं।” यह सुनकर वे सब लोग शोक से आँसू बहाने लगे।
राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढँक लिया और वे उस भवन की ओर बढ़े, जहाँ राजा दशरथ थे। राजमहल के निकट पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर गए और सात ड्योढ़ियों को पार कर आठवीं ड्योढ़ी में उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि राजा दशरथ पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर बैठे हैं।
सुमन्त्र जी ने उन्हें प्रणाम किया और रामचन्द्रजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। वह सब सुनकर महाराज का हृदय द्रवित हो उठा। अत्यंत शोक से पीड़ित होकर वे मूर्च्छित हो गए। महाराज की यह दशा देखकर अन्तःपुर में भीषण शोक व्याप्त हो गया।
कौसल्या ने सुमित्रा की सहायता से अपने मूर्च्छित पति को उठाया और फिर वे दशरथ जी से बोलीं, “महाभाग! ये सुमन्त्र जी श्रीराम का सन्देश लेकर वन से लौटे हैं। आप उनसे बात क्यों नहीं करते? अपने पुत्र को इस प्रकार वनवास देना अन्याय है। वह अन्याय करके अब आप लज्जित क्यों हो रहे हैं? यदि आप इस प्रकार शोक करेंगे, तो आपके सभी सहायक भी इस शोक में आपके साथ ही नष्ट हो जाएँगे। जिसके भय से आप श्रीराम का समाचार सुमन्त्र से नहीं पूछ रहे हैं, वह कैकेयी अभी यहाँ नहीं है, अतः आप निर्भय होकर बात कीजिए।” यह कहते-कहते कौसल्या का गला भर आया और वे शोक से व्याकुल हो गईं।
कुछ समय बाद महाराज दशरथ का चित्त शांत हुआ, तब उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त जानने के लिए पुनः सुमन्त्र को बुलवाया। सुमन्त्र के आने पर महाराज ने देखा कि उस सारथी का सारा शरीर धूल से लथपथ हो गया है। वह दीन-भाव से सामने खड़ा है और उसके मुख पर आँसूओं की धारा बह रही है।
राजा ने अत्यंत आर्त होकर सुमन्त्र से पूछा, “सूत! मेरा लाड़ला राम वन में कहाँ निवास करेगा? क्या खाएगा? वह अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोता होगा? जहाँ अजगर, बाघ, सिंह आदि हिंसक जीव रहते हैं, भयंकर काले सर्प जहाँ निवास करते हैं, उस भीषण वन में मेरे दोनों राजकुमार और सुकोमल सीता कैसे रहेंगे? वे लोग रथ से उतरकर पैदल कैसे गए होंगे? तुम मुझे श्रीराम के बैठने, सोने, खाने-पीने आदि की सभी बातें बताओ। वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने क्या कहा? सीता ने क्या सन्देश दिया? तुम मुझे सब बताओ।”
यह सुनकर सुमन्त्र जी शोकपूर्ण वाणी में बोले, “महाराज! श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर आपको व अंतःपुर की सभी माताओं को अपना प्रणाम कहा है। इसके बाद उन्होंने माता कौसल्या के लिए सन्देश दिया है कि ‘मैं यहाँ सकुशल हूँ और धर्म का पालन सावधानी से कर रहा हूँ। माँ! तुम भी सदा धर्म में तत्पर रहना। मेरी अन्य सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना। जिस कैकेयी के प्रति राजा के मन में अनुराग है, उसका भी सम्मान करना। भरत के प्रति भी राजोचित बर्ताव करना क्योंकि राजा कम आयु का हो, किन्तु फिर भी वह आदरणीय होता है। इस राजधर्म को याद रखना।’”
“फिर उन्होंने भरत के लिए यह सन्देश दिया है कि ‘सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करना और युवराजपद पर अभिषिक्त हो जाने के बाद भी पिताजी की रक्षा एवं सेवा करते रहना। राजा बूढ़े हो गए हैं, ऐसा सोचकर उनका विरोध मत करना और न उन्हें राजसिंहासन से हटाना।’ फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए भरत को यह भी सन्देश दिया है कि ‘भरत! तुम मेरी माता को भी अपनी ही माता के समान समझना।’”
“महाराज! इतना कहकर महाबाहु श्रीराम अत्यंत दुःखी हो गए और उनके नेत्रों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। उस समय अत्यंत कुपित होकर लक्ष्मण मुझसे बोले, ‘सुमन्त्र जी! किस अपराध के कारण महाराज ने राजकुमार श्रीराम को इस प्रकार देशनिकाला दिया? उन्होंने कैकेयी का आदेश सुनकर तुरंत ही उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। वह कार्य उचित हो या अनुचित, किन्तु उसके कारण अब हम लोगों को कष्ट भोगना पड़ रहा है।’”
“चाहे राजा ने अपने स्वेच्छाचारी आचरण के कारण श्रीराम को वनवास दिया हो या ईश्वरीय प्रेरणा से दिया हो, किन्तु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाई देता है। महाराज ने बुद्धि की कमी के कारण या अपनी तुच्छता के कारण उचित-अनुचित का विचार किये बिना ही श्रीराम को वनवास दे दिया है, अतः इससे अवश्य ही उन्हें निन्दा और दुःख ही प्राप्त होगा। मुझे अब उनमें पिता का भाव नहीं दिखाई दे रहा है। मेरे लिए तो अब श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी और पिता हैं।”
सुमन्त्र ने दशरथ जी से आगे कहा, “महाराज! जनकनन्दिनी सीता तो इस प्रकार मौन खड़ी थीं, मानो उनकी सुध-बुध ही खो गई है। उन्होंने ऐसा संकट जीवन में कभी नहीं देखा था। पति के दुःख से दुःखी होकर वे केवल रोती ही रहीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। जब वे लोग मुझसे विदा लेने लगे, तो श्रीराम मेरी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर खड़े थे और उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। सीता भी रोती हुई कभी मेरे रथ की ओर देखती थी और कभी मेरी ओर।”
यह सब सुनकर राजा दशरथ पुनः शोक से आँसू बहाने लगे। उन्होंने कहा, “सूत! उस पापिणी कैकेयी की बातों में आकर मैंने वृद्धजनों, सुहृदों, मंत्रियों, वेदवेत्ताओं आदि से सलाह लिए बिना केवल स्त्री के मोहवश सहसा यह अनर्थ कर डाला है। निश्चय ही इस कुल का विनाश करने के लिए ही यह विपत्ति अकस्मात आ पहुँची है।”
“सुमन्त्र! यदि मैंने कभी तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया हो, तो तुम मुझे शीघ्र ही राम के पास पहुँचा दो। यदि इस राज्य में अभी भी मेरी आज्ञा चलती हो, तो तुरंत ही वन जाकर तुम श्रीराम को अयोध्या लौटा लाओ। यदि उनका दर्शन नहीं हुआ, तो अवश्य ही मेरे प्राण निकल जाएँगे।” ऐसा कहते-कहते वे शोक में डूब गए और राम, लक्ष्मण व सीता को पुकारते हुए पुनः बेहोश हो गए।
उनकी यह अवस्था देखकर रानी कौसल्या अत्यंत भयभीत हो गईं। वे भी सुमन्त्र से कहने लगीं, ‘जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। मुझे दण्डकारण्य में ले चलो। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती।’
तब उन्हें समझाने के लिए सुमन्त्र जी ने ये युक्तिसंगत वचन कहे, “महारानी! यह शोक और मोह छोड़िए। श्रीराम जी इस समय सारा शोक भूलकर वन में शान्तिपूर्वक निवास कर रहे हैं। लक्ष्मण भी उनकी सेवा करते हुए अपना परलोक बना रहे हैं तथा सीता भी उनके सानिध्य में अत्यंत प्रसन्न हैं। वन में रहने का उन तीनों के मन में कोई दुःख नहीं है। श्रीराम के होते हुए उन्हें सिंह, बाघ या किसी भी जीव का कोई भय नहीं है। अतः आप श्रीराम, सीता या लक्ष्मण के लिए शोक व चिन्ता न करें।”
यह सब सुनकर भी रानी कौसल्या को कोई सांत्वना नहीं मिली। वे अब दुःखी होकर अपने पति से कहने लगीं, “महाराज! यद्यपि सब लोग आपको महान कहकर आपका गुणगान करते हैं, किन्तु आपने इस बात का विचार तक नहीं किया कि आपके वे दोनों पुत्र वन में कैसे रहेंगे, वह सुकुमारी तरुणी सीता वन के दुःख कैसे सहेगी, वे लोग जंगल में तिन्नी के चावल का सूखा भात कैसे खाएँगे?”
Chitrakoot Paravat

Chitrakoot Paravat

“आपने बड़ा निर्दयतापूर्ण कृत्य किया है और कैकेयी के कहने भर से बिना सोचे-समझे उन्हें वनवास भोगने पर विवश कर दिया है। अब यदि पन्द्रहवें वर्ष में श्रीराम वन से लौट आएँ, तो भी मुझे ऐसी संभावना नहीं लगती कि भरत उनके लिए राज्य और खजाना छोड़ देंगे। यह भी संभव नहीं लगता कि ज्येष्ठ और श्रेष्ठ होकर भी राज्य से वंचित किए गए श्रीराम अपने छोटे भाई के भोगे हुए राज्य को ग्रहण कर लेंगे।”
“इस संसार में पति, पुत्र या पिता और भाइयों के अतिरिक्त स्त्री का कोई अपना नहीं है। इनमें से आप तो मेरे हुए ही नहीं क्योंकि आप सदा मेरी सौत के अधीन ही रहे। जो पुत्र मेरा था, उसे आपने वन में भेज दिया और मेरे पिता व भाई आदि तो बहुत दूर हैं, अतः अब इस संसार में कोई भी नहीं बचा है। श्रीराम को वन में भेजकर आपने सबका अहित ही किया है। केवल आपका पुत्र भरत और पत्नी कैकेयी ही इससे प्रसन्न हुए हैं।”
रानी के इन कठोर वचनों को सुनकर राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ। सहसा उन्हें अपने एक पुराने कृत्य का स्मरण हो आया और वे थर-थर काँपने लगे। उन्होंने शोकमग्न होकर कहा, “कौसल्ये!! मैं दोनों हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ। तुम ऐसे कठोर वचन न कहो क्योंकि इस समय मैं भी तुम्हारे ही समान भीषण दुःख में पड़ा हूँ।”
यह सुनकर कौसल्या को पश्चाताप हुआ। उन्होंने कहा, “महाराज! शोक में धैर्य नष्ट हो जाता है। राम के वियोग की पीड़ा के कारण मेरे मुख से ऐसी बातें निकल गईं हैं। इसके लिए आप मुझे क्षमा करें।” तब जाकर महाराज का चित्त कुछ स्थिर हुआ और उन्हें नींद आ गई।
अगला दिन भी इसी प्रकार दुःख में ही बीता। आधी रात के लगभग पुनः महाराज को अपना वही पुराना कृत्य याद आने लगा। तब उन्होंने कौसल्या से कहा, “कल्याणी! मनुष्य को अपने शुभ या अशुभ कर्म के अनुसार ही फल भोगना पड़ता है। एक बार मैंने भी एक पापकर्म किया था, आज मैं उसी का फल भोग रहा हूँ।”
“बहुत समय पहले अपने पिता के जीवनकाल में मेरी ख्याति शब्दभेदी बाण चलाने की थी। लोगों से मिलने वाली प्रशंसा के कारण मुझे इसका बड़ा अहंकार था। एक बार मैं शिकार के लिए वन में गया। तब आधी रात को जलाशय में पानी का स्वर सुनकर मैंने पशु समझकर एक शब्दभेदी बाण चला दिया, किन्तु वह एक निरपराध वनवासी पुरुष को जाकर लगा और कुछ समय बाद ही उसने प्राण त्याग दिए।”
“जब मैं उसके माता-पिता से क्षमा माँगने पहुँचा, तब पुत्र-शोक में क्रोधित होकर उन्होंने मुझे शाप दिया था कि ‘अपने पुत्र के वियोग से जैसा कष्ट हमें हो रहा है, ऐसा ही एक दिन तुम्हें भी होगा। आज हम पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी पुत्र-शोक से ही अपने प्राण गँवाओगे।’”
“रानी! आज पुत्र-वियोग के कारण सहसा ही इतने वर्षों बाद मुझे उस घटना का स्मरण हो आया है। अब मुझे कोई संदेह नहीं है कि मेरे उसी पाप-कर्म का फल अब मुझे भुगतना पड़ रहा है।”
ऐसा कहते-कहते अचानक दशरथ जी कहने लगे, “कौसल्ये! अब मेरी आँखें तुम्हें नहीं देख पा रही हैं। मेरी स्मरण-शक्ति भी लुप्त होती जा रही है। अरे! वह देखो! यमराज के दूत मुझे यहाँ से ले जाने को उतावले हो रहे हैं। मेरे हृदय विदीर्ण हो रहा है। मेरी सारी इन्द्रियाँ नष्ट हो रही हैं। हा क्रूर कैकेयी! ले अब तेरी कुटिल इच्छा पूर्ण हुई। इससे बड़ा दुःख क्या होगा कि मैं अपने अंतिम क्षण में भी अपने उस धर्मज्ञ पुत्र का दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। हा राम! मैंने कैसा दुर्भाग्यशाली हूँ कि तेरे जैसे सदाचारी पुत्र को मैंने वन में भेज दिया।”
ऐसे दीनतापूर्ण वचन कहते-कहते अपने प्रिय पुत्र के वनवास से शोकाकुल महाराज दशरथ ने पुत्र के वियोग में आधी रात बीतते-बीतते प्राण त्याग दिए। वह श्रीराम के वनवास की छठीं रात थी।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

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