Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 40
भरत के पूछने पर कैकेयी ने कहा, “बेटा! राजकुमार राम वल्कल-वस्त्र पहनकर दण्डकवन में चले गए और लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया।”
यह सुनकर भरत डर गए कि कहीं श्रीराम ने कोई अपराध तो नहीं किया था। उन्होंने पूछा, “माँ! श्रीराम ने किसी का धन तो नहीं छीन लिया? किसी निष्पाप की हत्या तो नहीं कर दी? उनका मन किसी परायी स्त्री की ओर तो नहीं चला गया? किस अपराध के कारण उन्हें दण्डकारण्य में जाने के लिए निर्वासित किया गया है?”
तब कैकेयी ने अपनी करतूत बताई। वह बहुत गर्व से कहने लगी, “बेटा! श्रीराम ने ऐसा कोई भी अपराध नहीं किया है। अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला था। तब मैंने तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए राज्य और राम के लिए वनवास माँग लिया। अपने सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के कारण तुम्हारे पिता ने भी मेरी माँग पूरी की। राम, लक्ष्मण और सीता को वन में भेज दिया गया, किन्तु अपने प्रिय पुत्र के वियोग में महाराज ने भी प्राण त्याग दिए।”
“बेटा! मैंने सब तुम्हारे लिए ही किया है। अतः अब तुम शोक न करो और निष्कण्टक होकर इस राज्य का शासन चलाओ। महाराज का अन्त्येष्टि संस्कार करके तुम राजपद स्वीकार करो।”
यह सुनकर भरत दुःख से संतप्त होकर कहने लगे, “हाय! तूने मुझे मार डाला। मेरे पिताजी चले गए और मैं अपने पिता समान बड़े भाई से भी बिछड़ गया। अब राज्य लेकर मुझे क्या करना है? पिता के प्राण लेकर तूने मुझे घाव दिया और फिर श्रीराम को वन में भेजकर उस घाव पर नमक भी छिड़क दिया।”
“कुलकलङ्किणी! तू इस कुल का विनाश करने के लिए ही आई थी। मेरे यशस्वी पिताजी तेरे कारण ही दिवंगत हो गए, मेरे बड़े भाई श्रीराम को भी तूने ही घर से निकाल दिया और मेरी माताओं कौसल्या व सुमित्रा को भी तेरे कारण ही पुत्रशोक सहना पड़ा। तू नहीं जानती कि श्रीराम के प्रति मेरे मन में कैसा भाव है। तूने राज्य पाने के लालच में अनर्थ कर डाला है।”
“जो राजकुमार सबसे बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक किया जाता है। तूने मुझे ऐसी विपत्ति में डाल दिया है, जो मेरे प्राण भी ले सकती है। मैं तेरी यह इच्छा कभी पूर्ण नहीं करूँगा। मैं वन में जाकर मेरे निष्पाप भाई श्रीराम को पुनः अयोध्या लौटा लाऊँगा और उनका दास बनकर जीवन व्यतीत करूँगा।”
भरत जी क्रोध में बहुत देर तक कैकेयी से ऐसी अनेक बातें कहते रहे और अत्यंत शोक के कारण मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े।
होश में आने पर उन्होंने मंत्रियों को बुलवाया और उनसे कहा, “मंत्रिवरों! मैं राज्य नहीं चाहता और न मैंने अपनी माता से कभी इसके लिए कोई बात की थी। मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि महाराज ने श्रीराम के राज्याभिषेक का निश्चय किया था क्योंकि उस समय तो मैं शत्रुघ्न के साथ दूर देश में था। मुझे यह भी पता नहीं था कि श्रीराम को वनवास दे दिया गया है और सीता व लक्ष्मण भी उनके साथ ही निर्वासित हो गए हैं।”
भरत जब मंत्रियों से इस प्रकार की बातें कह रहे थे, तो कौसल्या ने उनकी आवाज सुन ली और वे सुमित्रा से बोलीं, “क्रूरकर्मा कैकेयी के पुत्र भरत आ गए हैं। वे बड़े दूरदर्शी हैं, अतः मैं उन्हें देखना चाहती हूँ।” ऐसा कहकर वे उस ओर जाने लगीं।
भरत को देखते ही कौसल्या शोक से व्याकुल हो गईं और अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ीं। तब भरत और शत्रुघ्न दोनों उनकी ओर दौड़े और उनकी गोदी में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे। यह देखकर कौसल्या भी दुःख से रो पड़ीं और बोलीं, “भरत! तुम राज्य चाहते थे न? लो यह निष्कण्टक राज्य अब तुम्हें प्राप्त हो गया है। खेद है कि कैकेयी ने अत्यंत क्रूर कर्म के द्वारा इसे पाया है। अब कैकेयी से कहो कि मुझे भी वहीं भेज दे जहाँ मेरा पुत्र राम है अथवा तुम ही मुझे वहाँ पहुँचा दो। यह राज्य कैकेयी ने राम से ही छीनकर तुम्हें दिलवाया है। तुम अब सुख से इसका उपभोग करो।”
ऐसी कठोर बातें सुनकर भरत के हृदय में भारी पीड़ा हुई। वे कौसल्या के चरणों में गिर पड़े और घबराकर कहने लगे कि ‘माँ! यहाँ जो कुछ हुआ, उसकी मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं थी। मैं निरपराध हूँ। आप तो जानती हैं कि श्रीराम से मेरा कितना घनिष्ठ प्रेम था, फिर आप मुझ पर संदेह करके मुझे क्यों दोष दे रही हैं?”
“जिसकी अनुमति से श्रीराम वन में गए हों, उस पापी की बुद्धि नष्ट हो जाए। जिसकी सलाह से उन्हें वनवास हुआ, वह अत्यंत पापियों का सेवक बने, वह अधर्म का भागी हो, पूरा संसार उसकी निंदा करे, वह सबके द्वेष का पात्र बने, वह कभी अपनी संतान का मुँह न देख पाए और वह अपनी आयु पूरी किए बिना ही मर जाए, वह दरिद्र हो जाए।”
इस प्रकार की अनेक बातें कहकर भरत कौसल्या को यह विश्वास दिलाने लगे कि श्रीराम के वनवास में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। यह सब सुनकर कौसल्या ने भरत को गले से लगा लिया और वे दोनों फूट-फूटकर रोने लगे। इस प्रकार उन सबकी वह रात भी शोक में ही बीती।
प्रातःकाल वसिष्ठ जी ने भरत को समझाया कि “यह शोक छोड़ो क्योंकि इससे कुछ होने वाला नहीं है। अब तुम राजा दशरथ के शव को दाह-संस्कार के लिए ले चलने का प्रबंध करो।”
उनके आदेश पर भरत ने मंत्रियों से कहकर अपने पिता के अंतिम संस्कार का प्रबन्ध करवाया। राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाह से निकालकर भूमि पर रखा गया। इतने दिनों तक तेल में पड़े रहने से उनका मुख कुछ पीला पड़ गया था।
मृत राजा के शव को धो-पोंछकर अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित शय्या पर रखा गया। अपने पिता को इस प्रकार देखकर भरत अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे – “राजन्! मैं परदेश में था और आप तक पहुँच भी न पाया, उससे पहले ही श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेजकर आप स्वर्ग में कैसे चले गए? आपके बिना इस राज्य का पालन अब कौन करेगा?”
भरत को विलाप करता देख महर्षि वसिष्ठ ने पुनः कहा, “महाराज के अंतिम-संस्कार के सभी कर्तव्य शान्त मन से पूरे करो।” यह सुनकर भरत ने पुरोहितों, ऋत्विकों और आचार्यों को जल्दी यह कार्य करने को कहा।
तब राजा की अग्निशाला से अग्नि लाई गई और ऋत्विजों व याजकों ने विधिपूर्वक उससे हवन किया। महाराज के मृत शरीर को पालकी में बिठाकर परिचारक उन्हें श्मशानभूमि की ओर ले गए। उस समय आँसुओं से सबका गला रुंध गया था और चारों ओर शोक फैल गया था। मार्ग में राजकीय पुरुष राजा के शव के आगे-आगे सोने, चाँदी तथा अनेक प्रकार के वस्त्र लुटाते हुए चल रहे थे।
श्मशानभूमि में चिता तैयार की जाने लगी। चंदन, अगर, गुग्गुल, सरल, पद्मक और देवदार आदि की लकड़ियाँ लाकर चिता में डाली गईं। कुछ सुगन्धित पदार्थ भी डाले गए। अग्नि में आहुति देकर ऋत्विजों ने वेद-मन्त्रों का जप किया और सामगान करने वाले विद्वान शास्त्रीय पद्धति के अनुसार सामवेद की श्रुतियों का गायन करने लगे। इसके बाद चिता में आग लगाई गई।
उसी समय सब रानियाँ बूढ़े रक्षकों से घिरी हुई पालकियों और रथों पर आरूढ़ होकर श्मशानभूमि में आईं और शोक संतप्त होकर राजा दशरथ के शव की परिक्रमा करने लगीं। उनका आर्तनाद सभी दिशाओं में गूँज उठा। दाह-कर्म के पश्चात वे सब रोती हुईं ही अपने वाहनों पर सवार होकर सरयू के तट पर पहुँची। भरत के साथ सभी रानियों, मंत्रियों व पुरोहितों ने राजा के लिए जलाञ्जलि दी। फिर सब लोग आँसू बहाते हुए नगर में वापस लौटे।
दस दिनों तक शोक की अवधि में सबने भूमि पर शयन किया। ग्यारहवें दिन भरत ने आत्मशुद्धि के लिए स्नान किया और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया। बारहवें दिन उन्होंने अन्य श्राद्ध-कर्म किए। तेरहवें दिन वे अपने पिता के चिता-स्थान पर अस्थि-संचय के लिए गए। चिता का वह स्थान भस्म से भरा हुआ था। दाह के कारण वह कुछ-कुछ लाल दिखाई दे रहा था। पिता की जली हुई हड्डियाँ वहाँ बिखरी हुई थीं। पिता के शरीर का वह निर्वाण-स्थान को देखकर भरत अत्यंत शोकाकुल होकर विलाप करने लगे।
भरत का शोक देखकर शत्रुघ्न भी शोक में डूब गए। तब सारे मंत्री उन्हें सांत्वना देने पहुँचे।
वसिष्ठ जी ने भरत को उठाकर समझाया कि भूख-प्यास, शोक-मोह, जरा-मृत्यु ये सभी प्राणियों में होते हैं। इन्हें रोकना असंभव है। अतः इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए।”
तत्वज्ञ सुमन्त्र जी ने भी शत्रुघ्न को संभाला और जन्म-मरण की अनिवार्यता का स्मरण दिलाकर उनके मन को शांत किया।
तब दोनों भाइयों अपने आँसू पोंछकर शेष कर्म को पूर्ण करने लगे। रो-रोकर उनकी आँखें लाल हो गई थीं और शोक से उनका हृदय विदीर्ण हो गया था।
तेरहवें दिन का यह कार्य पूर्ण करके लौटने पर भरत ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा, “भाई! यह कितने खेद की बात है कि सर्वगुणसंपन्न श्रीराम को इस प्रकार वन में भेज दिया गया। तब पराक्रमी लक्ष्मण ने श्रीराम को इस संकट से क्यों नहीं छुड़ाया? जब राजा एक नारी के वश में होकर गलत मार्ग पर बढ़ रहे थे, तब न्याय-अन्याय का विचार करके उन्हें पहले ही कैद कर लेना चाहिए था।”
भरत और शत्रुघ्न इस प्रकार क्रोध में बातें कर रहे थे कि तभी मंथरा वहाँ आ पहुँची। उसके शरीर पर उत्तम चंदन का लेप लगा हुआ था और उसने राजरानियों के पहनने योग्य अनेक आभूषण धारण किए हुए थे। उसकी विचित्र लड़ियों वाली करधनी तथा अनेक आभूषणों के कारण वह बहुत-सी रस्सियों में बँधी हुई वानरी जैसी लग रही थी।
राजभवन के पूर्वी द्वार पर उसे देखते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और निर्दयता से घसीटता हुआ शत्रुघ्न के पास लाकर बोला, “राजकुमार! यह कुब्जा ही सब बुराइयों की जड़ है। इसी के कारण श्रीराम को वनवास हुआ और आपके पिता की मृत्यु हुई। अब आप इसके साथ जैसा उचित समझें, वैसा बर्ताव करें।”
तब शत्रुघ्न क्रोध में आकर उसे बलपूर्वक पकड़कर जमीन पर घसीटते हुए ले जाने लगे। वह जोर-जोर से चीत्कार करने लगी व उसके आभूषण टूट-टूटकर इधर-उधर बिखरने लगे। अन्य सारी दासियाँ भय के कारण भाग गईं।
उसी समय उसे छुड़ाने के लिए कैकयी वहाँ आई। क्रोधित शत्रुघ्न अब उसे देखकर भी अनेक कठोर वचन कहने लगे। इससे भयभीत होकर कैकेयी अपने पुत्र भरत की शरण में भागी।
शत्रुघ्न को क्रोध में भरा हुआ देखकर भरत ने कहा, “सुमित्राकुमार! क्षमा करो। स्त्रियाँ सभी के लिए अवध्य होती हैं, अन्यथा मैं स्वयं ही इस पापिणी कैकेयी को मार डालता। यदि हम ऐसा कुछ करेंगे, तो श्रीराम सदा के लिए हमसे बात करना बंद कर देंगे और मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करेंगे।”
यह सुनकर शत्रुघ्न ने मंथरा को छोड़ दिया। वह कैकेयी के चरणों में गिर गई और दुःख से आर्त होकर विलाप करने लगी।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

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