श्रीराम व लक्ष्मण को साथ ले महर्षि विश्वामित्र ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। मुनिवर के साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं।
बहुत दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद सूर्यास्त के समय उन सबने शोणभद्र (सोन नदी) के तट पर पड़ाव डाला। सूर्यास्त के बाद सभी ने स्नान करके अग्निहोत्र का कार्य पूर्ण किया। उसके बाद राम-लक्ष्मण सहित वे सभी ऋषि-मुनि महर्षि विश्वामित्र जी के सामने बैठ गए।
तब महर्षि विश्वामित्र ने यह कथा सुनाई – “पूर्वकाल में कुश नामक एक महातपस्वी राजा थे। विदर्भ देश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उनके चार तेजस्वी पुत्र हुए: कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस तथा वसु। राजा कुश ने अपने इन सत्यवादी एवं धर्मनिष्ठ पुत्रों से कहा, “पुत्रों! प्रजा का पालन करो, इससे तुम्हें धर्म का पूरा फल प्राप्त होगा।”
अपने पिता की बात सुनकर उन चारों पुत्रों ने अपने लिए अलग-अलग नगरों का निर्माण करवाया। कुशाम्ब ने कौशाम्बी नामक नगर बसाया, कुशनाभ ने महोदय नामक नगर का निर्माण करवाया, असूर्तरजस ने धर्मारण्य तथा वसु ने गिरिव्रज नगर की स्थापना की। यही गिरिव्रज नामक राजधानी वसुमती के नाम से प्रसिद्ध हुई है और उसके चारों ओर ये पाँच पर्वत सुशोभित हैं। यह रमणीय नदी दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती हुई इस मगध देश में आई है, इसलिए यहाँ इसे ‘सुमागधि’ भी कहा जाता है। इसके दोनों ओर बहुत उपजाऊ खेत हैं।
राजा कुशनाभ ने घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से सौ कन्याओं को जन्म दिया था। युवावस्था में एक बार वायुदेव के कोप से वे कन्याएँ वातरोग के कारण कुबड़ी हो गईं। इस कुब्जता के कारण उनका सारा सौन्दर्य नष्ट हो गया व उनकी दशा अत्यंत दयनीय हो गई। तब महर्षि चूली के पुत्र राजा ब्रह्मदत्त ने उनका यह रोग दूर किया और राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त से ही उन सब कन्याओं का विवाह करवा दिया।
विवाह के बाद सभी सौ कन्याओं के चले जाने से राजा कुशनाभ संतानहीन हो गए। अतः उन्होंने पुत्रप्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ से उनके यहाँ गाधि नामक पुत्र का जन्म हुआ। वही राजा गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म लेने के कारण मैं कौशिक कहलाता हूँ।
मेरी एक बड़ी बहन भी थी, जिसका नाम सत्यवती था। उसका विवाह ऋचीक मुनि से हुआ था। अपने पति का अनुसरण करने वाली मेरी बहन सशरीर स्वर्गलोक को चली गई। उसी के नाम से महानदी कौशिकी इस भूतल पर प्रवाहित होती है।
अपनी बहन सत्यवती से मेरा बहुत स्नेह था। अतः उसी का स्मरण करके मैं हिमालय के तट पर कौशिकी नदी के तट पर सुख से निवास करता हूँ। यज्ञ संबंधी नियम की सिद्धि के लिए ही मैं उस स्थान को छोड़कर यहाँ सिद्धाश्रम (बक्सर) आया था। अब तुम्हारे तेज से मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गई है।
हे नरश्रेष्ठ! अब आधी रात बीत गई है, अतः तुम अब विश्राम करो। अधिक जागरण के कारण हमारी यात्रा में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए।” यह सुनकर सभी ने उन्हें प्रणाम किया और शयन के लिए चले गए।
अगले दिन सुबह सभी लोग वहाँ से आगे बढ़े। दोपहर होते-होते उन सभी ने गंगा जी के तट पर पहुँचकर उस पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन किया। उन सबने वहीं अपना डेरा डाला और फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं व पितरों का तर्पण किया। इसके बाद अग्निहोत्र करके अमृत जैसे स्वादिष्ट हविष्य का भोजन किया।
भोजन के उपरांत वे सभी लोग पुनः विश्वामित्र जी को चारों ओर से घेरकर बैठ गए। तब श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पूछा, “भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली यह गंगाजी किस प्रकार तीनों लोकों में घूमकर अंततः समुद्र में जा मिलती हैं।” यह सुनकर महर्षि ने उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा बताई।
वह कथा समाप्त होते-होते दिन भी बीत गया था। तब विश्वामित्र जी बोले, “श्रीराम! महाराजा इक्ष्वाकु के ही वंशज राजा सुमति यहाँ निकट ही विशाला नगरी में शासन करते हैं। आज की रात्रि हम लोग वहीं व्यतीत करेंगे और फिर कल प्रातःकाल यहाँ से चलकर मिथिला में राजा जनक का दर्शन करेंगे।