वानरों ने जब अंगद को मूर्च्छित होकर भूमि पर गिरते हुए देखा, तो उन्होंने तुरंत इसकी सूचना श्रीराम को दी। यह समाचार मिलने पर श्रीराम ने जाम्बवान, सुषेण और वेगदर्शी आदि को युद्ध के लिए जाने का आदेश दिया। आज्ञा मिलते ही वे सब क्रोधित वानर चारों ओर से कुम्भ पर टूट पड़े। अंगद की रक्षा के लिए उन्होंने वृक्षों और शिलाओं से उस राक्षस पर आक्रमण कर दिया। लेकिन कुम्भ ने अपने बाणों से उनके सब प्रहार निष्फल कर दिए।
यह देखकर अब स्वयं सुग्रीव ने मोर्चा संभाला और अश्वकर्ण (साल) के बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर उस राक्षस पर धावा बोल दिया। लेकिन कुम्भ बहुत कुशल धनुर्धर था। उसने उन सब वृक्षों को अपने बाणों से काट डाला। तब क्रोधित होकर सुग्रीव ने सहसा छलांग लगा दी और कुम्भ का धनुष छीनकर तोड़ डाला।
अब कुम्भ ने भी अपने रथ से नीचे उतरकर सुग्रीव को पकड़ लिया। उन्मत्त हाथियों के समान अब वे एक-दूसरे से भिड़ गए। सुग्रीव ने कुम्भ को उठाकर बड़े वेग से सागर में फेंक दिया। वह समुद्र के तल में जा गिरा, किन्तु शीघ्र ही उछलकर बाहर आ गया। अब उसने भी क्रोध में भरकर सुग्रीव को पटक दिया और उसकी छाती पर मुक्के का भीषण प्रहार किया। इससे सुग्रीव का कवच टूट गया और रक्त बहने लगा। तब सुग्रीव ने भी क्रोधित होकर एक जोरदार मुक्का उसकी छाती पर दे मारा। उस भीषण प्रहार की चोट से वह राक्षस एक ही क्षण में धराशायी हो गया। उसके मारे जाने से सब राक्षसों का हृदय भय से काँप उठा।
अपने भाई को मरता हुआ देखकर निकुम्भ को असीम क्रोध आया। उसने जलती हुई आँखों से सुग्रीव को देखा। फिर उसने एक विशाल परिघ अपने हाथ में ले लिया। वह फूलों की लड़ियों से अलंकृत था और उसमें सोने व लोहे के पतरे जड़े हुए थे। उसे हीरे और मूँगे से सजाया गया था।
उस परिघ को घुमाते हुए निकुम्भ जोर-जोर से गर्जना करने लगा। उसने सोने का पदक पहना हुआ था। उसकी भुजाओं में बाजूबंद सजे हुए थे, कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे और गले में अद्भुत माला जगमगा रही थी। उसके परिघ से टकराने के कारण प्रवह-आवह आदि सात महावायुओं को सन्धि टूट गई भारी गड़गड़ाहट के साथ वह प्रज्वलित हो उठा। यह देखकर सब राक्षस और वानर भय से जड़ हो गए। कोई अपने स्थान से हिलने तक का साहस न कर पाया।
ऐसे में परमवीर हनुमान जी निर्भय होकर आगे बढ़े और उसके सामने सीना तानकर खड़े हो गए। उस राक्षस ने अपना परिघ फेंककर उनकी छाती पर मारा। लेकिन उनकी छाती बड़ी मजबूत और विशाल थी। हनुमान जी से टकराते ही उस परिघ के टुकड़े-टुकड़े हो गए। अब हनुमान जी ने बलपूर्वक अपनी मुट्ठी बाँधी और बड़े वेग से एक मुक्का निकुम्भ की छाती पर मार दिया। उनके इस प्रहार से निकुम्भ का कवच फट गया और उसके सीने से रक्त बहने लगा। शीघ्र ही संभलते हुए उसने लपककर हनुमान जी को पकड़ लिया। यह देखकर राक्षस प्रसन्न होकर विजयसूचक गर्जना करने लगे।
लेकिन अगले ही क्षण हनुमान जी ने अपने मुक्के से उस पर एक और प्रहार किया और उसके चंगुल से छूट गए। फिर उन्होंने उस निशाचर को उठाकर भूमि पर पटक दिया। अब वे कूदकर उसकी छाती पर चढ़ बैठे और दोनों हाथों से उसका गला मरोड़कर उन्होंने निकुम्भ का सिर धड़ से उखाड़ डाला। भयंकर आर्तनाद करता हुआ वह राक्षस तत्क्षण मारा गया। उसके मरते ही सब वानर हर्ष से गर्जना करने लगे और सब राक्षस पुनः भयभीत हो गए।
कुम्भ और निकुम्भ के वध का समाचार पाकर रावण क्रोध से जल उठा। अब उसने खर के पुत्र मकराक्ष से कहा, “बेटा! तुम एक विशाल सेना लेकर जाओ और उन बंदरों सहित राम व लक्ष्मण दोनों को मार डालो।”
स्वयं को शूरवीर समझने वाले मकराक्ष ने तुरंत ही आज्ञा का पालन किया। उसने महल से बाहर निकलकर सेनाध्यक्ष से कहा, “सेनापते! शीघ्र रथ ले आओ और सेना को भी बुलवाओ।”
उसकी आज्ञा पाकर शीघ्र ही राक्षसों की एक बड़ा सेना वहाँ एकत्र हो गई। वे सब राक्षस इच्छानुसार रूप धारण करने वाले तथा क्रूर स्वभाव के थे। उनकी दाढ़ें बड़ी-बड़ी और आँखें भूरी थी। उनके बाल बिखरे हुए थे, जिससे वे और अधिक भयानक दिखाई देते थे। हाथी के समान चिंघाड़ते हुए वे सब मकराक्ष को चारों ओर से घेरकर बड़े हर्ष से युद्धभूमि की ओर बढ़े। उस समय चारों ओर शंखों की ध्वनि हो रही थी। हजारों डंके पीटे जा रहे थे। योद्धाओं के गरजने और ताल ठोंकने की ध्वनि भी उसमें मिल गई थी और इस प्रकार वहाँ भीषण कोलाहल हो रहा था।
तभी अचानक मकराक्ष के सारथी का चाबुक हाथ से छूट गया और सहसा उसके रथ का ध्वज भी नीचे गिर पड़ा। रथ के घोड़े भी चलते-चलते लड़खड़ाने लगे और आँखों से आँसू बहाने लगे। इन सब अपशकुनों को देखकर भी वे राक्षस युद्ध के लिए आगे बढ़ते रहे। उन सबके शरीर बादलों, भैसों और हाथियों जैसे काले थे। पिछले अनेक युद्धों में मिले घावों के निशान उनके शरीरों पर दिखाई दे रहे थे, किन्तु फिर भी वे युद्ध के लिए बहुत उतावले हो रहे थे।
जब वानरों ने मकराक्ष को नगर से बाहर निकलते हुए देखा, तो वे भी तुरंत ही उछलकर युद्ध के लिए खड़े हो गए। अब दोनों सेनाओं के बीच भीषण संग्राम छिड़ गया। वृक्ष, शूल, गदा, परिघ, शक्ति, खड्ग, भाले, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, बाणप्रहार, पाश, मुद्गर, दण्ड आदि अनेकों अस्त्र चलने लगे।
मकराक्ष ने अपने बाणों की वर्षा से वानरों को अत्यंत घायल कर दिया। यह देखकर भयभीत वानर इधर-उधर भागने लगे। उन्हें भागता देख सब राक्षस अहंकार से गर्जना करते हुए आगे बढ़ने लगे।
राक्षसों को आगे बढ़ता देख श्रीराम ने धनुष उठाया और अपने बाणों की वर्षा से उन राक्षसों का मार्ग रोक दिया। यह देखकर मकराक्ष क्रोधित हो उठा। उसने श्रीराम को ललकारते हुए कहा, “ठहरो दुरात्मा राम! आज तुम्हारे साथ मेरा द्वंद्वयुद्ध होगा। जबसे तुमने दण्डकारण्य में मेरे पिता का वध किया, तब से तुम राक्षसों के संहार में ही लगे हुए हो। इस कारण तुम पर मेरा भी रोष भी बढ़ता आ रहा है। दण्डकारण्य में तो तुम मुझे दिखाई नहीं दिए, किन्तु बड़े सौभाग्य की बात है कि आज तुम स्वयं ही चलकर मेरे हाथों मरने के लिए आ गए हो।”
यह सुनकर श्रीराम जोर-जोर से हँसते हुए बोले, “निशाचर! क्यों व्यर्थ डींग हाँकता है? दण्डकारण्य में जब मैंने तेरे पिता खर के साथ ही त्रिशिरा, दूषण व अन्य चौदह हजार राक्षसों का वध किया था, तो तीखी चोंच और अंकुश जैसे पंजों वाले अनेक गिद्ध, गीदड़ कर कौए भी उनके मांस को खाकर भली-भाँति तृप्त हो गए थे। अब वे तेरे मांस को खाकर वैसे ही तृप्त होंगे।”
यह सुनते ही मकराक्ष ने श्रीराम पर बाणों की झड़ी लगा दी। श्रीराम ने भी उस पर बाणों की बौछार करके उसके सब बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात श्रीराम ने क्रोध में भरकर उस राक्षस के धनुष को काट डाला और आठ नाराचों से उसके सारथी को भी मार दिया। फिर बाणों से उन्होंने उसके घोड़ों को भी मार गिराया।
अपना रथ नष्ट हो जाने पर मकराक्ष उतरकर भूमि पर खड़ा हो गया। अब उसने एक भयंकर शूल अपने हाथों में ले लिया, जो कि स्वयं शिवजी का दिया हुआ था। उस शूल को बड़े क्रोध से घुमाकर उसने श्रीराम के ऊपर चला दिया। लेकिन चार बाण मारकर श्रीराम ने वह शूल आकाश में ही काट डाला। कई टुकड़ों में टूटकर वह भूमि पर बिखर गया।
अब मकराक्ष घूँसा तानकर श्रीराम की ओर बढ़ने लगा। उसे आगे बढ़ता हुआ देख श्रीराम ने अपने धनुष पर आग्नेयास्त्र का संधान किया। उस अस्त्र के प्रहार से मकराक्ष का हृदय विदीर्ण हो गया तथा एक ही क्षण में वह निशाचर मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
उसके धराशायी होते ही सब राक्षस-सैनिक घबराकर पुनः लंका में भाग गए।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)