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विदेश में पढ़ने के लिए जाते बच्चे से ग्रसित हमारी छोटी मानसिकता

by रंजना सिंह
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विदेश में पढ़ने के लिए जाते बच्चे से ग्रसित हमारी छोटी मानसिकता

वो जो एक मनोरोग होता है न, जिसमें अपहरणकर्ता से ही प्रेम हो जाता है भले उसने अमानवीय यातना ही क्यों न दी हो,,,,लगभग वैसे ही रोग से हम भारतवासी भी वर्षों से ग्रसित हैं।सदियों की दासता ने हमें मानसिक दासत्व में ही सुखी रहना सिखाया है।गोरे लोग श्रेष्ठ होते हैं,यह हमारे अवचेतन मन का अकाट्य विश्वास है।उनका अनुकरण कर ही हम श्रेष्ठता की अनुभूति पाते हैं।यह मानसिकता हमें यह तक आँकलन नहीं करने देती कि यूक्रेन जैसे देशों के जिन संस्थानों में हम लाखों लाख व्यय करके अपने बच्चों को पढ़ने भेज रहे हैं,उन संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग क्या है?बच्चे जो सीखकर आएँगे उसके बाद शिक्षित बेरोजगार रहेंगे या उन्हें कहीं सम्बंधित काम काज भी मिलेगा?
एक बस इस अहंतुष्टि के लिए कि सीना तान कर सबको बता सकें, हमारा बचवा फॉरेन पढ़ने गया है,,बच्चों को सी और डी ग्रेड संस्थानों में भेज देते हैं।
दूसरी तरफ इन दिनों एक और बात देख मन क्षुब्ध और दुखी है कि इन बच्चों में संस्कार और शिष्टाचार जो धेले भर का भी नहीं है(इन्हें एयरपोर्ट पर रिसीव करने भारत सरकार के मंत्री/प्रतिनिधि हाथ जोड़े खड़ें हैं और इनमें इतनी समझ नहीं कि नमस्कार का यथोचित प्रत्युत्तर दे सकें।हमलोग तो एक वॉचमैन के नमस्कार का भी दुगुनी विनम्रता से प्रत्युत्तर देते हैं),यदि ये ढंग से अपने पढ़े लिखे क्षेत्र में सेटल न हो पाएँगे तो अहंकार त्याग किसी भी दूसरे रोजगार में जुट जाँयगे, इसकी संभावना नगण्य है।
ऐसे कई बच्चों को अपना और अपने पूरे परिवार का जीवन नर्क बनाते मैंने देखा है जो बड़े बड़े कॉलेजों से पढ़कर वापस आये हैं और रोजगार न पाने पर अपनी श्रेष्ठताबोध/अहंकार को त्यागकर किसी छोटेमोटे रोजगार से जुड़े हैं।
शिक्षित बेरोजगार और स्वरोजगार के प्रति अरुचि यूँ भी भारत की बहुत बड़ी समस्या है।नौकरी में ही निस्तार, आर्थिक सुनिश्चितता समाज देखता है।
जबकि लोगों को मान लेना चाहिए कि सभी बच्चे डॉक्टर इंजीनियर सीए वकील आदि बनने के लिए नहीं जन्मे है।यदि बच्चा बहुत स्कोर नहीं कर पा रहा है तो उसके सिर पर सवार होने की जगह देखें कि उसकी स्वाभाविक प्रतिभा, रुचि किस चीज में है।उसकी संभावनाओं को पहचान कर उसमें उनकी दीक्षा की व्यवस्था करें।
मेरे एक रिश्तेदार को 8 वर्षों तक कम्पीटीटिव एग्जाम के लिए खपाए रखा गया और जब परीक्षा की वयसीमा पार हो गयी तो उसके पसन्द के व्यवसाय की अनुमति दी गयी।आज वह सफल और समृध्द व्यवसायी है और पछताता है कि उसने महत्वपूर्ण 8 वर्ष क्यों गँवाए।
स्वरोजगार के प्रति लोगों का जो एक उपेक्षा और अनिश्चितता/भय का बोध है,इससे जिस दिन हमारा देश मुक्त हो जाएगा, बेरोजगारी का रोना ही खत्म हो जाएगा।बहुधा मुझे लगता है हमारे यहाँ जातिगत व्यवसाय की जो परम्परा थी जिसमें बच्चा आँखें खोलते ही परंपरागत व्यवसाय को देखने सीखने लगता था और उसके सम्मुख डिग्री डिप्लोमा कोर्स की कोई बाध्यता ही नहीं रहती थी,,कितनी सुव्यवस्थित उत्कृष्ट थी।अब तो उसको रोया ही जा सकता है, वापस नहीं पाया जा सकता, किन्तु इतना तो हम अवश्य करें कि बच्चों में सबसे पहले शिष्टाचार और संस्कार भरकर उन्हें मनुष्य बनाएँ और फिर यदि उनमें शैक्षणिक मेधा नहीं तो रोजगार के अन्य विकल्पों से उनको किशोरावस्था से ही जोड़ें।

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