Home राजनीति वे जो हारे हुए : अच्छा कहिए भाग 1
‘मुलायम सिंह जब 1989 में मुख्यमंत्री हुए थे तब नवंबर, 1990 में जो अयोध्या में उन्हों ने कड़ाई की थी, कार सेवकों पर गोलियां चलवाई थीं। तब लोग गुस्से में आ गए। वह कहते रहे कि, ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’ हालां कि परिंदा पर मार गया। लोग मस्जिद के गुंबद तक पर चढ़ गए। रिहर्सल हो गई थी, तभी वीएचपी वालों की। वीएचपी वालों का मनोबल उसी से बढ़ा। वह कहते रहे कि परिंदा पर नहीं मार सकता। और लोग लाश बन-बन कर इकट्ठे हो गए। एक लाश मतलब पांच लोग। इस कड़ाई को वहां की स्थानीय जनता ने भी नहीं पसंद किया और वीएचपी की आग में घी बन बैठी। देश के हिंदुओं में इस कड़ाई को पसंद नहीं किया गया। साफ़ कहूं कि मुलायम ने हिंदुओं को उकसाया भी और भड़काया भी। ठीक वैसे ही जैसे बाद के दिनों में गोधरा के बहाने नरेंद्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों को मरवाया और देश भर के मुसलमानों को भड़काया। कल्याण से उन की दोस्ती बैकवर्ड कार्ड के बूते थी ही, दोनों ने अपनी राजनीति पक्की की। लोगों का ख़ून बहा तो उन की बला से। देश पर एक दाग़ लगा, देश तबाह हुआ तो उन की बला से। वह मस्जिद की रखवाली का दावा करते रहे, मस्जिद गिर गई। आप अगले को भड़का कर अपनी कोई चीज़ सुरक्षित रख सकते हैं, यह कभी संभव नहीं है, इस बात को एक साधारण आदमी भी जानता है। फिर दूसरी भूल थी वहां कार सेवा के बहाने भीड़ इकट्ठी करना। इस भीड़ को बटोरने के लिए नरसिंहा राव और कल्याण दोनों दोषी मान लिए गए हैं। पर सुप्रीम कोर्ट क्या इतनी अंधी और नादान थी कि एक कल्याण रूपी मुख्यमंत्री के शपथ पत्र को स्वीकार कर बैठी? वह न्यायमूर्ति लोग नहीं जानते थे कि भीड़ हमेशा हिंसक होती है? भीड़ कुछ भी कर सकती है। एक बात।’ आनंद बोला, ‘दूसरी बात यह कि हाईकोर्ट की अपनी लखनऊ बेंच की पीठ ने अगर ज़मीन अधिग्रहण वाले मामले पर समय रहते फ़ैसला दे दिया होता तो शायद तब भी मस्जिद बच सकती थी। इस बेंच ने भी मुलायम की तरह ही वहां मौजूद कार सेवकों को भड़काया।’ वह बोला, ‘मुझे याद है जस्टिस एस.सी. माथुर, जस्टिस बृजेश कुमार और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा की फुल बेंच थी तब। और कि ज़मीन अधिग्रहण मामले की सुनवाई पूरी हो गई थी। आर्डर रिज़र्व हो गया था। जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार से जस्टिस रज़ा की ओपिनियन डिफ़रेंट हो गई थी। तो भी जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने अपने आर्डर लिखवा दिए थे। और बता दिया था कि अधिग्रहण ग़लत है। जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा ने डिले किया। न सिर्फ़ डिले किया दो-तीन महीने बल्कि डिलेड जस्टिस इज़ इनजस्टिस को भी फलितार्थ किया। आदेश जारी किया तब, मस्जिद जब गिर-गिरा गई, दंगे भड़क गए देश भर में तब। और तो भी उन के आर्डर में था क्या? कोरी ल़फ़ाज़ी। कोई क्लीयर आदेश नहीं। यह ल़फ़ाज़ी आप पहले भी झाड़ सकते थे, मस्जिद शायद बच जाती। लोग इकट्ठे हो ही गए थे तो शायद उस ग़ैर विवादित सवा एकड़ ज़मीन जो वीएचपी के पास पहले ही से थी उस पर ही कार सेवा कर के लौट गए होते। तो जनाब एक मुलायम और दूसरी यह न्यायपालिका दोनों ने मिल कर मस्जिद गिरवा दी, देश पर दाग़ लगवा दिया, देश तबाह कर दिया। देश कम से कम पचीस साल पीछे चला गया। दंगों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। आतंकवाद का नासूर और गाढ़ा हो गया। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के धागे में गांठ पड़ गई।’ वह बोला, ‘यह मेरी अपनी राय है। ज़रूरी नहीं कि आप लोग मेरी बात से सहमत ही हों।’
‘नहीं मसले का एक पहलू तो यह भी है।’ जस्टिस बोले और वकील ने हां में हां मिलाई।
‘तो इस न्यायपालिका को सोचना चाहिए कि चीजे़ं बिगड़ने के बाद न्याय देने का क्या कोई मतलब है? आदमी मर जाए न्याय मांगते-मांगते और आप उस के मरने के बाद उसे न्याय दे भी दें तो उस का क्या अर्थ है?’
‘आप लोग खाना भी खाएंगे या बातों से ही पेट भर लेंगे?’ जस्टिस की पत्नी बोलीं, ‘बच्चे लोग खाना खा चुके हैं बस हम लोग ही बाक़ी हैं।’
‘तो परोसिए।’ आनंद बोला, ‘सच बताऊं मैं तो आप को देखते ही भुखा जाता हूं। जाने कहां से भूख आ कर पेट में बैठ जाती है और कहती है, ‘खाओ-खाओ, जल्दी खाओ।’
‘आप तो आनंद जी ऐसा कर देते हैं कि लोगों को आता होगा मज़ा खाने में, पर हम को तो खिलाने में मज़ा आ जाता है।’
‘अब ज़्यादा कहंेगी तो पेट के चूहे मुंह में आ जाएंगे।’
सब लोग हंसने लगे।
खाना खा कर आनंद ने कहा कि, ‘ज़रा आप का घर देख लूं?’
‘हां, हां क्यों नहीं।’
उनके बेडरूम की एक खिड़की से जिस में खूब बड़ा सा शीशा लगा था, नैनी झील का व्यू इतना मोहक दिख रहा था कि वह तरस कर रह गया। बोला, ‘क्या बताऊं आज वापसी की टिकट है नहीं आज रात यहीं सो जाता।’
‘अरे तो टिकट कैंसिल करवा देते हैं।’
‘अरे नहीं-नहीं। अगली बार जब आएंगे तब!’
जज साहब के घर से वह फिर नैनी झील आ गया। बच्चों के साथ फिर बोटिंग की। शाम होने को आ गई। वापस नैनीताल क्लब आ कर सामान समेटा। नैनीताल से विदा हुआ। संयोग ही था कि रास्ते में टैक्सी वाले ने राम तेरी गंगा मैली का वह गाना भी बजा दिया जो वह नैनीताल आते ही सोच रहा था, ‘हुस्न पहाड़ों का, क्या कहना कि बारों महीने यहां मौसम जाड़ों का।’ आनंद आ गया आनंद को। साथ ही साथ बच्चे भी यह गाना गाते जा रहे हैं। बिलकुल सुर में सुर मिला कर। एक से एक मनोरम दृश्य पहाड़ों की हरियाली इस गाने में और इज़ाफ़ा भरती जाती है। पहाड़ों के मोड़ की तरह यह गाना भी कई मोड़ लेते हुए ख़त्म हो रहा है, ‘दुनिया ये गाती है, कि प्यार से रस्ता तो क्या ज़िंदगी कट जाती है।’
‘ये तो है।’ पत्नी मुदित हो कर बुदबुदाती है।
‘क्या बात है डार्लिंग मज़ा आ गया।’ अचानक आनंद उछल कर बोला। तो बच्चे अचकचाते हुए मुसकुरा पड़े।
लखनऊ लौट कर उस ने एक दिन रेस्ट किया। दूसरे दिन आफ़िस गया। उस ने पाया कि आफ़िस में सब कुछ सामान्य सा ही था कुछ भी बदला हुआ नहीं था।
उसे अच्छा लगा।
चैनलों और अख़बारों में इन्हीं दिनों एक ही परिवार की राजनीति के दो फांक दिखाए जा रहे थे। एक तरफ़ राहुल गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह लोकसभा में कलावती का मामला उठा रहे हैं, कहीं श्रमदान हो रहा है तो वहां मिट्टी ढो रहे हैं। दूसरी तरफ़ वरुण गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह दहाड़ रहे हैं कि जो भी हिंदुओं की तरफ़ आंख उठा कर देखेगा उस के हाथ काट डालूंगा। या ऐसे ही कुछ। फिर पीलीभीत की दीवारों पर लिखे नारे दिखते- वरुण नहीं यह आंधी है, दूसरा संजय गांधी है।
वह पूछता लोगों से, ‘यह क्या हो रहा है?’
‘कुछ नहीं बड़े भइया कलावती-कलावती कह कर मिट्टी ढोते रह गए। और यह देखिए यह तो निकल गया। बड़ा नेता हो गया। चहंु ओर इसी की चर्चा है।’ एक पत्रकार सिगरेट की राख झाड़ते हुए कहता है।
‘आप पत्रकार हैं! और यही आप का विज़न है?’ आनंद जैसे डपटता है!
‘विज़न नहीं भाई साहब टेलीविज़न! टेलीविज़न यह कह रहा है, जनता यही कह रही है। देखते नहीं आप ख़बरों में कि जनता टूटी पड़ रही है- वरुण गांधी पर! भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है इस ने।’ पत्रकार कहता है, ‘कांग्रेस में तो यह परिवार क़ाबिज़ था ही, अब भाजपा में भी क़ाबिज़ हो गया। आप को पता है कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में स्टार प्रचारक के तौर पर सब से ज़्यादा वरुण की ही मांग है!’
‘अच्छा?’
‘अरे, अब वरुण महानायक है!’
‘और राहुल?’
‘शून्य! सिफ़र! मज़दूर! कहिए कि भइया मिट्टी ढोते रहो। हुंह मिट्टी ढो कर भी कहीं राजनीति होती है आज की तारीख़ में? चुगद साला!’
तरह-तरह की टिप्पणियां हैं।
तो क्या आनंद भी ऐसे ही रह जाएगा? सांप्रदायिक हुए बिना, जातिवादी हुए बिना इस देश में राजनीति नहीं हो सकती? तो वह ऐसे ही साफ़ सुथरी राजनीति के सपने बुनता रह जाएगा?
वह डर जाता है।
डर जाता है राजनीति के इस तरह अराजक होने से, दिशाहीन, सांप्रदायिक और जातिवादी होने से।
आनंद के एक रिश्तेदार हैं। दिल के मरीज़ हैं। रुटीन जांच के लिए आए हैं। बात अपने शहर की हो रही है। चुनाव की भी होती है। वह बता रहे हैं कि, ‘माहौल तो महंत के खि़लाफ़ बहुत है। ख़ास कर आप की क़ासिम वाली प्रेस कानफ्रेंस के बाद। मुसलमान तो नाराज़ हैं ही। हिंदू भी बहुत नाराज़ हैं।’
‘हिंदू क्यों नाराज़ हैं?’

Related Articles

Leave a Comment